दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध दैव दैव आलसी पुकारा ,यह कहावत हमारी संस्कृति में प्रचलित एक लोकोक्ति है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति अपने कर्मों में लापर
दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध
दैव दैव आलसी पुकारा ,यह कहावत हमारी संस्कृति में प्रचलित एक लोकोक्ति है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति अपने कर्मों में लापरवाह रहता है और सफलता के लिए कठिन परिश्रम नहीं करता, वह अपने भाग्य को दोष देता है। वह अपनी असफलताओं का कारण दैव या भाग्य को मानता है और खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराता।
भाग्य और पुरुषार्थ से अभिप्राय
भाग्य और पुरुषार्थ दोनों सहोदर, किंतु वैचारिक और व्यावहारिक स्वभाव से विपरीत प्रवृत्ति वाले हैं। दोनों में संघर्ष होता रहता है। दोनों ही अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं। जहाँ भाग्य ने स्थान बना लिया वहाँ मनुष्य अकर्मण्य और आलसी बन जाता है और अपने भाग्य को कोसता है। परिस्थितियों का दास बनता जाता है। अनेक विषमताओं से घिर जाता है। आगे कदम बढ़ाने में डरने लगता है। दूसरी ओर पुरुषार्थ के स्थान पा लेने पर मनुष्य साहसी हो जाता है। कर्म करने में अधिकार समझता है। विषमताओं को भी धता बताते हुए आगे बढ़ता है। परिस्थितियाँ उसकी दास हो जाती हैं। प्रसन्न रहता है, सफलताएँ उसके चरण चूमने को आतुर रहती हैं। इस तरह हर मनुष्य के विचारों में द्वंद्व चलता है। मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार ही भाग्य और पुरुषार्थ में से कोई स्थान बनाने में सफल हो जाता है।
परिश्रमी व्यक्ति का सफलता प्राप्त करना
जीवन में सफलता भाग्य के आधार पर नहीं मिलती है, अपितु पुरुषार्थ से मिलती है। हमारे जीवन में अनेक विपत्तियाँ आती हैं। ये विपत्तियाँ हमें रुलाने के लिए नहीं, अपितु पौरुष को चमकाने के लिए आती हैं। जीवन में यदि किंचित भी भाग्य के आधार पर अकर्मण्यता ने प्रवेश पा लिया तो सफलता दूर हो जाती है। विद्वानों का विचार है कि पहाड़ के समान दिखाई देने वाली बाधाओं को देखकर विचलित होना पौरुषता का चिह्न नहीं है। हताशा, निराशा, तो कायरता के चिह्न हैं। मनुष्य के अंदर वह शक्ति है जो यमराज को भी ललकार सकती है। केवल एक बार संकल्प करने की आवश्यकता होती है। असफलता की जो चट्टान सामने दिखाई देती है वह इतनी मजबूत नहीं है जो गिराई न जा सके। सिर्फ एक धक्का देने की आवश्यकता है, चकनाचूर हो जाएगी। ठहरें नहीं, रुकें नहीं, संघर्ष हमें चुनौती दे रहा है। चुनौती स्वीकार करें और पूरी ताकत से प्रहार करें। सफलता मिल कर रहेगी। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण का विचार था कि यदि तुम चाहते हो कि विजयी बनो, सफलता तुम्हारे चरण चूमे तो फिर रुकने की क्या आवश्यकता है? परिस्थितियाँ तुम्हारा क्या बिगाड़ लेंगी? विरोधी पस्थितियों से मित्रता नहीं, संघर्ष अपेक्षित है।
कर्मशील व्यक्ति की मान्यताएँ
अपने पुरुषार्थ पर विश्वास रखें। अवसर की प्रतीक्षा करें। अवसर चूकना बुद्धिमानी नहीं है। अतः याद रहे कि जलधारा के बीच पड़ा कंकड़ नदी के प्रवाह को बदल देता है। एक छोटी-सी चींटी भीमकाय हाथी की मृत्यु का कारण बन सकती हैं, फिर हम तो पुरुष हैं। अपने पुरुषार्थ से असंभव को संभव बना सकते हैं। जीवन में यदि संघर्ष और खतरों से खेलने की प्रवृत्ति न हो तो जीवन का आधा आनंद समाप्त हो जाता है। जिस व्यक्ति के मन में सांसारिक महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं हैं उसे किसी भी प्रकार के संशय और विपदाएँ विचलित नहीं कर सकती हैं।
आत्मबल और दृढ़ संकल्प के सम्मुख तो बड़े-से-बड़ा पर्वत भी नत हो जाता है। कहा जाता है एक निर्वासित बालक श्रीराम के पौरुष के सामने समुद्र विनती करते हुए आ खड़ा हुआ, नेपोलियन बोनापार्ट के साहस को देखते हुए आल्पस पर्वत उसका रास्ता न रोक सका। महाराजा रणजीत के पौरुष को देखते हुए कटक नदी ने रास्ता दे दिया। संसार को रौंदता हुआ जब सिकंदर ने भारत में प्रवेश किया तो राजा पोरस के पौरुष को देखकर हतप्रभ रह गया और आचार्य चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य के सामने मुँह की खानी पड़ी। छत्रपति शिवाजी के सम्मुख अतुल सेना का मालिक औरंगजेब थर-थर काँपता रहा, वीरांगना झाँसी वाली रानी के शौर्य के सम्मुख अंग्रेज़ दाँतों तले अँगुली दबाकर रह गए। स्वामी विवेकानंद ने शिंकागो में जाकर भारतीय संस्कृति की सर्वोत्कृष्टता की पताका फहराई। डॉ. हेडगेवार ने विषम परिस्थितियों में देश को राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत संगठन खड़ा किया। लौह-पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल ने देश की सभी रियासतों को एक झंडे के तले खड़ा कर दिया। महात्मा गाँधी जहाँ भी रहे, जहाँ भी गए, परिस्थितियों को चुनौती देते रहे। पुरुषार्थ से अलग भाग्यवादी लोग चलनी में दूध दुहते हैं और पश्चात्ताप करते हैं और भाग्य को कोसते हैं।
भाग्यवादी मनुष्य सदैव रोता है
भाग्यवादी मनुष्य सदैव रोता है, समय खोता है, शेखचिल्ली की कल्पना करता है, परिस्थितियों को देख घबराता है, समाज, देश, यहाँ तक कि स्वयं अपने लिए बोझ बनता है। निराशाओं से घिरा रहता है, हाथ आए सुअवसर को भी हाथ से निकाल देता है। चलनी में दूध दुहता है। दूसरों से ईर्ष्या करता है, दूसरों को दोष देता है। कल्पवृक्ष हाथ लगने की कल्पना करता है और रोता हुआ आता है; रोता हुआ चला जाता है। जीवन निंदित और तिरस्कृत होता है, कुंठित होता है। इस प्रकार सर्वथा निंदनीय और हेय होता है। संपूर्ण जीवन नारकीय बन जाता है। इतना ही नहीं परंपरा से विरासत में मिली पूर्वजों की संपत्ति, यश, समृद्धि को नष्ट कर कलंकित हो जाता है। ऐसे लोगों को ही पाठ पढ़ाने की आवश्यकता होती है कि-
उद्येमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि, न मनोरथैः
नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।
हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि स्वतंत्रता के बाद जो छोटी-छोटी रियासतें थीं या कहो छोटे-मोटे राजा थे, वे अपनी अतीत की परंपरा में परिवर्तन न कर सके। फलस्वरुप उन परिवारों की ओर कोई 'आँखें' उठाकर देखने वाला नहीं है। निरुद्यमी होने के कारण वे सड़क पर आ खड़े हुए।
उपसंहार
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार दृष्टि जितनी ऊँची होगी तीर उतनी ही दूर जाएगा। पुरुषार्थ भी जितनी सही दिशा में होगा उतना ही पुरुष उन्नत होगा। भाग्य के भरोसे बैठे रहना कायरता है, नपुंसकता है। अतः हमें ध्यान रखना चाहिए कि पुरुषार्थ मनुष्य को महान बना देता है। कार्य के प्रति निष्क्रियता मानव को पतन की ओर ले जाती है। तमिल में एक लोकोक्ति है 'यदि पैर स्थिर रखोगे तो दुर्भाग्य की देवी मिलेगी और पैर चलेंगे तो श्री देवी मिलेगी' यह सटीक एवं सार्थक है।
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