पाश्चात्य काव्यशास्त्र में टी.एस. इलियट का काव्य सिद्धांत टी.एस. इलियट, 20वीं शताब्दी के प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि और आलोचक, जिन्हें आधुनिक काव्य आंदोलन
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में टी.एस. इलियट का काव्य सिद्धांत
टी.एस. इलियट, 20वीं शताब्दी के प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि और आलोचक, जिन्हें आधुनिक काव्य आंदोलन का अग्रणी माना जाता है, ने पाश्चात्य काव्यशास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके काव्य सिद्धांत, जो परंपरा, निर्वैयक्तिकता, वस्तुनिष्ठता और "उद्दीपन-प्रतिक्रिया" तंत्र पर केंद्रित हैं, ने 20वीं सदी के कविता के स्वरूप और दिशा को गहराई से प्रभावित किया।
वस्तुनिष्ठ समीकरण का सिद्धांत
इलियट का 'वस्तु-समीकरण का सिद्धान्त' अपनी वस्तुपरक दृष्टि के कारण स्वच्छन्दतावादी सिद्धान्तों के विरुद्ध माना गया है। इलियट का कथन है कि- "कला में भाव-दर्शन का एक ही मार्ग है और वह यह है, कि उसके लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण को प्रस्तुत किया जाए।” अर्थात् ऐसी वस्तु संघटना, स्थितियाँ व घटनाएँ प्रस्तुत की जाएँ तो भावोद्रेक हो सकता है। कलाकार अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं को मूर्त रूप देने के लिए वस्तु मूलक चिह्नों का प्रयोग करता है, जिससे अमूर्त भावनाएँ मूर्त रूप में प्रकट होती हैं। इस प्रकार सूक्ष्म की अपेक्षा स्थूल का अधिक महत्त्व यहाँ स्वीकार किया गया है, जो स्वच्छन्दतावादी चेतना के बिल्कुल विपरीत पड़ता है। कवि भी मानो केन्द्रच्युत हो गया था और केवल मात्र कल्पना के पंखों पर उड़कर सौन्दर्य के अतीन्द्रिय देश तक पहुँचना अब उसके लिए असम्भव बात थी।"
डॉ. हरिचरण शर्मा ने अपनी कृति 'आलोचना तथा सिद्धान्त' में इलियट के वस्तुनिष्ठ समीकरणों के सिद्धान्त को स्पष्ट करके समझाया है। उनके मूल शब्द इस प्रकार हैं-" कलाकार अपनी अनुभूति का या तो विचारों को पाठकों तक प्रत्यक्षतः पहुँचाने में सक्षम नहीं होता। उन्हें प्रेषित करने के लिए वह प्रतिरूप या वस्तु का माध्यम होता है। कलाकार जो कुछ भी कहना चाहता है, वह वस्तुओं की किसी संघटना, किसी स्थिति, किसी घटना श्रृंखला के सहारे ही पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है।" यह कथन सही है कि कलाकार अपनी संवेदनाओं को प्रेषणाय बनाने के लिए उपयुक्त वस्तु का विधान करता है या प्रतिरूप ढूँढ़ता है। ये ही वस्तु-विधान पाठकों की संवेदना को उभारते हैं और परिपक्वावस्था को ले जाकर आनन्द या रस की सृष्टि करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कला या काव्य आवेग मात्र अथवा प्रकृत-संवेदना मात्र नहीं है। जब कलाकार अनुभूति को काव्य का रूप देना चाहता है तो "वह चित्तभूमि के बाहर जाकर संज्ञयात्मक घटनाओं, प्रतीकों, प्रतिमानों अथवा परिस्थितियों की खोज करता है और वह अनुभूतिजन्य आवेगों को इन्हीं के माध्यम से वाणी देता है।” इस प्रकार प्रत्येक आवेग को रूपायित करने के लिए किसी समानधर्मी बाह्य विधान की आवश्यकता होती है। यह बाह्य विधान या बाह्य वस्तुओं की संघटना ही भारतीय काव्यशास्त्र का विभाव-विधान है । यह प्रतिरूप-संवेदना और रस-निष्पत्ति के बीच का सेतु है। हाँ, इलियट ने यह नहीं बताया कि किस प्रक्रिया के सहारे संवेदना-प्रेषणीय बनकर रस-सिद्धि में सहायक होती है।
डॉ. रामरतन भटनागर ने इलियट के 'Objective corrclative' और 'एजरा पाउण्ड' के कथनों के आधार पर यह निष्कर्ष दिया है कि- “वह काव्य को संवेदना का प्रकाशन मात्र न मानकर उसे साक्षात्कार की प्रतीकबद्ध अभिव्यंजना मानते हैं। प्रतीकों के रूप में कवि की अनुभूति ही वस्तुगत रूप धारण कर लेती है और सहृदय पाठक प्रतीकों के सहारे ही कवि की अनुभूति तक पहुँच जाते हैं ? इस "प्रतीकवाद” को ही इलियट ने “प्रतिरूपवाद” नाम दिया है, क्योंकि वह प्रतीक पर ही रुकना नहीं चाहता। प्रतीक ही नहीं, प्रतिमान-सन्दर्भ, शब्द-प्रयोग तथा नाद-बोध तक कवित्व के साक्षात्कार को मूर्तिमान् करने में सहायक होते हैं। इस भूमि में इलियट का प्रतिरूपवाद रसवाद से भिन्न और अधिक विस्तृत बन जाता है।”
संवेदनशीलता का असाहचर्य की मीमांसा
आरम्भ में इलियट कविता के स्वतन्त्र अस्तित्व और उसकी वस्तुनिष्ठता के प्रबल आग्रही थे और वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति अथवा आत्मनिष्ठ कविता के विरुद्ध आरम्भ में साहित्य के नैतिक मूल्यों के निरूपण की ओर उनका ध्यान बिल्कुल नहीं था, किन्तु धीरे-धीरे इस ओर भी उनका ध्यान गया। यद्यपि वे साहित्यिक कृति में साहित्यिक मूल्य को अनिवार्य कहते थे। जब यह निश्चित हो जाए कि अमुक कृति साहित्यिक है, तो यह निश्चित करना भी आवश्क हो जाता है कि उसका नैतिक मूल्य क्या है ? इसी नैतिक कसौटी पर साहित्य का महत्त्व निर्धारित होगा, क्योंकि भले ही कवि जान-बूझकर पाठक को प्रभावित न करना चाहे, पर उसकी कृति पाठकों पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकती है। इलियट उन लोगों को गलत मानता है, जो साहित्य को केवल साहित्य मानकर पढ़ते हैं और आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं। वे स्वयं अनुभव करते थे कि डी. एच. लॉरेन्स के साहित्य का उन पर विपरीत प्रभाव पड़ा था, अतः वे साहित्य के नैतिक मूल्यों की ओर से उदासीन नहीं हुए थे। इससे स्पष्ट है, कि उद्देश्य की दृष्टियों से इलियट — आनन्द और नीति—इन दोनों बातों के भारतीय आचार्यों के समान ही समर्थक रहे हैं।
धर्म व साहित्य के विषय में इलियट ने कहा है, कि यह सम्बन्ध कितने ही प्रकार का हो सकता है। धार्मिक साहित्य में वे धार्मिक ग्रन्थों की राशि को मानते हैं। इसमें काव्यत्व हो सकता है और होता भी है, पर उसे काव्यत्व के लिए नहीं पढ़ा जाता। दूसरा भक्तिमूलक साहित्य हो सकता है, पर इलियट इसे भी अधिक महत्त्व नहीं देते, क्योंकि इसमें जीवन के अधिकांश रूपों को छोड़ दिया जाता है। तृतीय वर्ग में व कृतियाँ आयेंगी जो धर्म को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं। उनकी दृष्टि में यह काव्य प्रचार-काव्य होगा; अतः वह उच्चकोटि का साहित्य हो सकता है, पर यदि ऐसी “धार्मिक प्रबुद्धता” बिना प्रयास के किसी कृति में व्याप्त हो, तो वह उच्चकोटि का काव्य होगा। इसमें धर्म व साहित्य का अवश्य सम्बन्ध होगा। अतः यह आवश्यक नहीं कि अपनी कृति में नीति अथवा धर्म का उपदेश दे, वैसा करना तो व्यावहारिक रूप में भी असाहित्यिक ही होगा। आवश्यक यह है कि उसकी धार्मिकता प्रबुद्धता उसकी कृति में स्वयं स्फुरित हो । जो साहित्य हमें जीने की कला सिखाता है, वह महान् होता है, पर यह ज्ञान सजग प्रयत्न द्वारा न होकर अप्रत्यक्ष रीति से दिया जान चाहिए और आनन्द उसका लक्ष्य होना चाहिए।
इलियट की अवधारणाओं का मूल्यांकन
इलियट का काव्यचिन्तन काव्य अथवा साहित्य को समाज से सम्बन्धित करता है। वे परिपक्व सभ्यता में ही साहित्य-सृजन का महत्त्व स्वीकार करते हैं, उन्होंने लिखा है-“साहित्य की प्रौढ़ता तत्कालीन समाज का प्रतिबिम्ब है, जिसमें साहित्य का सृजन हुआ है।” साहित्य व समाज के बीच जो दूरी तत्कालीन स्थिति में बढ़ गई थी, उसके कारण अनेक विरोधाभास उस समय विद्यमान थे । इलियट का वैचारिक चिन्तन उन्हीं विरोधाभावों के माध्यम से आगे बढ़ता है। इस वैचारिक- चिन्तन की पृष्ठभूमि में जहाँ एक ओर आधुनिकता है, वहीं दूसरी ओर परम्परा। एक ओर काव्य की स्वच्छन्द धारा है, तो दूसरी ओर अभिजात धारा । यही कारण है कि जहाँ एक ओर वह “Whatever poet starts from is his own emotion” कहता है, वही दूसरी ओर “The progress of an artist is a self continual sacrifice, continual extinetion of personality.” भी कहता है।
विरोधी विचारधाराओं में भी इलियट अपने वर्तमान को अतीत से जोड़ने में सफल हो सके। उन्होंने विश्व को काव्य के उद्गम की एक सार्वभौमिक व्याख्या प्रदान की है जो अपनी सीमा में अरस्तु या लौंजाइनस से किसी भी भाँति कम नहीं मानी जा सकती। इलियट ने आलोचना में साहित्यिक पक्ष के साथ-साथ सामाजिक पक्ष की आवश्यकता प्रतिपादित कर नैतिक मूल्यों को साहित्यक मानदण्डों के समान स्थापित महत्त्व के विषय के रूप में स्थापित किया। साहित्यकार एवं आलोचक में केवल कोटि का ही अन्तर होता है। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए वह लिखता है कि- “आलोचना उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी कि हवा, क्योंकि किसी भी ग्रन्थ को पढ़ते हुए मन साथ-साथ उससे प्रभावित होता रहता है, साथ ही ज्ञात या अज्ञात रूप से उसका मूल्यांकन भी करता रहता है। प्रत्येक साहित्यकार प्रच्छन्न रूप में आलोचक भी होता है, क्योंकि उसके सामने रचना करते हुए कई विकल्प आते हैं, पग-पग पर विकल्प आते रहते हैं और उन विकल्पों का परीक्षण करते हुए वह किसी एक का चयन करता है, जो श्रेष्ठ होता है। उसमें श्रेष्ठ को पहचानने की क्षमता होती है। यही आलोचना की अनिवार्य प्रक्रिया है। "
इलियट के काव्य सिद्धांत की आलोचना
इलियट के काव्य सिद्धांत की कुछ आलोचकों ने आलोचना भी की है। कुछ का मानना है कि उनका सिद्धांत कविता को अत्यधिक बौद्धिक और भावनाहीन बना देता है। दूसरों का मानना है कि उनका परंपरा पर जोर कविता को नवीनता और प्रयोग से विमुख करता है।
टी.एस. इलियट का काव्य सिद्धांत पाश्चात्य काव्यशास्त्र में एक महत्वपूर्ण योगदान है। उनके विचारों ने 20वीं सदी के कविता को गहराई से प्रभावित किया और आज भी साहित्यिक आलोचना और रचना में प्रासंगिक बने हुए हैं।
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