ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है जिसे स्थानीय स्तर पर लघु उद्योग स्थापित कर या सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर भी दूर किया जा सकता है
ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की चुनौती
मंगलवार को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2024-25 का बजट प्रस्तुत किया, जिसमें सभी सेक्टरों के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर भी खास फोकस किया गया है. मौजूदा सरकार की तीसरी पारी का यह पहला पूर्णकालिक बजट है. इसमें मनरेगा समेत रोजगार के कई क्षेत्रों में बजट आवंटन को बढ़ाया गया है. ग्रामीण विकास विभाग का बजट गत वर्ष के संशोधित अनुमान 1.71 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1.77 करोड़ रुपये किया गया है. वहीं महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) का बजट वर्ष 2023-24 के 60 हजार करोड़ की तुलना में 2024-25 में बढ़ा कर 86 हजार करोड़ रुपए किया गया है. हालांकि साल 2022-23 में मनरेगा का बजट 90.8 हजार करोड़ रुपये था जिसे घटाकर 2023-24 में 60 हजार करोड़ रुपये कर दिया था. वहीं रोजगार के क्षेत्र में भी इस बार के बजट में विशेष फोकस किया गया है. इसके लिए स्किल डेवलपमेंट से लेकर एजुकेशन लोन, अप्रेंटिसशिप के लिए इंसेंटिव, ईपीएफ में अंशदान के साथ पहली नौकरी पाने वालों के लिए सैलरी में योगदान और न्यू पेंशन सिस्टम के लिए योगदान में बढ़ोतरी जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं.
दरअसल हमारे देश में रोजगार एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है. कई शहरी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर कम हुए हैं. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों की क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. आज भी देश के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर रोजगार की काफी कमी है. यही कारण है कि इन क्षेत्रों से लोगों की एक बड़ी संख्या दिल्ली, नोएडा, लुधियाना, अमृतसर, मुंबई, सूरत और कोलकाता जैसे बड़े महानगरों और औद्योगिक इलाकों में रोज़गार के लिए पलायन करती है. हालांकि ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के रूप में मनरेगा एक महत्वपूर्ण साधन है. लेकिन कई ऐसे परिवार हैं जिन्हें इसके तहत भी काम नहीं मिल पाता है. राजस्थान के मनोहरपुरा गांव की अनीता देवी समेत कई ऐसे परिवार हैं जिन्हें मनरेगा के तहत काम नहीं मिलने के कारण प्रतिदिन काम ढूंढने शहर जाना पड़ता है. झीलों की नगरी के नाम से भी प्रसिद्ध राजस्थान के उदयपुर शहर से मात्र 9 किमी की दूरी पर आबाद यह गांव बड़गांव पंचायत के अंतर्गत स्थित है. अनुसूचित जाति बहुल इस गांव की आबादी करीब एक हज़ार के आसपास है. जबकि साक्षरता की दर करीब पचास प्रतिशत तक है. शहर से करीब होने के बावजूद इस गांव की अधिकतर आबादी न केवल विभिन्न सरकारी योजनाओं से वंचित है बल्कि रोजगार से भी वंचित है.
45 वर्षीय अनीता देवी बताती हैं कि उनके दो बच्चे हैं. 19 वर्षीय बड़ा बेटा आठवीं के बाद मन नहीं लगने के कारण पढ़ाई छोड़ चुका है और अब माता पिता के साथ मजदूरी करने जाता है जबकि छोटा दसवीं का छात्र है. वह बताती हैं कि गांव में रोजगार का कोई साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण वह अपने पति और बेटे के साथ प्रतिदिन उदयपुर शहर मजदूरी करने जाती हैं. जहां कभी उन्हें मजदूरी मिलती है और कभी पूरे दिन बैठकर खाली हाथ वापस आना पड़ता है. वह बताती हैं कि मजदूरी में भी इतने पैसे नहीं मिलते हैं जिससे कि परिवार का गुजर बसर हो सके. ऐसे में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अधिक दयनीय होती जा रही है. वह कहती हैं कि गांव में रोजगार के कोई साधन नहीं हैं. यहां तक कि मनरेगा के अंतर्गत भी उन्हें काम नहीं मिलता है. हालांकि उनके अनुसार उन्होंने पंचायत में जाकर मनरेगा के तहत अपना, पति का और बेटे का भी नाम दर्ज करा रखा है, लेकिन आज तक उन्हें इससे संबंधित कभी कोई काम नहीं मिल सका. अनीता के पति भंवरलाल कहते हैं कि वह साक्षर नहीं हैं, इसलिए न तो उन्हें मनरेगा के तहत काम प्राप्त करने के अधिकार की जानकारी है और न ही वह अनुसूचित जाति के उत्थान के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही किसी भी योजनाओं की जानकारी है.
एक अन्य महिला नानू बाई कहती हैं कि मनोहरपुरा गांव में कई बुनियादी आवश्यकताओं की कमी है. यहां सबसे अधिक लोगों को रोजगार की जरूरत है. जिसकी कमी के कारण ही पुरुष और युवा गांव से पलायन करने पर मजबूर हैं. वह कहती हैं कि जो लोग इन योजनाओं से जुड़ी जानकारियां रखते हैं, वह सभी इसका लाभ उठा लेते हैं, लेकिन हमारे जैसे लोग इसे प्राप्त करने की प्रक्रिया नहीं जानते हैं इसलिए हम आज तक इससे वंचित हैं. इतना ही नहीं, गांव में कुछ लोगों का प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर भी बन गया है, लेकिन हमें आज तक इसे प्राप्त करने की प्रक्रिया नहीं मालूम है. इसका लाभ कैसे प्राप्त की जाए और कैसे आवेदन करनी चाहिए? वहीं 32 वर्षीय सीता देवी कहती हैं कि उनके पति और उन्होंने कई वर्ष पहले मनरेगा के तहत जॉब कार्ड बनवाया था, ताकि उन्हें गांव में ही रहकर रोजगार मिल जाए, लेकिन आज तक उन्हें कोई काम नहीं मिला है. इस संबंध में वह कई बार पंचायत कार्यालय भी गई लेकिन कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. हालांकि सरकार की ओर से ऐसी व्यवस्था की गई है कि इसके तहत कोई भी ग्रामीण पंचायत से फॉर्म 6 भरकर काम मांग सकता है. लेकिन इन ग्रामीणों को ऐसी किसी प्रकार की जानकारी तक नहीं है. इसका सबसे अधिक नुकसान महिलाओं को हो रहा है. मनरेगा से काम नहीं मिलने के कारण पुरुष काम की तलाश में शहर या अन्य राज्यों की तरफ पलायन कर जाते हैं, लेकिन अधिकतर महिलाओं को घर की देखभाल के कारण गांव में ही रुकना पड़ता है. ऐसे में वह घर की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए शहर के बड़े घरों में सेविका के रूप में झाड़ू पोंछा लगाने का काम करने को मजबूर हैं.
इस संबंध में बड़गांव पंचायत जिसके अंतर्गत मनोहरपुरा गांव आता है, के सरपंच संजय शर्मा कहते हैं कि "इस पंचायत के अंतर्गत चार गांव आते हैं. जिसे मिलाकर एक बड़ी आबादी निवास करती है. सभी गांवों में मनरेगा के तहत लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है. इसके लिए उनके फार्म भरवाए जाते हैं. लेकिन कई बार गलत फॉर्म भर दिए जाने के कारण वह रद्द हो जाते हैं. हालांकि पंचायत की ओर से उनके फॉर्म भरने में मदद किये जाते हैं. संजय कहते हैं कि गांव में मनरेगा के अतिरिक्त रोजगार का कोई अन्य विकल्प नहीं है, इसलिए जब लोगों को मनरेगा के अंतर्गत काम नहीं मिलता है तो वह या तो मजदूरी करने शहर जाते हैं अथवा गांव से पलायन कर महानगरों या औद्योगिक शहरों की ओर चले जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (आईएचडी) की नई रिपोर्ट "इंडिया एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024" के अनुसार भारत में 2021 के दौरान सभी प्रवासियों में से करीब 10.7 फीसदी ने रोजगार कारणों से पलायन किया था. इनके पलायन के लिए बेहतर रोजगार की तलाश और अपने क्षेत्र में अवसरों की कमी जैसे कारक प्रमुख रहे थे.
यह स्थिति बताती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, जिसे स्थानीय स्तर पर लघु उद्योग स्थापित कर या सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर भी दूर किया जा सकता है. वर्तमान में, देश में लगभग 6.6 मिलियन सेल्फ हेल्प ग्रुप चल रहे हैं जिनमें करीब 70 मिलियन लोग काम कर रहे हैं. वहीं राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत 2025 तक लगभग 80 मिलियन परिवारों को इससे जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है. देश के सभी राज्य सरकारों द्वारा भी इसे प्रोत्साहित किया जा रहा है. इसी माह के आरंभ में राजस्थान सरकार ने भी अपने बजट में अगले पांच सालों में दो लाख और एक साल में करीब चालीस हजार नए सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाने का लक्ष्य रखा है. सरकार का यह लक्ष्य यकीनन ग्रामीण स्तर पर न केवल रोजगार के नए अवसर पैदा करेगा बल्कि इससे गांवों से होने वाले पलायन को रोकने में भी मदद मिलेगी. (चरखा फीचर)
- कमल नवाल
उदयपुर, राजस्थान
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