हिन्दी को बचाना है तो शिक्षकों को ठीक से पढ़ना पढ़ाना होगा हिन्दी हमारी गौ पट्टी में बड़ी ही दीन-हीन स्थिति में है। उसकी चमक-दमक ग़ायब है। कोई छात्र
हिन्दी को बचाना है तो शिक्षकों को ठीक से पढ़ना पढ़ाना होगा
हिन्दी हमारी गौ पट्टी में बड़ी ही दीन-हीन स्थिति में है। उसकी चमक-दमक ग़ायब है। कोई छात्र हिन्दी पढ़ना नहीं चाहता। स्कूल हिन्दी पढ़ाना नहीं चाहते। माता-पिता और अभिभावक अपने बच्चों को हिन्दी नहीं, अंग्रेजी पढ़ाना चाहते हैं। अनपढ़ आदमी भी यदि किसी वस्तु के हिन्दी और अंग्रेज़ी, दोनों नाम जानता है तो वह अंग्रेज़ी नाम ही बोलता है, फिर चाहे उसका उच्चारण सदोष ही क्यों न हो।
इस दुर्गति का सबसे बड़ा दोषी कौन है? मेरी दृष्टि में इसका सबसे बड़ा अपराधी हिन्दी पढ़ाने वाले शिक्षक हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारे आधे से अधिक हिन्दी शिक्षकों को ठीक से शिक्षक बोलना भी नहीं आता होगा। वे या तो 'सिच्छक' बोलते हैं या 'सिक्सक'। भाषा का प्राथमिक रूप है वाक्। भाषा सुनकर सीखी जाती है। इसीलिए अनपढ़ आदमी को भी सुनकर भाषा समझना और बोलना आता है। लेकिन तब क्या होगा, जब भाषा सिखाने वाला शिक्षक ही अमानक, अशुद्ध भाषा बोले? हिन्दी की चमक-दमक उतारकर भदेस, विकर्षक रूप में अपने शिष्य के समक्ष प्रस्तुत करने वाले शिक्षक ने उसे प्रथम सोपान पर ही अग्राह्य बना दिया।
हिन्दी की लिपि नागरी में अक्षरों (अच्छरों नहीं) की संख्या अधिक है। अंग्रेज़ी की लिपि रोमन में केवल 26 लेटर हैं। नागरी में 52 से अधिक। इसलिए शुरू-शुरू में हर छात्र को अंग्रेज़ी सरल लगती है। 26 लेटर सीख लो, अंग्रेज़ी आ गयी! किन्तु ऐसा है नहीं। अंग्रेज़ी में हर शब्द की वर्तनी रटनी पड़ती है। हिन्दी और इतर भारतीय भाषाओं में बारहखड़ी सीखना महत्वपूर्ण है। वह सीख लेने पर आपको जो अभिप्रेत है, वह सीधे लिखा जा सकता है। रटने की आवश्यकता नहीं, केवल बोलना आना चाहिए। हिन्दी सुनना, समझना, बोलना हमें आता है। उसे पढ़ना और लिखना ही सीखना होता है। वह भी हमारे भाषा- शिक्षक नहीं सिखा पाते! कितनी भारी विडम्बना है।
हिन्दी पढ़ना और लिखना सिखाने के लिए धैर्य और अनवरत प्रयास की आवश्यकता होती है। कितने शिक्षक यह कर सकते हैं? आजकल धैर्य ही दुर्लभ हो गया है। सबको फटाफट परिणाम चाहिए।
बच्चों को हिन्दी पढ़ना-लिखना सिखाने में कम से कम दो वर्ष का समय लगता है। उनके सामने भाषा का जीता- जागता रोल मॉडल बनना पड़ता है। सारा शिक्षण बोलने, पढ़ने, लिखने और बोलकर पढ़ने पर आधारित रहता है। शिक्षक बोले, पाठ पढ़े और पढ़वाए, उसे लिखवाए और छात्र के लिखे हुए को उसी से पढ़वाए। इतनी मेहनत करें तो छात्र हिन्दी सीख पाएं। शिक्षकगण हर छात्र के साथ इतनी मेहनत करेंगे! इसमें संदेह है।
इससे भी बड़ी समस्या है स्वरों को छोटा और बड़ा कहकर पढ़ाने की। हमारे शिक्षक पढ़ा रहे हैं छोटा अ, बड़ा आ, छोटी इ, बड़ी ई। दोनों वर्णों के लिए उनका किया हुआ उच्चारण तो एक ही रहता है। इसमें छोटा या बड़ा क्या है? अबोध छात्रगण इसे कैसे समझेंगे? हमारी पीढ़ी ने हिन्दी अच्छे से सीख ली, क्योंकि हम अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ही पढ़ते थे। हमारे शिक्षक छोटा आ बड़ा आ नहीं बोलते थे।
शिक्षक और छात्र के मध्य निर्माता और निर्मिति का संबंध होता है। समर्पित निर्माता सदैव यही चाहता है कि उसकी निर्मिति एकदम आदर्श हो। कबीर ने इसीलिए कुम्हार और कुम्भ के रूपक से इस सम्बन्ध को रेखांकित किया है। 'गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है गहि-गहि काढ़ै खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाबा चोट।' गुरु रूपी कुम्हार को तब तक तसल्ली नहीं होगी, जब तक कि उसका शिष्य रूपी कुम्भ बिलकुल सही रूपाकार न ग्रहण कर ले। क्या यह आकांक्षा हमारे शिक्षकों में रहती है?
यदि उक्त आकांक्षा हिन्दी शिक्षकों में हो तो वे क्या करेंगे? वे प्रत्येक छात्र से पाठ पढ़ाएंगे। हर छात्र से लिखवाएंगे। हर छात्र की लिखी हुई सामग्री का एक- एक अक्षर ध्यान से पढ़कर उसे आदर्श लेखन के लिए प्रेरित करेंगे। यदि छात्र ने वर्तनी या वाक्य-रचना में कोई त्रुटि की हो तो उसे दूर करवा कर बार-बार अभ्यास कराएंगे, ताकि उस त्रुटि की पुनरावृत्ति न हो। इतना परिश्रम करने के बाद भी हिन्दी का शिक्षक कृतकार्य नहीं हो सकता। उसे अपने छात्रों के मन में उस विशाल साहित्य को पढ़ने की ललक भी जगानी होगी जो भाषा के कलेवर में विद्यमान है। उस साहित्य के माध्यम से हमारी संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, अध्यात्म, धर्म आदि की विरासत हम तक पहुँची है। हिन्दी का शिक्षक यदि इस अमूल्य निधि की झलक अपने छात्रों को दिखला दे और उस दिशा में बढ़ने यानी पुस्तक पढ़ने की भूख उनके मन में जगा दे तो पढ़ने- लिखने, मुद्रण- प्रकाशन का सतत क्रम चलता रहे। हम किसी को वह वस्तु या गुण नहीं दे सकते, जो हमारे पास न हो। अतः सर्वप्रथम हमारे शिक्षकों को उक्त सभी गुण अर्जित करने होंगे। इसके लिए सतत परिश्रम करना जरूरी है।
चूंकि आज के शिक्षक इतना परिश्रम नहीं कर रहे हैं, इसलिए हिन्दी के प्रति छात्रों में कोई रुचि और अनुराग नहीं जाग रहा। छात्र हिन्दी को ठीक से सीख नहीं पा रहे। हिन्दी का साहित्य पढ़ने में भी किसी की रुचि नही। जो काम हमसे नहीं हो पाता, उसे करने का मन भी नहीं करता। यह स्थापित सत्य है। हमें ठीक से आता नहीं, तो हम करते नहीं। हम करते नहीं, इसलिए हमें ठीक से आता भी नहीं। हिन्दी पढ़ाने और सीखने के मामले में यही दुष्चक्र चलता रहता है। इसका एक दूरगामी दुष्परिणाम है हिन्दी पुस्तकों के प्रति अरुचि। हिन्दी के पाठक निरन्तर कम होते जा रहे हैं। लेखक ही आपस में एक-दूसरे का लिखा पढ़- समझ लेते हैं। नये पाठक बहुत कम बन रहे हैं। इसके फलस्वरूप हिन्दी का प्रकाशन-जगत और पुस्तक उद्योग, पुस्तकालय आदि विलुप्त होने के कगार पर हैं।
कुल मिलाकर हिन्दी को जिलाए रखने, आगे बढ़ाने और लोकप्रिय बनाने का जिम्मा हिन्दी शिक्षकों के सिर है। वे एकजुट होकर, पूरे मनोयोग से प्रयास नहीं करेंगे तो दुनिया की कोई ताकत हिन्दी के ह्रास को रोक नहीं सकती।
- डॉ. रामवृक्ष सिंह, लखनऊ
COMMENTS