हिन्दी नवगीत का उद्भव और विकास हिन्दी नवगीत गीत काव्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। नवगीतकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन, प्रेम, प्रकृति और समाज क
हिन्दी नवगीत का उद्भव और विकास
हिन्दी नवगीत गीत काव्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। नवगीतकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन, प्रेम, प्रकृति और समाज के विभिन्न पहलुओं को बखूबी उकेरा है। नवगीतों ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है ।
गीत एक ऐसी विद्या है जो सामाजिक चेतना के साथ अपना रूप बदलती रही है और चिरन्तन गतिशील भी रही है। ऐसा उस कारण हुआ है कि युगीन सन्दर्भों में मानव संवेगों को नया-नया रूप प्राप्त हुआ है और व्यक्ति का मन असंवेगों को प्रकट करने से छटपटाता रहा है। यह भी सत्य है कि आज के व्यक्ति की संवेदनाएँ उतनी स्पष्ट नहीं है जितनी आदिकाल मध्यकाल में थी; अतः आज की संवेदना सपाट बयानी की इच्छा नहीं रखती उसकी अभिव्यक्ति प्रतीकों के माध्यम से हो पाती है और हो रही है जहाँ मानव-मन किसी सौन्दर्य, राग, सत्य के किसी कवि से गहरे छू जाता है, वहीं गीत की भूमि होती है । यह कथ्य अपेक्षाकृत आत्मप्रधान होता है; यह विश्लेषणात्मक बुद्धि बोझिल लम्बा और जटिल नहीं होता। उसी आधार पर हिन्दी का गीत साहित्य विकसित हुआ है ।
पहले समसामयिक नए गीत की बात उठ खड़ी हुई, जो नई कविता में से उभर कर आई । जिसमें अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, शम्भुनाथ सिंह, जगदीश गुप्त, ठाकुर प्रसाद सिंह, रविन्द्र भ्रमर, भवानीप्रसाद मिश्र आदि (अर्थात् नई कविता से) कंवियों को गिना गया। इन गीतों की अपनी कुछ विशिष्टताएँ भी गिनाई गई हैं। पहली विशेषता तो यह रही कि जहाँ नई कविता में बौद्धिकता दुरुहता शुष्कता एवं अस्पष्टता के दर्शन होते हैं, वहीं गीति-शैली में रचित गीतों में इनका सर्वथा अभाव है । अत: कहना चाहिए कि ‘नई कविता' की भर्त्सना प्रायः उनके अस्पष्ट, दुरुह एवं शुष्क मुक्तकों के कारण हुई तो उसकी प्रशंसा सरल, सरस एवं प्रवाहपूर्ण गीतों के आधार पर प्राप्त हुई (डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ) ।
नवगीत का नामकरण
जब नई कविता भली प्रकार प्रतिष्ठित हो गई और उसके पुरोधाओं को लगा कि गीति-शैली में रची रचनाएँ अधिक लोकप्रिय रही हैं और कुछ गीतकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व को 'नया गीत' नाम देकर स्थापित करते जा रहे हैं और 'नई कविता से प्रतिद्वन्द्विता भी करते जा रहे हैं तो नई कविता के पुरोधाओं ने उनकी गीति-शैली को रूढ़िग्रस्त और अकाव्यात्मक घोषित करने का प्रयास किया जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
यद्यपि 1955-56 से पूर्व नया गीत, सामने आ चुका था, पर उस काल में आकर उसको एक स्वतन्त्र रूप देकर 'नवगीत' नाम दे दिया गया। साथ इन गीतकारों ने उसको प्रतिष्ठित करने के लिए उन सभी साधनों एवं माध्यमों का उपयोग किया, जिनका उपयोग नई कविता में हो चुका था । अतः यह माना जा सकता है कि यदि नई कविता के उन्नायकों द्वारा 'नए गीत' की तीखी आलोचना न की होती तो नवगीत आन्दोलन एक संगठित रूप न ले पाया होता। डॉ. शम्भुनाथ सिंह की मान्यता है नए कविता के कवियों ने गीत रचना को पिछड़ापन की निशानी मानकर उससे अपने को पूर्णतः विच्छिन्न कर लिया ।
नवगीत न कभी आन्दोलन था न आज है। वह तो नई कविता का जुड़वाँ भाई है। जिसे नई कविता ने वयस्क होकर साजिश द्वारा अपने शिविर से बहिष्कृत कर दिया इस तरह नवगीत का रास्ता नई कविता के रास्ते से अलग हो गया।
यह भी सत्य है कि ‘नई कविता' के समानान्तर 'नया गीत' 'आज का गीत' 'आधुनिक गीत' की चर्चा छटे दशक के आरम्भ से ही यत्र-तत्र होने लगी थी, किन्तु नवगीत का नामकरण 1957 में हुआ। जब इलाहाबाद के साहित्य-सम्मेलन की काव्य-गोष्ठी में 'नई कविताः नया गीतः मूल्यांकन की समस्याएँ शीर्षक निबन्ध पढ़ा। जहाँ उन्होंने घोषित किया कि हिन्दी में नए गीत का जन्म हुआ है, यह नया गीत फार्म और कण्टेन्ट दोनों ही पक्षों में समृद्ध हुआ है। यह विचारणीय है कि आज विज्ञप्त साहित्यिक शैली की चकाचौंध में कहीं हम गीत की दिशा में सम्पन्न हो रहे प्रयोगों तथा जागरूक विचार शक्ति को भुलाए नहीं दे रहे हैं। (नवगीत : इतिहास और उपलब्धि - डॉ. सुरेश गौतम)
उसके बाद राजेन्द्र प्रताप सिंह ने फरवरी 1958 में 'गीतांगिनी' नाम से सत्तर कवियों की रचनाओं का संकलन किया, जिसे नवगीत संकलन की संज्ञा दी। साथ ही उसकी भूमिका में 'नवगीत' के विभिन्न पक्षों पर विचार करते हुए उन्होंने संकेत किया 'हिन्दी कविता में प्रयोगवाद के उत्थान के साथ ही साहित्य की पूर्वागत मान्यताओं पर चोट पड़ने लगी और मौलिकता, नवीनता, आधुनिकता, प्रयोग, जटिल संश्लेषण, अनुबिम्बित, छन्द-विरोध, मनोवैज्ञानिकता और राहों का अन्वेषण आन्दोलन की तीव्रता से चल पड़ा। प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नई कविता की प्रगति का पूरक बनकर नवगीत का निकाय जन्म ले रहा है।
इस प्रकार ‘नवगीत मूलतः आधुनिकता की चुनौती का सामना करने की प्रेरणा से नई कविता का पूरक बन कर ही साहित्य-क्षेत्र में अवतरित हुआ। यह बात शायद इसलिए कही गई कि, उसको कोई विरोधी आन्दोलन न माना जा सके, पर जब राजेन्द्र प्रसाद सिंह उसके तत्वों की चर्चा करते हैं तो लगता है कि यह नई कविता से अलग की चीज है। उनके अनुसार इसके तत्व हैं— (1) जीवन-दर्शन, (2) आत्मनिष्ठा, (3) व्यक्तित्व बोध, (4) प्रीति तत्व, (5) परिसंचय ।
राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने भूमिका (गीतांगिनी) में यह भी संकेत दिया है-वस्तुस्थिति यह है कि अधिक गीतकार रचना की दिशा में विषयगत और शैलीगत नवीनता के साथ उचित प्रगति नहीं कर पा रहे हैं और अपनी पूर्वागत सीमाओं से उन त्रुटियों से इस तरह (लापरवाह और अनुत्तरदाई हो गए) आग्रहबद्ध हो गए हैं। कि प्रगति के क्षेत्र का पिछला गत्यावरोध गीत के क्षेत्र में आ गया है।
राजेन्द्र प्रसाद सिंह की भूमिका, 'नवगीत' की स्थिति को स्पष्ट करने में पर्याप्त सहायक है। उन्होंने नवगीत को यह भी प्रेरणा दी है कि उसे परम्परागत सीमाओं से मुक्ति दिलाकर उसका स्वतन्त्र आदर्श रूप प्रस्तुत किया जाए। उन्होंने कहा है - ऐसे ध्यातव्य कवियों का अभाव नहीं है जो मानव-जीवन के ऊँचे और गहरे किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनकेता रमणीयता, मार्मिकता, विच्छिति और मांगलिकता को अपने विकास गीतों में सहज-संवार कर नई तकनीक से हार्दिक परिवेश की नई विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि समकालीन हिन्दी कविता की महत्वपूर्ण और महत्वहीन रचनाओं के विस्तृत आन्दोलन में गीत परम्परा 'नवगीत' के निकाय में परिणति पाने को सचेष्ट हैं। 'नवगीत' नयी अनुभूति की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग नवीन प्रविधियों का सन्तुलन होगा। (भूमिका गीतांगिनी)
इस प्रकार 'नवगीत' अपना एक पृथक् अस्तित्व लेकर सामने आया डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त के अनुसार वस्तुतः नवगीत की स्थापना का लक्ष्य परम्परागत गीत की भाव भूमि को व्यापार करने उसमें नई अनुभूतियों एवं नूतन संवेदनाओं का संचरण करके अपने परिवेश के साथ उसका हार्दिक सम्बन्ध स्थापित करने एवं उसकी अभिव्यंजना-शैली को आधुनिक बताने का ज्ञान ।
हिन्दी नवगीत का प्रचार
इसके बाद 'नवगीत' का नारा ही चल पड़ा और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से काव्य गोष्ठियाँ एवं साहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से प्रचार प्रारम्भ हो गया। 'नये गीत : नये स्वर' नामक लेखमाला का प्रकाशन 1962 में 'वासन्ती' पत्रिका में हुआ। साथ ही 1964-65-66 में लगातार तीन वर्षों तक वातायन ने गीत विशेषांकों का प्रकाशन किया। इसके साथ ही साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, उत्कर्ष, माध्यम, लहर व गीत जैसी पत्रिकाओं में भी 1964 से 1967 के मध्य नवगीत पर सामग्री प्रकाशित हुई, उसी क्रम में दिल्ली से प्रकाशित 'प्रज्ञा', कलकत्ता की 'साहित्यिकी' और बम्बई की 'रंगायन' जैसी संस्थाओं ने भी गोष्ठियों के माध्यम से नवगीत पर चर्चा कराई। उसी समय कवियों के अलग-अलग और सम्मिलित संकलन भी प्रकाशित हुए।
हिन्दी नवगीत का स्वरूप
वर्तमान गीतकाव्य चाहे वह किसी धारा के अन्तर्गत हो, आधार छायावादी गीतिकाव्य को ही माना जाता है। पर नवगीत थोड़ा-सा ही अलग हट सका है। यहाँ कुछ ऐसी विषमताओं का उल्लेख किया जा रहा है। छायावाद से वैयक्तिकता इतना प्रबल थी की वह अपने परिवेश से भी कट गया, पर नवगीत ठीक इसके विपरीत रहा। नवगीत की वैयक्तिकता अपने परिवेश से पूरी तरह जुड़ी रही है। डॉ. नगेन्द्र की मान्यता है—इन गीतों में घरेलू जीवन का परिवेश है प्रकृति के बहुत लटके अछूते बिम्ब हैं और आस-पास के जीवन का रंग है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास) फलत: नवगीत परिवेश से पूरी तरह जुड़ा रहा है। छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह भी माना जाता है पर नवगीत दोनों को समेट कर चलता है। उसी क्रम में अतिशय काल्पनिकता अलौकिकता और दर्शन के स्थान पर नवगीत में बौद्धिकता, यथार्थता एवं लौकिकता की प्रधानता है। शिल्प की दृष्टि से भी नवगीत अपना अलग अस्तित्व रखता है, उसमें जन-सामान्य भाषा, ग्रामीण तथा आंचलिक क्षेत्रों की शब्दावली का प्रयोग हुआ है।
प्रायः ऐसा भी माना जाता है कि आज का नवगीत 'प्रगतिवाद' के अधिक निकट है। नवगीत का सामाजिक यथार्थ के प्रति सजगता, संघर्ष की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन सामाजिक नव निर्माण में आस्था, सामाजिक परिवर्तन की हिमायत जैसी स्थितियाँ नवगीत को प्रगतिवाद के निकट ला खड़ा करती हैं। साथ ही प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति चित्रण के क्षेत्र में भी यह प्रगतिवादी सोच के समीप है, पर उसे प्रगतिवाद का परिष्कृत रूप नहीं माना जा सकता क्योंकि जहाँ तक नवगीत की कलात्मकता का प्रश्न है, वह प्रगतिवाद के कहीं अधिक परिष्कृत, विकसित प्रौढ़ एवं प्रभावशाली है। इतना तो अवश्य माना जा सकता है कि 'नवगीत' छायावादी एवं प्रगतिवादी काव्य की अनेक विशेषताओं से युक्त एक ऐसा काव्य है जिसमें दोनों की आधारभूत - चेतना जीवन-दृष्टि, भावभूमि एवं अभिव्यंजना-शैली की व्यापकता, सूक्ष्मता, विविधता, यथार्थता एवं लौकिकता का एक मात्र संयोग है। जिस प्रकार एक सुन्दर और एक बुद्धिमान पिता की सन्तान में कई बार दोनों के गुणों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है, वैसा ही कुछ नवगीत के सम्बन्ध में कहा जा सकता है । (डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास)
नवगीत के प्रमुख कवि और उनका काव्य
नवगीतकारों में कुछ कवि होते हैं। जिनकी शैली और भाव-भूमि पर छायावाद की छाप भी है। डॉ. शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र नीरज, रामावतार त्यागी आदि उसी श्रेणी में आते हैं। नवगीत हिंदी साहित्य में गीत काव्य की एक नवीन विधा है। इसका उदय 20वीं शताब्दी के मध्य में हुआ। नवगीतकारों ने सरल भाषा, भावपूर्ण अभिव्यक्ति, प्रकृति प्रेम, सामाजिक सरोकार, शब्दों का सटीक प्रयोग, बिंबात्मक भाषा, प्रेम और सौंदर्य का चित्रण जैसे विषयों को अपनी रचनाओं में उकेरा।
प्रमुख नवगीतकार और उनकी रचनाएँ:
- शंभुनाथ सिंह: 'नीलम', 'किरण के स्वर', 'धरती गीत', 'प्राण की पुकार'
- केदारनाथ सिंह: 'अंबर', 'आकाशदीप', 'कल्पना', 'प्रतिबिम्ब'
- गोपालदास नीरज: 'मिट्टी की खुशबू', 'बैठे हैं तालाब के किनारे', 'सुनो रे', 'मेरे सपनों की रानी'
- धर्मवीर भारती: 'गीतिका', 'सप्तपदी', 'कंकण की मंजिल', 'पथिक'
- रवीन्द्र भ्रमर: 'नवगीत', 'आँसू बनकर', 'धरती गीत', 'मेरी आवाज सुनो'
इस प्रकार नवगीत ने आम लोगों को साहित्य के करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरल भाषा, भावपूर्ण अभिव्यक्ति, आम विषयों, संगीत, सामाजिक सरोकारों और प्रचार के माध्यम से नवगीतों ने आम लोगों को साहित्य के प्रति रुचि पैदा करने और उन्हें साहित्यिक अनुभव प्रदान करने में सफलता हासिल की है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि नवगीत का प्रभाव सभी वर्गों पर समान रूप से नहीं पड़ा। शिक्षित और साहित्यिक रूप से जागरूक लोगों तक नवगीतों की पहुंच अपेक्षाकृत अधिक थी। ग्रामीण क्षेत्रों और कम शिक्षित लोगों तक नवगीतों की पहुंच अपेक्षाकृत कम थी।
आज भी, नवगीत हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह विधा विकसित हो रही है और नए-नए नवगीतकार अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को प्रेरित कर रहे हैं।
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