हिन्दी साहित्य में सूफी प्रेमाख्यान सूफी प्रेमाख्यान हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण धरोहर हैं। इन रचनाओं ने न केवल प्रेम और आध्यात्मिकता का संदेश दिय
हिन्दी साहित्य में सूफी प्रेमाख्यान
सूफी प्रेमाख्यान हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण धारा है जो प्रेम और आध्यात्मिकता के अद्भुत मिश्रण को दर्शाती है। यह 14वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक विकसित हुई और इसमें विभिन्न कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेम की दिव्य भावना को व्यक्त किया।
भक्तिकाल के सूफी फकीरों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं को चरितार्थ करने के उद्देश्य से जो प्रेमाख्यान मसनवी शैली में लिखे, उन्हें ही हम हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यानों के रूप में जानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यह परम्परा चार-पाँच सौ वर्ष तक चलती रही। और रीतिकाल तथा आधुनिक काल में भी इस शैली में की गयी रचनाओं के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं, पर इस काव्यधारा का मुख्य अस्तित्व भक्तिकाल में ही है। ऐसे ग्रन्थों में सर्वाधिक प्रसिद्धि मलिक मोहम्मद जायसी कृत 'पदमावत' को ही मिली। उसमें कदाचित् ही कोई मतभेद सामने आये। फिर भी हिन्दी के इन सूफी प्रेमाख्यानों की परम्परा बहुत लम्बी है। पदमावत न तो उस परम्परा की पहली रचना है और न अन्तिम ही।
आचार्य शुक्ल ने इसका परिचय देते हुए कवि 'कुतुबन' द्वारा रचित 'मृगावती' का नाम सबसे पहले लिया है, पर बाद में प्राप्त रचनाओं के आधार पर एक बहुमान्य धारणा यह बनी कि मुल्ला दाऊद कृत चंदायन (सन् 1379 ई०) इस परम्परा की पहली रचना है। कुछ दिन पश्चात् सन् 1370 ई० की एक रचना 'हंसावली' प्राप्त हुई जिसके प्रणेता सूफी कवि 'असाइत' हैं। अब रचनाकाल के आधार पर कुछ लोग इसे हिन्दी का पहला सूफी प्रेमाख्यान मानते हैं। 'चंदायन' का एक अल्प प्रचलित नाम 'चन्दावत' भी कहीं-कहीं मिलता है। इसका रचनाकाल फीरोज़ शाह तुगलक के राज्यकाल के आस-पास अनुमानित है। इसमें नूरक और चंदा की प्रेम कहानी है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ईश्वरदास की 'सत्यवती कथा' को पहला प्रेमाख्यान मानने पर जोर दिया है। निश्चित रूप से 'सत्यवती कथा', 'मृगावती' और 'चंदायन' से पुरानी रचना है, पर इसे भारतीय पद्धति के प्रेमाख्यानों की कड़ी मानेंगे। सूफी प्रेमाख्यानों में इसकी गणना नहीं की जा सकती। प्रेममार्गी शाखा का परिचय देते हुए आचार्य शुक्ल ने कुतुबन के बाद मंझन, मलिक मोहम्मद जायसी, उसमान, शेख नबी, कासिम शाह तथा नूर मोहम्मद का नामोल्लेख किया है। मंझन ने 'मधुमालती' नाम का प्रसिद्ध प्रेमाख्यान रचा था। जिसमें महारस की राजकुमारी मधुमालती तथा कनेसर के राजकुमार मनोहर की प्रेमगाथा मिलती है। मधुमालती की रचना 16वीं शती के मध्य हुई थी। इसे 'पदमावत' के पहले की रचना माना गया है और 'पदमावत' पर इसके गहरे प्रभाव की चर्चा आलोचकों ने अनेक प्रकार से की है। सम्भवतः 'पदमावत' के पहले यही प्रेमाख्यान सर्वाधिक प्रसिद्ध था। डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत ने इसके एक अन्य नाम 'मुग्धावती' का भी उल्लेख किया है। अवधी की दोहा - चौपाई शैली सूफी प्रेमाख्यानों की प्रचलित काव्य शैली थी, जिसका अच्छा प्रयोग है।
मलिक मोहम्मद जायसी की रचना 'पदमावत' इस परम्परा का सर्वश्रेष्ठ काव्य-ग्रन्थ है। इसकी रचना हिजरी संवत् 947 (सन् 1540 ई०) में हुई। उस समय सुल्तान शेरशाह सूरी दिल्ली का शासक था। इस प्रबन्धकाव्य में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पदमावती की प्रेमकहानी है। चूंकि प्रस्तुत पुस्तक इस काव्य की समीक्षा के लिए है, अतः परम्परा का परिचय देते हुए यहाँ इसके बारे में कुछ अधिक कहने का औचित्य नहीं है। यहाँ मात्र इतना ही कहना चाहेंगे कि इस रचना के भक्तिकाल की विशिष्ट काव्यधारा की पहचान को प्रचारित करने तथा लोकप्रियता दिलाने में असाधारण महत्व का कार्य किया है। सूफी कवियों की विचारधारा और काव्य शैली का सबसे प्रौढ़ और परिष्कृत रूप इसी रचना में मिलता है।
सूफी कवि 'उसमान' ने 'चित्रावली' नामक प्रेमाख्यान सन् 1613 ई० में रचा। अमर होने की अभिलाषा से उन्होंने इस आख्यान का प्रणयन किया। इसमें राजपुत्र सुजान कुमार तथा राजकुमारी चित्रावली की प्रेमकथा है। उसमान को अपनी काव्य प्रतिभा पर बड़ा गर्व था। इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपनी इस रचना की अद्वितीयता घोषित करते हुए कहा कि जिस कवि में मुझसे अधिक बुद्धि और क्षमता हो, वह इससे अच्छी कोई प्रेमकथा रचकर दिखाये- "जाकी बुद्धि होय अधिकाई, आन कथा यक कहै बनाई।" शेख नबी नामक सूफी कवि ने इसी परम्परा में सन् 1619 ई० में 'ज्ञानदीप' नामक प्रेमकाव्य की रचना की, जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवयानी की कथा है।
कवि 'कासिमशाह' ने इसी श्रृंखला में 'हंस जवाहिर' की रचना की, जिसमें राजा हंस और रानी जवाहिर की प्रेमगाथा मिलती है। इस काव्यधारा में कवि नूर मोहम्मद की दो रचनाएँ भी प्रसिद्ध हुईं। जिनका नाम है, 'इन्द्रावती' तथा अनुराग बाँसुरी'। इन कृतियों का रचनाकाल क्रमशः सं० 1801 वि० तथा सं० 1821 वि० है। इसके अतिरिक्त जानकवि रचित प्रेमाख्यान रतनावती, कनकावती आदि प्रेमाख्यान तथा आलम कवि रचित 'माधवानल कामकन्दला' प्रेमाख्यान भी इस काव्यधारा को समृद्ध करने वाली रचनाएँ हैं। इस पद्धति के प्रेमाख्यान लिखने वाले प्रायः सभी कवि मुसलमान ही रहे हैं। बीच-बीच में हिन्दू कवियों द्वारा रचित प्रेमकाव्य भी सामने आते रहे, पर वे विशुद्ध भारतीय पद्धति पर थे। सूफी विचारधारा से उनका मेल नहीं था।
प्रेममार्गी सूफी कवियों को बाद में हिन्दी रचना करने के कारण अपने समाज में किंचित् तिरस्कार का भाजन बनना पड़ा और इस्लाम में अपनी अडिग निष्ठा की सफाई देनी पड़ी। इस परिस्थिति ने हिन्दी में इस काव्यधारा के वेग को कुछ कम कर दिया। फिर भी कुछ न कुछ कवि इसमें आते ही रहे। इनमें 'शेख निसार' का नाम उल्लेख्य है जिन्होंने 'यूसुफ जुलेखा' की रचना की थी ।
सूफी प्रेमाख्यान हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण धरोहर हैं। इन रचनाओं ने न केवल प्रेम और आध्यात्मिकता का संदेश दिया, बल्कि हिन्दी साहित्य को भी समृद्ध किया। आज भी ये रचनाएं प्रासंगिक हैं और लोगों को प्रेरित करती हैं।
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