जानासोआ पूर्व दिशा में सूर्योदय हो रहा है। रघु की माँ रघु को जगाते हुए कहती है - "उठ जाओ बेटा, आज तुम बहुत देर तक सोए।" तभी रघु के पिता जी वहां आते ह
जानासोआ
पूर्व दिशा में सूर्योदय हो रहा है। रघु की माँ रघु को जगाते हुए कहती है - "उठ जाओ बेटा, आज तुम बहुत देर तक सोए।" तभी रघु के पिता जी वहां आते हैं। पिता जी - "उठ जाओ बेटा, आज तुम्हें मेरे साथ खेतों की सैर के लिए भी चलना है।" रघु उठ कर हाथ - मुंह धोता है। रघु दातुन से अपने दांत साफ करता है। रघु की माँ रघु के लिए दूध का गिलास ले आती है। रघु दूध पीने से मना करता है। रघु की माँ - "बेटा दूध पीओगे तभी तो भीमसेन की तरह ताकतवर बनोगे। " रघु दूध पी लेता है। रघु के पिता जी भी चाय पी लेते हैं। रघु के पिता जी कुदाली - फावड़ा उठाकर खेतों की तरफ चल देते हैं। वे रघु को भी अपने साथ ले चलते हैं। जंगल को पार करके वे सोन नदी के किनारे पहुंच जाते हैं।
रघु के खेत नदी के किनारे हैं। रघु के पिता जी कुदाली से खेतों में खुदाई करने लगते हैं। रघु एक पत्थर पर बैठकर उन्हें देखने लगता है। बड़े होकर रघु को भी एक किसान बनना है। रघु के पिता जी उसे सैनिक बनाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि रघु खेतों के साथ - साथ सीमा की रक्षा करके भी देश की सेवा करे। वे स्वयं सेना में सैनिक रह चुके हैं। वे अपने देश के लिए युद्ध लड़ चुके हैं। उन्हें वीरता के लिए इनाम भी मिल चुका है। वे अपने चाकू से दस दुश्मनों के सिर काट लाए थे। वे चाहते हैं कि रघु भी उनकी तरह वीर योद्धा बने और परिवार का नाम रोशन करे। वे रघु से प्रतिदिन कसरत करवाते हैं। इस कार्य में रघु की माँ भी उनका साथ देती है। घर में दूध घी की कमी न हो इसलिए उन्होंने तीन भैंसें पाल रखी हैं। घर में कोई भी मांस नहीं खाता है। रघु अपने माता-पिता का आज्ञाकारी बेटा है। वह उनकी हर बात मानता है। साथ लगते खेत में उसका मालिक काम करने आता है। रघु उसे चाचा जी कहकर पुकारता है। चाचा जी-"बेटा रघु वहां पत्थर पर क्यों बैठे हो, खेत में अपने पिता जी की मदद करो।" यह सुनकर रघु के पिता जी हंसने लगते हैं। यह सुनकर रघु सकुचा जाता है। चाचा जी के साथ उनकी बेटी रजनी भी आई है। रघु और रजनी सहपाठी हैं। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कराने लगते हैं। दोनों पत्थर पर बैठ जाते हैं। रघु के पिता जी -" अब दोनों कोई काम नहीं करने वाले। अब दोनों आपस में खेलेंगे।" रघु के पिता जी और चाचा जी हंसने लगते हैं। रघु और रजनी अपनी बालपन की दुनिया में खो जाते हैं। रजनी-"क्या तुमने अध्यापक द्वारा दिया गया गृहकार्य कर लिया है?" रघु - "नहीं और तुमने?" रजनी-"मैं गृहकार्य समाप्त करके ही खेतों में आई हूँ। " रघु सोचने लगता है कि खेतों से वापस जाकर वह भी अपना गृहकार्य समाप्त कर लेगा। फिर रघु सोचने लगता है कि उसे गृहकार्य समाप्त करके ही खेतों में आना चाहिए था। रजनी रघु को चिढ़ाते हुए-" अगर तुमने गृहकार्य नहीं किया तो कल पाठशाला में तुम्हारी पिटाई होगी। " यह कहकर रजनी जोर-जोर से हंसने लगती है। रघु इससे चिढ़ जाता है। वह उसे पीटने के लिए उसके पीछे भागता है। रजनी रघु से ज्यादा फुर्तीली है। वह उसे पकड़ नहीं पाता। थोड़ी दूर भागने के बाद रजनी रूक जाती है। रघु भी उसके पीछे रूक जाता है। दोनों हांफ रहे होते हैं। दोनों नदी के किनारे एक बड़े पत्थर पर बैठ जाते हैं। थोड़ी देर तक दोनों शांत बैठे रहते हैं। नदी का पानी बहुत ही साफ होता है। तल का एक-एक पत्थर साफ दिखाई दे रहा होता है। तभी रघु पानी में पत्थर फेंकता है। मछलियां कोनों में छिप जाती हैं। रजनी-"तुमने इनको डरा दिया।" रघु मुस्कराने लगता है। दोनों नदी के किनारे टहलने लगते हैं। पेड़ों की टहनियों पर बैठे पक्षी चहचहा रहे होते हैं। तभी एक खरगोश वहां से भागता है। रघु उसे पत्थर मारने के लिए उसके पीछे भागता है। रजनी उसे ऐसा करने के लिए डाँटती है। रजनी एक बुद्धिमान लड़की है। वह हिंसा में विश्वास नहीं रखती। वह प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठा कर जीने में विश्वास रखती है। तभी उन्हें 'टीही-टीही' की आवाज सुनाई देती है। दोनों आवाज की तरफ देखते हैं। एक पंछी नदी का पानी पी कर उड़ता है और पेड़ की टहनी पर जा बैठता है। पंछी दोबारा 'टीही-टीही' की आवाज निकालता है। रघु उसे मारने के लिए पत्थर उठाने लगता है। रजनी उसे घूरती है।
रघु चुपचाप खड़ा हो जाता है। रजनी- इस पंछी का नाम 'टटीही' है। यह पिछले जन्म में एक बुढ़िया थी। बुढ़िया अकेले रहती थी। उसका बेटा अपने परिवार के साथ दूर परदेश में रहता था। बुढ़िया को किसी चीज की कोई कमी न थी। घर में अन्न-धन बहुत था। कुटिया के पीछे मीठे पानी का एक कुआं था। बुढ़िया का बेटा हर महीने उसे पैसे भेजता था। बुढ़िया चुड़ैलों की रानी से कम न थी। बुढ़िया की कुटिया गांव से शहर जाने वाले रास्ते में पड़ती थी। कुटिया के अलावा दूर-दूर तक कोई घर न था। थके हुए राहगीर कुटिया के पास रूकते थे। वे बुढ़िया से पीने के लिए पानी मांगते थे। बुढ़िया पानी पीलाने के पैसे लेती थी। वह राहगीरों को पानी बेचती थी। प्यासे राहगीर क्या करते, बेचारों को पानी खरीदना ही पड़ता था। अगर कोई गरीब राहगीर पैसे न देता तो बुढ़िया उसे पानी न पिलाती थी। गरीब राहगीर को प्यासे ही आगे की यात्रा पर निकलना पड़ता था। बुढ़िया के बेटे ने इस बारे में बुढ़िया को बहुत समझाने की कोशिश की। पर वह किसी की नहीं सुनती थी। एक दिन एक प्यासे राहगीर ने बुढ़िया का दरवाजा खटखटाया। राहगीर के साथ एक छोटी बच्ची भी थी। बुढ़िया ने दरवाजा खोला। राहगीर - "हम गांव से शहर जा रहे हैं। मेरी पोती को बहुत प्यास लगी हुई है। कृपया करके हमें पानी पीला दें।" बुढ़िया - "एक गिलास के दो पैसे लूंगी और दो गिलासों के चार पैसे।" राहगीर - "हम बहुत गरीब हैं। हमारे पास पैसे नहीं हैं। मैं इस बच्ची को शहर में इसके पिता के पास छोड़ने जा रहा हूं। वह वहां पर मजदूरी करता है। अब मैं बुड्ढा हो चला हूं। न जाने कब परमात्मा अपने पास बुला ले। कृपया करके हमें पानी पीला दें। " बुढ़िया -" इस संसार में गरीब कौन नहीं है। सबसे बड़ी गरीब मैं हूँ। बिना पैसों के पानी ना मिलेगा। "यह कहकर बुढ़िया मंद-मंद मुस्कराई। बुड्ढे राहगीर ने बुढ़िया से बहुत मिन्नतें की। राहगीर -" मुझे ना सही, इस बच्ची को ही पानी पीला दें। " बुढ़िया -" बिना पैसों के तो नहीं पीलाऊंगी। " राहगीर और बच्ची प्यासे ही आगे की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। अगली सुबह एक राहगीर बुढ़िया का दरवाजा खटखटाता है। काफी देर तक दरवाजा खटखटाने के बाद भी बुढ़िया दरवाजा नहीं खोलती। जब बुढ़िया को ढूंढा जाता है तो वह कुएं में डूबी हुई मिलती है। एक वर्ष बाद राहगीरों ने देखा की एक पंछी कुटिया के उपर बैठा कुएं की तरफ देखता रहता है। यह। इस पंछी प्यासा होने के बावजूद भी कुएं का पानी नहीं पीता। यह पंछी वही बुढ़िया है। इसे श्राप मिला है कि पानी इसे खून दिखाई देगा। पंछी को पानी से भरा कुआं खून से भरा दिखाई देता है। वह चाहकर भी पानी पी नहीं सकता। रघु-"इस पंछी ने तो अभी हमारे सामने नदी का पानी पीया।" रजनी-"तो प्यासा बेचारा क्या ना करे। इसे खून पीकर ही अपनी प्यास बुझाने पड़ती है। यही इसका श्राप है।" दोनों टहलते-टहलते आगे बढ़ते रहते हैं।
रघु कभी पानी में पत्थर फेंकता रहता है तो कभी झाड़ियों में पत्थर फेंकता रहता है। वह फूलों पर बैठी तितलियों को पकड़ने की कोशिश करता रहता है। वह मोरों को देखकर उनकी तरह आवाज निकालने की कोशिश करता है। रघु कौए को देखकर 'कैं-कैं' की आवाज निकालता है। रजनी हंसते हुए कहती है कि अभी तुमने सही आवाज निकाली। दोनों काफी दूर निकल आते हैं। तभी उन्हें 'भेओं-भेओं' की आवाज सुनाई देती है। दोनों इधर-उधर देखने लगते हैं। तभी उन्हें पेड़ की ऊंची टहनी पर एक पंछी बैठा दिखाई देता है। रघु-"क्या यही पंछी 'भेओं-भेओं' कर रहा है?" रजनी पंछी को गौर से देखती है। रजनी-"हाँ, यही 'भेओं-भेओं' कर रहा है और इस पंछी का नाम भी भेओं है।" रघु-"यह इतनी ऊंचाई पर बैठकर 'भेओं-भेओं' करके किसे बुला रहा है। इसे देखकर लगता है कि यह किसी को खोज रहा है।" रजनी मुस्कराते हुए-" यह अपनी भेड़ों को खोज रहा है।" रघु इधर-उधर देखकर - "मुझे तो कहीं भेड़ें नहीं दिख रही हैं। यह अपनी भेड़ों को गलत जगह पर ढूंढ रहा है। " रजनी यह सुनकर हंसने लगती है। रजनी - यह पंछी पिछले जन्म में चरवाह था। इसके घर जोगिंदरनगर से ऊपर बरोट घाटी में थे। बरोट घाटी में सर्दियों में बर्फ पड़ जाती है तो चरवाहे अपनी भेड़ों को चराने के लिए नीचे सरकाघाट की तरफ ले आते हैं। चरवाह अपनी पत्नी के साथ भेड़ों को चराने के लिए सरकाघाट की तरफ निकल पड़ता है। उसकी बूड्ढी माँ, दो लड़कियां और एक लड़का पीछे घर पर रूक जाते हैं। दोनों पति - पत्नी भेड़ों को हांकते हुए सरकाघाट के इलाके में पहुंच जाते हैं। वे प्रत्येक वर्ष सर्दियों में अपनी भेड़ों को लेकर पहाड़ों से नीचे उतर आते हैं। यह उनका हर वर्ष का काम है। गांव में लोगों से उनकी जान-पहचान हो गई है। वे रात के समय अपनी भेड़ों को किसी के खेत में इकट्ठा कर बिठा देते हैं। उनके साथ आए कुत्ते पहरा देते हैं। कई बार भेड़ों को तेंदुए मार कर खा जाते हैं। रात के समय सब लोग एक जगह आग जलाकर बैठ जाते हैं। गांव के लोग उनके लिए खाना ले आते हैं। भजन-कीर्तन का दौर ग्यारह - बारह बजे तक चलता रहता है। चरवाहा अपनी भेड़ों को लेकर टिहरा गांव पहुंचता है। वहाँ उसे दूसरे चरवाहों से खबर मिलती है कि उसकी माँ बीमार है। टिहरा गांव में उसके मित्र का घर है। वह अपने मित्र को सारी बात बता अपने घर वापस चला जाता है। उसकी पत्नी भेड़ों के साथ रूकती है। रात के समय चरवाहे का मित्र चरवाहे की पत्नी को सोने के लिए अपने घर बुला लेता है और स्वयं भेड़ों की रखवाली के लिए खेतों में चला जाता है। घर पर उसकी पत्नी और बेटी है। बेटी चौबीस - पच्चीस वर्ष की जवान लड़की है।
पाँच - छः दिन बाद चरवाहे की पत्नी देखती है कि हर दिन एक भेड़ कम हो जाती है। चरवाहे का मित्र अपने मित्रों के साथ रोज एक भेड़ को मारकर खा जाता था। चरवाहे का मित्र चरवाहे की पत्नी को दो लाख रूपयों में बेच देता है। वह आधी भेड़ों को अपने मित्रों संग मारकर खा जाता है और आधी को बेच देता है। उसके इस कुकर्म में उसकी पत्नी और बेटी उसका पूरा साथ देते हैं। दो सप्ताह बाद चरवाह लौट कर वापस आता है। वह अपने मित्र के घर जाता है। उसका मित्र उसे बताता है कि उसकी पत्नी भेड़ों को लेकर एक सप्ताह पहले ही वहां से जा चुकी है। चरवाहा उन्हें बहुत ढूंढता है परंतु उसे अपनी पत्नी और भेड़ें नहीं मिलती। वह लोगों से अपनी पत्नी और भेड़ों के बारे में पूछता है। लोग उसे बताते हैं कि उन्होंने उसकी पत्नी और भेड़ों को कहीं नहीं देखा। चरवाहा अपनी पत्नी और भेड़ों के बिना वापस घर नहीं लौट सकता था। वह उनको हर जगह ढूंढता है। पर वे उसे कहीं नहीं मिलते। वह उन्हें ढूंढते हुए आवाज लगाता है कि मेरी भेड़ों तुम कहाँ हो। दोपहर की भीषण गर्मी में वह उन्हें आवाज लगाते - लगाते मर जाता है। मरकर वह पंछी बन जाता है। आज भी वह अपनी पत्नी और भेड़ों को ढूंढ रहा है। वह 'भेओं-भेओं' करके उन्हें आवाज लगाता रहता है। चरवाहे की कहानी सुनकर रघु उदास हो जाता है। वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि भेओं पंछी को उसकी भेड़ें मिल जाएं। तभी भेओं पंछी वहां से उड़ जाता है। रघु-"क्या भेओं पंछी ने अपनी भेड़ों को ढूंढ लिया?" रजनी हंसने लगती है। दोनों टहलते हुए काफी दूर तक आ चुके होते हैं। रजनी-"चलो वापस चलते हैं। पिता जी हमें ढूंढ रहे होंगे।" रघु हाँ में सिर हिलाता है। दोनों वापस अपने खेतों की तरफ चल देते हैं। रास्ते में दोनों को 'जानासेओ-जानासेओ' की आवाज सुनाई देती है। रघु रूक जाता है। रघु-"ये भी कोई पंछी होगा?" रजनी-"हाँ, दोनों इधर-उधर पंछी को ढूंढते हैं। जानासेओ पंछी नदी के किनारे एक पत्थर पर बैठा होता है। वह बार-बार चिल्ला रहा होता है - 'जानासेओ - जानासेओ' । रजनी- पिछले जन्म में यह एक लड़की थी। घरवालों ने इसकी शादी दूर गांव में कर दी। शादी के कुछ दिन बाद इसका पति परदेश में नौकरी करने चला गया। घर पर सास और बहु दोनों रह जाते हैं। सास बहुत ही नीच प्रवृत्ति की होती है। वह बहु को तरह-तरह से तंग करती थी। बहु सब कुछ सहती रहती है।
शादी हुए एक वर्ष बीत जाता है। बहु-"माताजी, मुझे मायके गए हूए एक वर्ष हो गया। शादी के बाद मैं एकबार भी मायके नहीं गई। मुझे मेरे मायके जाने की अनुमति दें। मैं कुछ दिन मायके में रहकर वापस लौट आऊंगी।" सास बहु को साफ मना कर देती है। एक महीना बीत जाता है। बहु सास को दोबारा विनती करती है।सास चालाकी से काम करने का निर्णय लेती है। सास - "कल चादरों को अच्छी तरह साफ कर देना। उसके बाद तुम मायके चली जाना। लेकिन चादरें चितरे (सबसे सफेद फूल) के फूल से भी ज्यादा सफेद होनी चाहिए।" बहु मान जाती है। बहु बहुत प्रसन्न होती है क्योंकि एक वर्ष बाद वह अपने मायके जाएगी। बहु को थोड़ा सा भी एहसास नहीं होता कि उसकी सास उसके खिलाफ क्या षड्यंत्र रच रही है। बहु सो जाती है। आज रात उसे बहुत अच्छी नींद आती है। सास बहु के कमरे में झांकती है। वह देखती है कि बहु सो चुकी है। उसके बाद वह चादरों को गर्म गंदे तेल में भीगो देती है। अगली सुबह बहु उठती है। मायके जाने की खुशी में वह बिना नाश्ता किए ही चादरों को धोने लग पड़ती है। उसका मायका 'सेओ' गांव में है। वह मायके जाने की खुशी में चादरों को धोते-धोते 'जानासेओ-जानासेओ' बोलती रहती है। ऐसा करते-करते रात हो जाती है। परंतु बहु चादरों को धोती रहती है। चादरों को धोते-धोते बहु के प्राण पखेरू हो जाते हैं। बहु के मुख से निकले आखिरी शब्द होते हैं - 'जानासेओ-जानासेओ' । मरकर बहु पंछी बन जाती है और आज भी वह अपने मायके ' सेओ' गांव जाना चाहती है। जानासेओ पंछी पत्थरों, पेड़ों पर बैठा 'जानासेओ - जानासेओ' चिल्लाता रहता है। दोनों अपने खेतों के पास पहुंच जाते हैं। उनके पिता जी खेतों में काम खत्म करके उन्ही का इंतजार कर रहे होते हैं। दोनों उनके साथ घर की तरफ चल देते हैं। तभी एक पंछी 'कीं-कीं' की आवाज करता है। रघु रजनी की तरफ देखता है। रजनी मंद-मंद मुस्कराती है।
- विनय कुमार,
सहायक प्रोफेसर हिन्दी ,
हमीरपुर , हिमाचल प्रदेश
बहुत बढ़िया
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