कविता के उपकरण और तत्व कविता भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करने का एक शक्तिशाली माध्यम है। कवि अनेक उपकरणों और तत्वों का प्रयोग करते हैं ताकि अपनी
कविता के उपकरण और तत्व
कविता भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करने का एक शक्तिशाली माध्यम है। कवि अनेक उपकरणों और तत्वों का प्रयोग करते हैं ताकि अपनी रचना को प्रभावशाली और मनोरंजक बना सकें।
काव्य क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्यों ने काव्य के लक्षणों को लिखकर दिया है, किन्तु काव्य की परिभाषाएँ व्यक्ति, देश, काल आदि सापेक्ष हैं। अतः वे पूर्ण होते हुए भी अपूर्ण हैं। काव्य की आत्मा के निर्धारण-प्रसंग में भी आचार्यों ने काव्य, उसकी आत्मा और उपकरण की ओर संकेत किया। उसके द्वारा भी काव्य के तत्वों का स्पष्ट निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु इतना स्पष्ट है कि भाव और भाषा-शैली काव्य के अनिवार्य उपकरण हैं। 'स्पृहणीय' सुन्दर भाव ही काव्य-साहित्य का मूल तत्व है और उसकी अभिव्यक्ति का अनिवार्य माध्यम भाषा-शैली है। रस-भाव अथवा उदत्ति भाव काव्य का प्राणतत्व है तो भाषा-शैली उसका शरीरत्व है। वास्तव में यही दो तत्व काव्य के प्रमुख उपकरण या तत्व हैं किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने कल्पना-तत्व को विशेष महत्व दिया है। भाव अन्तर्गत बुद्धि-तत्व या विचार-तत्व का भी समावेश हो जाता है किन्तु विद्वानों ने इन दोनों तत्वों में प्रथकता मानकर इन्हें दो तत्व स्वीकार किया है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने काव्य में तीन प्रधान उपकरण या तत्व माने हैं, उनका विचार है कि-
- बुद्धितत्व अर्थात् वे विचार जिन्हें लेखक या कवि अपने विषय-प्रतिपादन में संयुक्त अपनी कविता में अभिव्यक्त करता है।
- रागात्मक तत्व अर्थात् वे भाव जिनको उनका काव्य विषय स्वयं उसके हृदय में उत्पन्न करता है और जिनका वह पाठकों के हृदय में संचार करना चाहता है तथा
- कल्पना-तत्व अर्थात् मन में किसी विषय का चित्र अंकित करने की शक्ति जिसे वह अपनी कृति में प्रदर्शित करके पाठकों के हृदय-चक्षु के सामने भी वैसा ही चित्र उपस्थित करने का प्रयत्न करता है। किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने चार तत्व माने हैं उनके नाम हैं— (1) बुद्धि-तत्व, (2) भाव-तत्व, (3) कल्पनातत्व, (4) कला या शैली (भाषा-शैली)।
काव्य वृद्धि, भाव, कल्पना और भाषा-शैली का समन्वित परिणाम है। एक के अभाव में काव्य का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। किन्तु हम किस तत्व को प्रधान मानें और किसे अप्रधान । हमारे विचार से सर्वाधिक प्रधान तत्व-भाव काव्य का भाव-तत्व की ही प्रधानता प्रतीत होती है, बुद्धि-तत्व का स्थान गौण होता है। बुद्धि-तत्व के अभाव में काव्य का कोई रूप अवश्य सम्भव है, वह चाहे अस्थिहीन माँस के शिथिल श्लभ के समान ही क्यों न हो। किन्तु केवल बुद्धि-तत्व कभी काव्य का विधान नहीं कर सकता। वह तो शुष्क नीरस और भयावह अस्थिपंजर के सदृश ही प्रतीत होगा इसलिए काव्य में बुद्धि-तत्व सदैव ही भावाश्रित रहता है। इसी बात को मैरी (Merry) नामक पाश्चात्य विद्वान् ने इस प्रकार लिखा है-
"In literature there is no such thing as pure thought; thought is always the handmaid of emotion." (The Problem of Style Page 73.) “अर्थात् साहित्य में बुद्धि अपने शुद्ध रूप से नहीं रहती। वह सदैव ही भावना की अनुगामिनी भृत्या के रूप में आती है।"
बुद्धि तत्व
बुद्धि-तत्व का काव्य में महत्वपूर्ण स्थान है, वह कवि को विचारसम्पदा प्रदान करता है। कवि के दृष्टिकोण को स्वस्थ दिशा देने का कार्य भी बुद्धि का है। वह जीवन और जगत् के चिरन्तन सत्यों की मूर्त रूप प्रदान करने में सहयोग प्रदान करता है। बुद्धि-तत्व उचितानुचित के विवेक का कार्य भी करता है। डॉ. त्रिगुणायत ने बुद्धि के निम्नलिखित कार्य स्वीकार किये हैं-
(1) भावों को आधारभूति के रूप में,
(2) भावों को स्पष्टतर करने के लिए,
(3) लेखक के दृष्टिकोण के स्वरूप निर्माण के रूप में,
(4) भावों की व्यवस्थित अभिव्यक्ति के रूप में,
(5) भावाभिव्यक्ति में चमत्कार की योजना के रूप में।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि काव्य में बुद्धि-तत्व का विशेष महत्व है, उसके द्वारा काव्य की रूपरेखा व्यवस्थित होती है। वह कल्पना की उन्मुक्ति गति की संयमित करता है और काव्य को लोकमंगल का विधायक बनने के लिए बाध्य करता है ।
भाषा तत्व
भाव अथवा रस काव्य का प्राण है। यह भाव ही काव्य का आधार है। इस भाव-तत्व की पूर्ण परिणति के लिए अन्य तत्वों का प्रयोग किया जाता है। भाव-तत्व ही काव्य का ऐसा अनिवार्य तत्व है जिसके महत्व को सभी स्वीकार करते हैं। तत्व काव्य की मूलभूत एकता ही प्रतिष्ठा करता है। मनोवेग, जिन्हें साधारणतः भाव ही कहा जाता है, काव्य के भाव-पक्ष के प्राण हैं। कवि की संस्कारजन्य प्रतिभा जीवन के विविध वातावरणों के मार्मिक चित्रों को आत्मसात् करती रहती है। मनोवेगों के किसी विशेष उद्रेक द्वारा यह एकत्रित चित्र वाग्धारा के माध्यम से काव्य का निर्माण करते हैं। काव्य के कल्पना-तत्व, बुद्धि-तत्व और शैली-तत्व यह तीनों तत्व भाव-तत्व पर आश्रित हैं। भाव ही अवि-कल्पना का प्रेरक तत्व है। वह काव्य में प्रभाव उत्पन्न करता है। यही वास्तव में काव्य है, वही संगीतात्मकता का प्रेरक है। निःसन्देह भाव ही काव्य का मूलतत्व है । उसी तत्व की सहायता के लिए अन्य तत्वों का प्रयोग होता है। श्रेष्ठ काव्य के निर्माण के लिए भावों में उदात्तता, गहनता और विस्तार होना आवश्यक है ।
भाषा शैली
तत्व-कल्पना, बुद्धि और भाव-तत्व के समान शैली-तत्व भी काव्य का अनिवार्य तत्व हैं। भाव आत्म-तत्व है तो भाषा-शैली शरीर-तत्व। भावार्थ जब शब्दार्थ रूप ग्रहण करता है तभी वह साहित्य रूप को ग्रहण करता है। "काव्य का शैली-तत्व मनोगत भावों को मूर्त रूप प्रदान करने वाला सरल साधन है। शैली काव्य के बाह्य रूप को अलंकृत करने के अतिरिक्त उसके भावगत रूप को विकसित करती है। भावों के पोषक उपादान के रूप में यह रस-संचार करने में सहायक होती है। भाव सौन्दर्य की सार्थकता शैलीगत सौन्दर्य पर ही आश्रित है। सुन्दर शैली के अभाव में भावों का सहज सौन्दर्य भी विकृत हो जाता है। प्रत्येक लेखक की अन्तर्तम भावनाओं और व्यक्तित्व के अनुसार शैली अपना विशिष्ट महत्व रखती है।” निश्चय ही शब्द और अर्थ प्रत्येक साहित्यकार की अपनी सम्पत्ति होते हैं किन्तु जो उनका समुचित प्रयोग करना जानता है और करता है महान् साहित्यकार के पद को अभिव्यक्त करता है।
कल्पना तत्व
काव्य के तत्व में एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व कल्पना है। काव्यरूप की सृष्टि करने वाली शक्ति कल्पना ही है, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के समक्ष प्रस्तुत करने का काम कल्पना करती है। यह अमूर्त को मूर्त रूप देती है। पात्रों के चरित्र की सृष्टि करती है। विभिन्न भावों के चित्र अंकित करना भी इसी कल्पना का कार्य है। भूत, भविष्य और वर्तमान का साक्षात्कार हम कल्पना द्वारा ही करते हैं, अतः काव्य में कल्पना का महत्व स्वयं सिद्ध है। कल्पना से उत्पन्न चित्र ही भावों को उत्तेजित करते हैं भाषा-शैली उन्हें शब्द रूप प्रदान करती हैं। “सूक्य” विशेषताओं और गुणों की चेष्टा, क्रियाकलाप और अभिव्यक्ति के प्रयोजन को तथा भाव की उलझन तीव्रता और प्रभाव की कल्पना की सहायता के बिना पूर्णतया प्रकट नहीं किया जा सकता । कल्पना की चल-चित्रावली जब प्रकट होने लगती है, तब अनुभूति, अतीत जीवन की झांकियाँ हमारे सामने नाचने लगती हैं। जिस प्रकार भाव की अनुभूति आनन्दमयी है उसी प्रकार कल्पना की झाँकी भी मधुर संवेद्य है। सुख अथवा दुःख चाहे जिसके चित्र या कल्पना की चित्रावली प्रस्तुत करे हम उसे देखने की अटूट तृष्णा से ओत-प्रोत हैं। वास्तव में कल्पना की सामर्थ्य ही कवि की प्रतिभा है। शेक्सपियर ने इसलिए लिखा भी है कि - "The lunaic the love and the poet are of imagination all compact.” अर्थात् उन्मत्त, प्रेमी और कवि का कल्पना से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कल्पना को प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों ही काव्य-संसार तथा उनके काव्यशास्त्र महत्व प्रदान करते हैं।
काव्य के भाव, कल्पना, बुद्धि और भाषा-शैली नामक चारों तत्वों में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। वे परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे को पूर्णता प्रदान कर काव्य का रूप ग्रहण करते हैं। “कल्पना, शैली और विचार-तत्व मूल उदात्त भाव-तत्व को श्रेष्ठ सिद्धि में ही सहायक होते हैं। कल्पना भाव को पुष्ट करती है, उसकी नई-नई सामग्री जुटाती है, नए-नए चित्र उपस्थित कर भाव एवं कला दोनों को बल देती है, कल्पना का सम्बन्ध मानसिक सृष्टि है। बुद्धि-तत्व कल्पना को उच्छृंखल बनने से रोक देता है और भावों को उदात्त बनाता है। बुद्धि-तत्व से काव्य में सत्यं एवं शिवं की शिक्षा होती है, तो कल्पना और भाव-तत्व से सुन्दरम् का निर्माण भी होता है। कल्पना से सुन्दरम् का शरीर निर्मित होता है तो भावों में उसकी आत्मा पाई जाती है। शैली अभिव्यक्ति का माध्यम है इसी से तो कवि के हृदय के साथ पाठक के हृदय का सहस्पन्दन होता है।"
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