ध्वनि सिद्धान्त का अर्थ प्रमुख भेद काव्य में महत्व

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ध्वनि सिद्धान्त का अर्थ प्रमुख भेद काव्य में महत्व ध्वनि सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है जो काव्य के रसानुभूति में व्यंग्

ध्वनि सिद्धान्त का अर्थ प्रमुख भेद काव्य में महत्व


ध्वनि सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है जो काव्य के रसानुभूति में व्यंग्य की भूमिका को स्थापित करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, काव्य में शब्द और अर्थ अपने अभिधेय अर्थ (शब्दों का सीधा अर्थ) से परे जाकर एक विशेष अर्थ (ध्वनि) को व्यंजित करते हैं, जो रसानुभूति का आधार बनता है। ध्वनि को 'व्यंग्यार्थ' भी कहा जाता है।

भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित प्रमुख काव्य-सिद्धान्तों में ध्वनिमत भी एक है। विद्वानों का अनुमान है कि आदि साहित्याचार्य भामह ने ही अपने 'काव्यालंकार' में ध्वनि-मत की ओर संकेत कर दिया था, किन्तु एक प्रमुख काव्य - सिद्धान्त के रूप में सर्वप्रथम उसकी प्रतिष्ठा आनन्दवर्धन ने की। 'काव्यात्मा ध्वनि' कहकर उन्होंने काव्य में ध्वनि को सर्वातिशायी महत्त्व प्रदान किया। 'ध्वन्यालोक' में जिस ध्वनि-सिद्धान्त का विस्तार वर्णन किया गया है, उसका बीजरूप प्राचीन वैयाकरणों के 'स्फोट-सिद्धान्त' में विद्यमान था। स्फोट सिद्धान्त का सर्वप्रथम उल्लेख 'वाक्यपदीय' से किया गया। श्रोता को शब्द के माध्यम से अर्थ की प्रतीति कैसे होती है, इस पर विचार करते-करते स्फोट सिद्धान्त का जन्म हुआ। कतिपय दार्शनिकों के मत में कानों से सुनी जाने वाली ध्वनियाँ एक मात्र अर्थ ग्रहण का साधन हैं। वैयाकरण इस मत से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार मात्र ध्वनि-समूह के द्वारा अर्थग्रहण सम्भव नहीं, बल्कि ध्वनि समष्टि से प्रकाश्य एक भिन्न 'शब्द' से अर्थबोध होता है और उसी को हम 'स्फोट' कहते हैं। स्फोट का शाब्दिक अर्थ है- 'जिससे अर्थ प्रस्फुटित हो।
 
ध्वनि सिद्धान्त का अर्थ प्रमुख भेद काव्य में महत्व
जिस प्रकार ध्वनि समष्टि से प्रकाश्य एक भिन्न शब्द अर्थ बोध में सहायक होता है और उसे 'स्फोट' कहा जाता है, उसी प्रकार साहित्य अथवा काव्य में वाच्यार्थ से भिन्न एक प्रतीयमान अर्थ होता है, जिसे हम व्यंग्यार्थ कहते हैं। यही काव्य का प्रमुख सौन्दर्य विधायक तत्त्व है, इसी को आनन्दवर्धन ने ‘ध्वनि' की संज्ञा देते हुए काव्यात्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया है। दुनिया की सभी भाषाओं में एक अर्थ के बोधक अनेक शब्द हुआ करते हैं। उन शब्दों को परस्पर पर्यायवाची शब्द कहा जाता है। कुशल कवि अपनी कविता में एक ही अर्थ के बोधक अनेक शब्दों में से किसी एक शब्द को ग्रहण करता है। इससे स्पष्ट है कि कुछ शब्दों में वाच्यार्थ से भिन्न 'कुछ और' अर्थ प्रदान करने की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए 'रामचरितमानस' की निम्नलिखित चौपाइयाँ लें -
 
जय जय गिरिवर राज किसोरी 
जय महेस मुखख चन्द चकोरी ।। 
जय गज बदन षडानन माता । 
जगत जननि दामिनि दुति गाता ।।

उपर्युक्त चौपाइयों में पार्वती के पुत्री, पत्नी और माता रूप की वन्दना की गयी है। तीनों अवस्थाओं में पार्वती एक हैं, किन्तु 'गिरिवर राजकिसोरी' से ही उनके पुत्री रूप का बोध हो सकता है। इसी प्रकार 'महेस मुख चन्द चकोरी' से अनायास उनके कान्ता-रूप का बोध होता है और 'षडानन माता' से वे साक्षात् मातृस्वरूप प्रतीत होती हैं। आशय यह कि काव्य प्रयुक्त शब्दों में वाक्यार्थ से भिन्न 'अतिरिक्त अर्थ' प्रदान करने की क्षमता होती है और जिन शब्दों में यह क्षमता होती है; वे ही काव्योचित और सहृदयों में समादरणीय होते हैं। इसी अतिरिक्त अर्थ को आनन्दवर्धन प्रतीयमान अथवा व्यंग्यार्थ कहते हैं, जिसका अस्तित्व विदग्ध काव्य-मर्मज्ञ को मानना ही पड़ता है। इसी अतिरिक्त अर्थ से युक्त शब्द का प्रयोग करने वाला कवि और उसे ग्रहण करने वाला रसिक विशिष्ट और विदग्ध होता है। कविवर बिहारी के शब्दों में-
 
अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान। 
वह चितवनि औरे कछू जिहिं बस होत सुजान।।
 
संसार में लम्बी और नुकीली आँखों वाली असंख्य स्त्रियाँ हैं, लेकिन वे सभी रसिक-शिरोमणि श्रीकृष्ण के चित्त को चुराने में सक्षम नहीं हुई, जबकि चतुर राधा ने अपनी खास भोली चितवन से श्रीकृष्ण को अपने वश में कर लिया। इसी प्रकार प्रतीयमान अर्थ से युक्त ध्वनि काव्य विशेष रूप से सहृदयों का हृदयावर्जन करने में सक्षम होता है। आनन्दवर्धन ने भी कहा है, 'जिस प्रकार अंगनाओं के शरीर में अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य के अलावा 'लावण्य' नाम की एक अनिवर्चनीय वस्तु होती है, उसी प्रकार महाकवियों की वाणी में वाच्यार्थ से भिन्न एक प्रतीयमान अर्थ होता है-
 
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्रास्तु वाणीसुमहाकवीनाम्...विभाति लावण्य मिवांगनासु ।।
 

ध्वनि के भेद प्रभेद

ध्वन्यालोककार ने ध्वनि के भेद-प्रभेदों का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। आधुनिक समालोचकों ने उसका इतना विस्तार देखकर ध्वनिमत को नितान्त बौद्धिक प्रक्रिया प आधारित कहा है। आरम्भ में ध्वनि के दो मुख्य भेद किये गये- असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य और संलक्ष्यक्रम व्यंग्य। असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य को रस ध्वनि कहा जाता है। काव्यप्रकाशकार मम्मट ने, जो मूलतः ध्वनिमत के समर्थक थे, रसादिध्वनि के प्रकरण में ही रस का विस्तृत विवेचन किया है। इस प्रकार ध्वनि-सिद्धान्त के अन्तर्गत बड़ी चतुराई से रस सिद्धान्त को अन्तर्भुक्त कर लिया है। आगे चलकर ध्वनि के उपर्युक्त तीन मुख्य भेदों- असंलक्ष्यक्रम, संलक्ष्यक्रम और लक्षणमूला के अनेकानेक भेद किये गये हैं। काव्यप्रकाश में उसके मुख्य अट्ठारह भेद कहे गये हैं- भेदा अष्टादशस्य तत्। लेकिन उन अठारह भेदों को बढ़ाते-बढ़ाते मम्मट के अन्त में 10404 (दस हजार चार सौ चार) की संख्या तक पहुँचा दिया है। फिर भी कतिपय विद्वानों ने ध्वनि के शुद्ध 51 (इक्यावन) प्रभेद ही माने हैं।
 
ध्वनि के उपर्युक्त भेद-प्रभेदों को देखकर सहृदयों के मन में स्वाभाविक रूप से एक सवाल उठता है- आखिर इस द्रविड़ प्राणायाम से क्या फायदा। इस मानसिक कसरत से काव्य का कौन-सा सारभूत तत्त्व (आत्मा) उपलब्ध होता है। इस विषय में ध्वनिमत के समर्थकों का तर्क है कि इससे प्रतिभा की अनुपमता सिद्ध होती है। महाकवि वही है, जिसकी प्रतीक्षा किसी वर्ण्य विषय में सीमित न रहे। यह तभी संभव है जब वर्णन करने की प्रणाली असीमित हो । अतः ध्वनि की अन्ततः उसके सारभूत तत्त्व आत्मा की दृष्टि से नहीं, बल्कि महाकवित्व की दृष्टि से ही स्वीकार्य हो सकती है।
 

काव्य में ध्वनि का महत्त्व

ध्वनिकार आनन्दवर्धन विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनके द्वारा ध्वनि-सिद्धान्त की स्थापना के बाद पूर्व प्रचलित अलंकारवाद के समर्थकों द्वारा उसका बहुत विरोध किया गया। ध्वनि विरोधियों का कहना है कि यदि काव्य के सभी पैमानों का सूक्ष्म विवेचन किया जाये तो उसमें एक तो शब्द और अर्थ मिलेंगे जिन्हें काव्य का शरीर कहा जाता है और दूसरे उन्हें चारुता प्रदान करने वाले तत्त्व, जिन्हें गुण और अलंकार कहा जाता है। आशय यह कि काव्य में उसके शरीर भूत शब्द एवं अर्थ और चारुतापोषक गुण और अलंकार यही सब कुछ है। इससे भिन्न ध्वनिमत का अस्तित्व स्वीकार करने की आवश्यकता क्या है। लेकिन सूक्ष्मता से विचार करने पर अलंकारवादियों के ये तर्क निरर्थक प्रतीत होते हैं। जब काव्य में शरीर और उसे सुशोभित करने वाले उपादानों की चर्चा की जाती है तब स्वाभाविक रूप से यह विचार मन में आता है कि शरीर किसका अथवा गुण किसमें ? और तब शरीर और आभूषण से भिन्न आत्मा अथवा सारभूत तत्त्व का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है। आनन्दवर्धन के अनुसार वह आत्मा ध्वनि ही है और काव्य में उसका सर्वातिशायी महत्त्व है।
 
अब सवाल उठता है कि यदि ध्वनि काव्य की आत्मा है- 'काव्यस्यात्मः ध्वनिः।' जैसाकि आनन्दवर्धन ने स्थापित किया है, तो रस का क्या होगा? जैसाकि ऊपर कह आये हैं, ध्वनि के प्रति एक प्रभेद असंलक्ष्य व्यंग्य में रस ध्वनि को भी समेट लिया गया है। लेकिन क्या ध्वनि के सैकड़ों, हज़ारों भेदों में एक भेद के रूप में रस को समेटना उचित कहा जा सकता है। जैसा कि विविध विद्वानों की व्याख्याओं से प्रतीत होता है, ध्वनि मत भी अन्ततः रस सिद्धान्त का ही पोषक है और आनन्दवर्धन ने भी अन्ततोगत्वा रस को ही काव्य की आत्मा सिद्ध किया है। जिस प्रकार वेदान्त-सा में शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को आत्मा कहते-कहते अन्त में आत्मा के निश्चित स्वरूप तक पहुँचने का प्रयत्न किया गया है, उसी प्रकार ध्वन्यालोककार ने भी क्रम से विवेचन करते हुए अन्ततः रस को ही काव्य की आत्मा सिद्ध किया है। यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाने की स्वाभाविक क्रिया है। शब्द से अर्थ, अर्थ से ध्वनि और ध्वनि से रस तक पहुँचा जाता है। इस प्रकार ध्वनि सिद्धान्त अपने आ. में व्यापक और सुनिश्चित है। उससे काव्य के आत्म स्थानीय स्तर भूत प्राणतत्त्व को हृदयगत का में पर्याप्त सहायता मिलती है और पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित रस-सिद्धान्त से उसका अविरोध भी रि होता है। इस तरह काव्य ध्वनि का महत्त्व इस रस के समकक्ष सिद्ध होता है।
 
जिस प्रकार भारतीय साहित्यशास्त्र में व्यंग्यप्रधान भाषा को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया, भी प्रकार पश्चिम में भी (इमोमिलन लैंगुएज) को बहुत महत्त्व मिला। जिस प्रकार ध्वनिवादियों ने प्रतीयमान अर्थ को ही काव्य का शोभादायक तत्त्व सिद्ध किया। उसी प्रकार कतिपय पाश्चात्य विचारकों ने भी इक्स्ट्रामीनिंग (अतिरिक्त अर्थ) को काफी महत्त्व दिया। इस प्रकार प्राच्य और पाश्चात्य दोनों दृष्टियों से काव्य में ध्वनि की महत्ता सर्वसिद्ध है। 

शब्द की तीन शक्तियाँ होती हैं- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना । व्यंजना से ध्वनित अर्थ को व्यंग्यार्थ कहते हैं और उसी को ध्वनि कहते हैं। इस तरह ध्वनि काव्य की श्रेष्ठता का आशय है व्यंग्य काव्य को श्रेष्ठ सिद्ध करना। इसके विपरीत ऐसे आचार्य भी हैं, जो अभिधा को उत्तम काव्य मानते हैं। आधुनिक काल के श्रेष्ठ समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी अभिधा को उत्तम काव्य स्वीकार किया है, किन्तु उनके उदाहरणों में सन्दर्भ वाच्यार्थ के साथ व्यंग्यार्थ भी सम्मिलित है। वास्तविकता यह है कि वाच्यार्थ में व्यंजना के मेल के बिना उत्तम काव्य की सृष्टि हो ही नहीं सकती।

ध्वनि सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है जो काव्य को रसपूर्ण, अर्थपूर्ण, सौंदर्यपूर्ण और बहुस्तरीय बनाता है। यह सिद्धान्त काव्य की सच्ची आत्मा को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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