कुमार स्वामी की सौंदर्य की अवधारणा कुमार स्वामी ने आरम्भ में भारतीय कला के इतिहास पर लेखन आरम्भ किया था। धीरे-धीरे वे दर्शन की ओर आकर्षित हो गये। इसस
कुमार स्वामी की सौंदर्य की अवधारणा
कुमार स्वामी ने आरम्भ में भारतीय कला के इतिहास पर लेखन आरम्भ किया था। धीरे-धीरे वे दर्शन की ओर आकर्षित हो गये। इससे उनके कला-दर्शन का विकास हो गया। उनके सिद्धान्त भारत, चीन, ईरान, अरब, यूनान तथा रोमन सभ्यताओं एवं हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई आदि की मध्यकालीन धार्मिक परम्पराओं पर आधारित हैं। उन्होंने कोई आदर्श सिद्धान्तों की स्थापना नहीं की जो या तो लोगों की समझ में न आयें या फिर जीवन से कटे हुए हों। उनके लिये दर्शन जीवन का ही एक अंग था। वास्तविक दैनिक जीवन से सम्बन्धित सार्वभौम सत्य को भारतीय दृष्टि से उन्होंने जिस प्रकार देखा था उसी से उनके कला-सिद्धान्त निःसृत हुए थे।
सौन्दर्य की अवधारणा
सृष्टि के पदार्थों को प्रायः दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है। सुन्दर और असुन्दर, फिर भी उनका कोई सर्वमान्य वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। प्लेटो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार ही सुन्दर वस्तुओं में से किसी को प्रिय समझता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सौन्दर्य का आदर्श अलग होता है। किन्तु इसका यह आशय नहीं कि कि दूसरों के आदर्श अच्छे नहीं होते और अपना आदर्श ही सर्वश्रेष्ठ होता है। कला में भी यही बात है। विभिन्न कलाकारों के अनेक आदर्श रहे हैं। कलाकारों के समान दर्शक भी विभिन्न रुचियों के होते हैं। इसका कारण वास्तव में रुचि की सापेक्षता है।
फिर भी दार्शनिक कहते हैं कि चरम सौन्दर्य की स्थिति है, उसी प्रकार जैसे कि लोग चरम सत्य अथवा कल्याण की स्थिति स्वीकारते हैं। इनसे ईश्वर का सम्बन्ध माना गया है और कहा गया है कि ईश्वर को केवल चरम सौन्दर्य, प्रेम अथवा सत्य के रूप में ही ज्ञात किया जा सकता है। यह भी स्वीकार किया जाता है कि सच्चा रसिक (सौन्दर्य प्रेमी) सरस एवं रसहीन कृति में अन्तर कर सकता है। इस विरोधाभास को कैसे दूर किया जा सकता है ? किसी वस्तु को सुन्दर कहने से हमारा आशय यही होता है कि वह हममें सुख देती है, अच्छी लगती है। पर यदि हम किसी कलाकृति को सुन्दर कहते हैं तो या तो उसे हम मन से चाहते हैं या उसके विषय और क्रिया-व्यापार का समर्थन करते हैं या उसके रंग, ध्वनि आदि की मिठास और आकर्षण के कारण वह वस्तु हमें अच्छी लगती है। वास्तव में रसयुक्त कलाकृति को सुन्दर अथवा रसवन्त और अच्छी लगने वाली को प्रिय कहना चाहिये। किसी कलाकृति के पीछे निम्न चार स्थितियाँ होती हैं-
(अ) कलाकार का सौन्दर्य-सम्बन्धी सम्प्रदाय ।
(ब) इस सम्प्रदाय के आधार पर बनी कृति ।
(स) कलाकार की भाषा, संकेत तथा प्रतीक ।
(द) रसिकों की प्रतिक्रिया ।
इस प्रकार कलाकृति का सौन्दर्य मुख्यतः कलाकार से ही सम्बन्धित रहता है। सौन्दर्य को मापा नहीं जा सकता क्योंकि कलाकार से पृथक् उसकी कोई सत्ता नहीं है। रसिक भी कलाकार के अनुभव की कल्पना करता है। कला का अनुभव एक सम्पूर्ण अनुभव है। कला में वही सुन्दर है जिसमें विषय और व्यंजना-विधि में संगतिपूर्ण सम्बन्ध दिखाई दे; रूप तथा प्रतिपाद्य की एकता हो। जैसे भक्त के हृदय में भक्ति का उदय अपने में स्वतः होता है वैसे ही सौन्दर्य दृष्टि भी सहज और स्वतः स्फूर्त होती है। यह किसी एक व्यक्ति में दूसरे के द्वारा उत्पन्न नहीं की जा सकती। जो दर्शक कलाकृति का प्रभाव ग्रहण करने तथा कल्पना करने में असमर्थ है उसे रस (सौन्दर्य) की अनुभूति हो ही नहीं सकती। रसास्वादन की प्रतिभा कुछ ईश्वर प्रदत्त और कुछ संस्कार-वर्धित होती है। इस प्रकार कलाकार और दर्शक दोनों के लिये ही प्रतिभा की आवश्यकता सौन्दर्यानुभव के लिए अनिवार्य मानी गयी है। कलाकृति में किया हुआ तकनीकी परिश्रम ही केवल रस का कारण नहीं है, उसमें रसिक की स्वयं की अनुभूति का भी योग रहता है।
रस का आस्वादन
रस का आस्वादन ब्रह्मानन्द के समान और इस लोक से परे है। इसीलिये यह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। सौन्दर्यबोध अलौकिक होता है। इस प्रकार धर्म और कला एक ही अनुभव के दो नाम हैं। जैसे प्रेम की सत्यता को प्रेमी ही अनुभव करता है, जैसे सत्य के अस्तित्व को दार्शनिक ही अनुभव कर सकता है, उसी प्रकार सौन्दर्य की यथार्थता को कलाकार ही अनुभव कर सकता है। ये तीनों एक ही ईश्वर के तीन रूप हैं। किन्तु कलाकार अपनी कृतियों द्वारा ही अपने अनुभव को प्रेषित करता है और उसी के अनुसार विषय का चयन करता है वह उस सत्य को छोटे और बड़े, जड़ और चेतन, अच्छे और बुरे सभी में देखता है। किसी भी प्रकार की उपासना में एक निश्चित आधार अथवा रूप आवश्यक है। वैराग्य में हमारा कल्याण नहीं है, बल्कि इसमें है कि हम संसार की प्रत्येक वस्तु में उस असीम के सौन्दर्य को देखें ।
भारतीय कलाकृति स्वर्ग की कामधेनु के समान है जिसमें से दर्शक अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विषयवस्तु ग्रहण करते हैं। अतः भारतीय कला को देखने के लिए हमें ज्ञान, पवित्रता, तकनीक, अनुभूति और सरलता की दृष्टि रखना चाहिये जिसमें पण्डित, भक्त, रसिक, आचार्य और अल्पबुद्धि-जन सभी के गुणों का समन्वय हो ।
कला से जो आनन्द प्राप्त होता है वह दैनिक आनन्द और नैतिक आनन्द दोनों से हटकर होता है। वह कला के अपने गुणों जैसे छन्द, वर्ण-योजना, स्वर-विधान आदि का आनन्द होता है। स्पष्ट रूप से यह कला के भौतिक गुणों का आनन्द है। कलाकृति की कथावस्तु यदि नैतिक हो तो हमें उसमें नैतिक आनन्द प्राप्त हो सकता है। किन्तु रसानुभव इन दोनों से अलग है। यह कृति के पीछे छिपे सत्य और कृति के बाह्य रूप के समन्वय से अनुभूत होता है।
वास्तविक कला सार्थक और प्रतीकात्मक प्रस्तुति में है, उन वस्तुओं की प्रस्तुति में जिन्हें हम केवल प्रज्ञाचक्षुओं से ही देख सकते हैं। हमारा सौन्दर्यबोध तर्क की अपेक्षा सहज अभिव्यक्ति चाहता है। कलाकार किसी भी प्रकार की सामग्री के उपयोग से स्वतन्त्रतापूर्वक कोई भी कलाकृति बना सकता है, पर कलाकार की कोई न कोई प्रतिबद्धता भी अवश्य होनी चाहिये। जब यह कहा जाता है कि एक सज्जन की पहचान यह है कि वह निरूपयोगी किन्तु सुन्दर वस्तुओं से घिरा रहता है तो इसका आशय यह नहीं है कि किसी समाज में लोग निरूपयोगी वस्तुएँ ही तैयार करते हैं। इस दृष्टि से हमें मुक्त अथवा स्वतन्त्र का वास्तविक अर्थ भी समझना चाहिये। इसका आशय यही है कि कलाकार जिसे अच्छा समझता है उसी कार्य को करता है और उससे उसे प्रसन्नता होती है अतः वह उसे अच्छे से अच्छा रूप देने का प्रयत्न करता है। वह अपनी कृति को पूर्णता प्रदान करता है, उसे अपूर्ण नहीं छोड़ता।
कला का उद्देश्य
सौन्दर्यबोध हमारे यथार्थ जीवन से जुड़ा होता है। रसानुभव को उदासीनता का अनुभव कहना शाब्दिक विरोधाभास है। कला एक मानसिक गुण है, शारीरिक नहीं। सौन्दर्य का सम्बन्ध ज्ञान और शिव से है और सुन्दरता इसका केवल आकर्षक पक्ष मात्र है। हम सौन्दर्य के कारण ही किसी कृति की ओर आकर्षित होते हैं अतः यह कला का पूर्ण लक्ष्य न होकर साधन मात्र है। कला का उद्देश्य सदैव प्रभावशाली सम्प्रेषण रहा है। इसके निर्णय का आधार भी यही है कि कलाकार कृति की विषयवस्तु को स्पष्ट अभिव्यक्ति देने में कितना सफल हुआ है। कला में जो रूप होता है वह भाव को ही आकार प्रदान करता है। भाव को आकार देने में कलाकार सामग्री को ढालने में जो कुशलता दिखाई देती है उसी पर उसकी अभिव्यक्ति की सफलता निर्भर करती है। कृति स्वयं कला नहीं है, वह कला के द्वारा निर्मित है। कृति के रूप का विशिष्टीकरण ही उसका अलंकार है। आदिम कला में तो अलंकारों के पीछे भावना रहती थी। कृति के निर्माण के पीछे आन्तरिक प्रेरणा रहती है, सामग्री की प्रेरणा नहीं। इसे अति-प्राकृत दैवी प्रभाव भी माना गया है। कला में प्रकृति की अनुकृति का आशय उसके बाह्य रूपों की अनुकृति न होकर वस्तुओं के स्वभाव की अनुकृति है। कलाकृतियों का प्रदर्शन इसी लक्ष्य से किया जाता है, दर्शकों को केवल सौन्दर्यानुभव कराने के लिये नहीं।
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