‘लोकवादी तुलसीदास’ पाठकों को तुलसी संबंधी पूर्वाग्रह से बाहर निकालने का एक सफ़ल कार्य करती है. यह एक पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है. वरिष्ठ आलोचक विश्वन
लोकवादी तुलसीदास
हम इस बात से बहुत अच्छी तरह वाक़िफ हैं कि तारीख़ उस अदीब या मुसन्निफ़ को हमेशा याद रखती है, जो अपने ‘समय’, ‘समाज’, ‘देश’ और ‘काल’ के सच को सच की तरह बड़ी ही सजगता-सतर्कता से लिखता-बुनता है. ‘लोककंठ’, ‘लोकचित्त’ और ‘लोकहृदय’ में गहरे रचे-बसे, आठों पहर राम के रहे और राम नाम की महिमा का गुणगान लोकभाषा में करने वाले ‘तुलसीदास’ मध्यकाल(भक्तिकाल) के एक ऐसे ही अज़ीम दानिशवर अदीब या भक्त कवि हैं.
हिन्दी के विभिन्न साहित्यालोचकों-विद्वानों ने, मसलन—‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’, ‘रामविलास शर्मा’ तथा ‘उदयभानु सिंह’ आदि ने तुलसीदास, उनकी कविता और उनके युग को अपने तर विभिन्न दृष्टिकोण से समझने-समझाने का प्रयास किया है. इस संदर्भ में क्रमश: ‘त्रिवेणी’, ‘गोस्वामी तुलसीदास और मध्यकालीन भारत’, ‘भारतीय सौन्दर्यबोध और तुलसीदास’, ‘तुलसी साहित्य के सामंत विरोधी मूल्य’, एवं ‘तुलसी’ नामक पुस्तकों-निबंधों को बानगी के तौर पर देखा जा सकता है. बहरहाल.
इस सब के अलावा तुलसीदास और उनकी कविता पर हमारे समय के महत्वपूर्ण आलोचक ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ की पुस्तक ‘लोकवादी तुलसीदास’ जो कि राधाकृष्ण प्रकाशन से शाया हुई है, एक नए ‘ढंग’ और ‘कहन’ से विचार-विमर्श करती है. विश्वनाथ त्रिपाठी आधुनिक हिन्दी आलोचना जगत में एक ऐसा नाम हैं जिनके अभाव में ‘आलोचना’ और ‘तुलसीदास’ पर बात करना बेईमानी-सा लगता है—गोया विश्वनाथ त्रिपाठी और तुलसीदास एक दूसरे के पर्याय हों.
विश्वनाथ त्रिपाठी के कहे-लिखे की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जिसमें ‘लोकवादी तुलसीदास’ एक ऐसी क़िताब है जिसके कारण उन्हें अदब की दुनिया में एक लंबे समय तक याद किया जाएगा. ऐसा कहने और मानने के पीछे कई कारण हैं. ‘लोककंठ’, ‘लोकचित्त’ और ‘लोकहृदय’ में बहुत गहरे रचे-बसे कवि ‘तुलसीदास’ और उनकी कविता को विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने समय और समाज के आईने में, उत्तरभारत की जनता की आशा-आकांक्षा और उसकी संस्कृति के आईने में देखने का प्रशंसा-भरा काम किया है. यदि कहा जाए की आज जब तुलसीदास चहुँ और से घिरे हुए नज़र आते हैं ऐसे में विश्वनाथ त्रिपाठी’ की यह पुस्तक एक रौशनी बनकर उभरती है तो ग़लत न होगा.
इस क़िताब के आरंभ में, भूमिका के बाद दो पत्र दिए गए हैं. पहला पत्र हिन्दी के मानवतावादी आलोचक कहे जाने वाले ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी’ का है और दूसरा पत्र हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, हंस के यशस्वी संपादक ‘राजेन्द्र यादव’ का है. जो पुस्तक को पढ़ने हेतु पाठकों में जिज्ञासा पैदा करने का महत्वपूर्ण काम करते हैं. मात्र १५८ पृष्ठ की इस क़िताब को लेखक ने चार भागों में विभक्त किया है—‘तुलसी के राम’, ‘तुलसी का देश’, ‘कलियुग और रामराज्य’, ‘तुलसी की कबिताई’. यह पुस्तक उन सभी मुद्दों पर विस्तार से बात करती है जो अब तक ओझल थे. तुलसीदास पर लिखी गई अपने तरीक़े की यह एकमात्र ऐसी क़िताब है जो तुलसीदास संबंधी कई भ्रांतियों को तोड़ने का काम करती है.
तुलसी काव्य के मर्मज्ञ ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ मांग कर खाने और मस्जिद में सोने वाले “मांगि कै खैबो, मसीत को सोइबो”, हमेशा मशकूक निगाहों से देखे-पढ़े जाने वाले अदीब तुलसीदास को ‘मानवीय करुणा’ का अन्यतम, अद्वितीय, अप्रतिम कवि मानते हुए ‘लोकवादी तुलसीदास’ के चौथे और अंतिम अध्याय में लिखते हैं कि“तुलसी का काव्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे प्रामाणिक संदर्भ-कोश है. उसमें तुलसी द्वारा देखा और समझा हुआ भारत मौजूद है. इसमें उसकी विषमताएं, अच्छाइयां-बुराइयां, सुख-दुःख भी हैं और उसकी आशा-आकांशा भी मौजूद है.” विश्वनाथ त्रिपाठी आगे लिखते हैं...“जिस जीवन को तुलसी ने शब्दों में बांधकर चित्रित किया है वह इतना विविध और पूर्ण हैं कि उनका काव्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे प्रामाणिक जीवंत विश्वकोश बन गया है. उनकी कविताएँ सामान्य लोगों को इतनी याद हैं कि वे हिन्दी भाषा का मुहावरा बन गई हैं. हिन्दी के बीस करोड़ भाषियों में (संख्या आज बीस करोड़ से ज़्यादा है) शायद ही ऐसा कोई हो जिसके बोलने या लिखने में तुलसी की कोई पंक्ति या कोई टुकड़ा न शामिल हो जाता हो. तुलसी से अधिक लोकप्रिय कवि की कल्पना दुष्कर है.” विश्वनाथ त्रिपाठी के इस कथन से इत्तेफाक़ रखते हुए सहज ही यह माना और कहा जा सकता है कि तुलसीदास वास्तव में मध्यकाल के एक ऐसे ‘निराले’ और ‘अनूठे’ कवि हैं जो लोक के कंठ-कंठ में व्याप्त हैं. पगडंडी पर चलते राहगीर, खेत में काम करते मज़दूर-किसान आदि के कंठ से तुलसी के मानस की किसी चौपाई का दफ़अतन स्वरों में बंधकर फूट पड़ना कोई आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है. यह बड़ा दिलचस्प है कि विश्व में सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवियों में शुमार तुलसीदास अपने काव्य में लोक के ‘मुहावरों’, ‘कहावतों’, ‘रीति-रिवाजों’, ‘दुःख-दर्द’ और ‘आशा-आकांक्षा’ को नहीं भूलते. यदि यह कहा जाए की तुलसीदास लोक में विराजमान हैं और लोक तुलसीदास में तो कहना गलत न होगा. तुलसी का काव्य भक्तिकाल का ऐसा साहित्य है जिसे उत्तर-भारत की संस्कृति का बाब कहा जा सकता है. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा बड़े ही मनोयोग से लिखी गई ‘लोकवादी तुलसीदास’ शीर्षक यह पुस्तक इन सभी बातों का विस्तार से वर्णन करती है—दीदावर चाहिए.
कई लोगों को यह भ्रांति हो सकती है की लेखक ने सिर्फ़ और सिर्फ़ तुलसीदास का स्तुति-गान किया है. बल्कि, ऐसा नहीं है. विश्वनाथ त्रिपाठी ने तुलसी के उन पक्षों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है जो उन्हें—वर्ण व्यवस्था के क़रीब लाते हैं. ‘तुलसी की कबिताई’ का विश्लेष्ण करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है—“तुलसी वर्ण-व्यवस्था के कट्टर समर्थक कवि हैं. उनका यह रूप निहायत अनुदार है. वह शूद्रों के प्रति वह विचार नहीं अपना सकते थे, जैसा कि कबीर आदि निर्गुण संतों ने अपनाया है.” विश्वनाथ त्रिपाठी आगे लिखते हैं—“उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का जो समर्थन किया है, वह उनके चिन्तन की बहुत बड़ी कमज़ोरी है. लेकिन उनके काव्य का अधिकाँश अमर और लोकमंगलकारी है.’’ साथ ही इस पुस्तक का जो शीर्षक है ‘लोकवादी तुलसीदास’ वह कुछ जमता नहीं या यूं कहें तो बेहतर होगा कि गले नहीं उतरता वह इसलिए क्योंकि, हम इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं की मध्यकाल का कोई भी कवि ‘वादी’ नहीं है. बात करें तुलसीदास की तो उन्हें ‘लोकवादी’ नहीं बल्कि, ‘लोक-मर्मज्ञ’ ‘लोक-ज्ञाता’ कहना ज़्यादा उचित रहेगा जिसकी ओर प्रतिष्ठित आलोचक ‘आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी’ भी इशारा करते हैं. बहरहाल.
तुलसीदास की एक बहुत ही विवादित चौपाई ‘ढोल गंवार सूद्र पसु नारी. सकल ताड़ना के अधिकारी’ को सुन-सुनकर हम हमेशा से उनको खलनायक बनाने पर आमादा रहे हैं, आज भी बार-बार विभिन्न मंचों से उनकी फ़ज़ीहत करते हैं. या यूं कहा जाए तो ज़्यादा अच्छा होगा कि तुलसीदास के काव्य के नाम पर सिर्फ़ इसी एक चौपाई तक महदूद रहने वाले हम यह मान लेते हैं, बस यही तुलसी की कविता का जैसे सार है. इससे आगे कुछ और नहीं. शायद वह यह भूल जाते हैं की तुलसीदास ने अपनी कविता में अपने समय के सच को लिखा है. जो किसान है उनके पास खेती नहीं है, भिखारी को कोई भीख नहीं देता, वणिक या व्यापारी का व्यापार बंद है और चाकर को चाकरी नहीं मिलती—‘खेती न किसानको, भिखारीको न भीख, बलि/बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी’’. वह यह भूल जाते हैं कि तुलसी वही कवि हैं जो कहते हैं ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी. सो नृप अबसी नरक अधिकारी’ अर्थात जिस राजा के राज्य में प्रिय प्रजा दु:खी है, वह अवश्य ही नरक का अधिकारी है. और जो कहते हैं—‘बेधर्म दूरि गए, भूमिचोर भूप गए’ अर्थात कराल कलिकाल में राजा भूमि-चोर हो गए हैं, वे प्रजा की भूमि हड़प लेते हैं. मध्यकाल में तुलसी ही वह कवि हैं जो कहते हैं—‘जद्यपि जग दारुन दुःख नाना/सब तें कठिन जाति अवमाना.’ अर्थात यद्यपि संसार में अनेक प्रकार के दारुन दुःख हैं लेकिन सबसे बड़ा दुःख जाति का दुःख है, जाति-अपमान सबसे बड़ा दुःख है.
अत: आज ज़रूरत है दिलों से मैल निकालकर इस कठिन दौर में तुलसी के पास जाने की और समग्रता में ‘अमृत-सरोवर’ जैसे उनके काव्य को पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने की. इस संदर्भ में ‘लोकवादी तुलसीदास’ एक रास्ता हो सकती है तुलसीदास के कवि-कर्म और उनकी कविता के मर्म को समग्रता में समझने का.
‘लोकवादी तुलसीदास’ पाठकों को तुलसी संबंधी पूर्वाग्रह से बाहर निकालने का एक सफ़ल कार्य करती है. यह एक पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है. वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने जिस ‘कहन’ और ‘आलोचनात्मक ढंग’ से इस पुस्तक को रचा-बुना है इसके लिए वह अवश्य ही हृदय से प्रशंसा और बधाई के पात्र हैं.
आमिर विद्यार्थी, शोधार्थी भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ११००६७. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख और रिपोर्ट प्रकाशित.
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