मनोविश्लेषणवाद सिद्धांत का अर्थ स्वरूप और विशेषताएं मनोविश्लेषणवाद, जिसे साइकोएनालिसिस भी कहा जाता है, सिग्मंड फ्रायड द्वारा विकसित एक मनोवैज्ञानिक सि
मनोविश्लेषणवाद सिद्धांत का अर्थ स्वरूप और विशेषताएं
जब आलोचक किसी रचना का मूल्यांकन करते समय उसके मूल उत्स एवं उनकी रचना प्रक्रिया का अध्ययन करता है तब वह रचयिता के अन्तर्गत एवं उसकी सूक्ष्मतः स्थितियों का भी विश्लेषण करता है और प्रत्येक कलाकृति के सृजन हेतु रचियता के बाह्य चेतन से अधिक उसका अन्तश्चेतन उत्तरदायी है। इस प्रकार रचयिता के इस अन्तश्चेतन-कला सर्जन के क्षण विशेष—का अध्ययन विश्लेषण मनोविज्ञान के अन्तर्गत आता है और आलोचना जगत् में मनोविज्ञान का प्रयोग उतना ही प्राचीन है, जितना की साहित्य परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में मनोविज्ञान का प्रयोग उतना ही प्राचीन है, जितना की साहित्य परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में ही साहित्य विवेचन के लिए मनोविज्ञान का अधिक प्रयोग प्रारम्भ हुआ और कुछ विचारकों ने सौन्दर्यशास्त्र की समस्याओं का समाधान मनोविज्ञान की प्रयोगशाला में खोजने का प्रयत्न किया, लेकिन साहित्यालोचन के क्षेत्र में इस प्रकार का प्रायोगिक मनोविज्ञान अधिक सफल नहीं हो सका ।
सत्य तो यह है कि बीसवीं शती का आलोचना साहित्य मनोविज्ञान से विशेष रूप से प्रभावित हुआ और यह प्रभाव प्रायोगिक मनोविज्ञान न होकर फ्रायड, यंग एवं एडलर आदि मनोविश्लेषणवादी आचार्यों का ही प्रभाव माना जाता है। इतना ही नहीं फ्रायड तो आज भी किसी न किसी रूप में आलोचना शास्त्र को प्रभावित कर रहा है और उसे 'मनोविश्लेषणवादी आलोचना का आचार्य' भी कहा जाता है। अत: यहाँ उनकी . विचारधारा का विस्तृत परिचय देना आवश्यक हो जाता है ।
फ्रायड का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण
वस्तुतः डॉ. फ्रायड सिग्मंड मनोविश्लेषणवाद का जन्मदाता माना जाता है और उससे प्रभावित होकर कई पाश्चात्य आलोचकों ने न केवल शेक्सपीयर की कृतियों का मनोविश्लेषणात्मक विधि से मूल्यांकन किया है अपितु पाश्चात्य साहित्य के विभिन्न युगों का भी इसी मनोविश्लेषणवाद की पृष्ठभूमि में विशेषण किया हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व साहित्यालोचन की इस पद्धति के लिए निर्विवाद रूप से फ्रायड का ऋणी है और विचारक यही कहते हैं। फ्रायड आलोचना के क्षेत्र में व्यक्तिवाद के जनक हैं, किन्तु उनका व्यक्तिवाद के व्यक्ति संकीर्ण मनोविकारों से- किन्हीं वैयक्तिक राग-द्वेष से, लोभ-क्षोभ आदि से ग्रस्त न होकर उन गुह्य ग्रंथियों के उद्घाटन से अभिनिर्मित है। इन गुह्य ग्रंथियों की उसके व्यक्तित्व के संगठन में उसके चेतन के निर्माण में एक महती भूमिका रहती है, जो उसके बहिर्चेतन के लिए उत्तरदायी है। व्यक्ति में अवचेतन मन की यह महती शक्ति सम्पूर्ण चेतन जगत् को निर्मित करती रहती है। फ्रायड ने अवचेतन मन के विश्लेषण द्वारा साहित्य, संस्कृति, धर्म आदि की नयी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए अपने युग में व्याप्त झूठी, नैतिकता, आडम्बरपूर्ण आदर्शों को थोथे, निस्सार और मिथ्या साबित कर मनोविश्लेषणशास्त्र की आधार शिला रखी।
फ्रायड मूलतः डॉक्टर था और उसका प्रारम्भिक शिक्षण रसायनशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र एवं शरीर विज्ञान से हुआ था। उसने मस्तिष्क के रूप में अपना व्यवसाय आरम्भ किया। अपने इस व्यवसाय में उसने यह अनुभव किया कि अपस्मार के रोगी को यदि सम्मोहित कर उसे जीवन की पूर्व घटनाएँ याद दिलायी जायें तो उनका रोग दूर हो जाता है और फ्रायड ने पेरिस जाकर मस्तिष्क चिकित्सा के ज्ञान को बढ़ाया। रोगियों के अन्तश्चेतन को समझने की पद्धति और उनकी उपचार प्रक्रिया का सूक्ष्म अध्ययन कर फ्रायड इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि मस्तिष्क के विकारग्रस्त होने का मूल कारण यौन लिप्साएँ एवं समाज द्वारा उनकी वर्जनाएँ ही हैं, क्योंकि रोकने पर यौन लिप्साएँ समाप्त नहीं हो जातीं, बल्कि कुण्ठित होकर मनुष्य के अन्तश्चेतन में गहराई में प्रविष्ट हो जाती हैं और अनेक प्रकार के विकारों जन्म देती हैं। इस प्रकार फ्रायड का विचार है कि सभ्यता एवं संस्कृति की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ मनुष्य की काम-प्रवृत्ति की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं और मानव-जीवन में कुछ भी मूल्यवान या धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य वास्तव में काव्य-प्रवृत्ति के हाथों की कठपुतली मात्र है।
फ्रायड के अनुसार मानस मन चेतन एवं अवचेतन नामक दो छोरों के मध्य फैला हुआ है और इन दो छोरों के मध्य जो सुदीर्घ अन्धकारमय प्रदेश हैं उसका ज्ञान मनुष्य की चेतना को नहीं होता तथा इस मध्यवर्ती अन्धकारमय प्रदेश को फ्रायड 'अचेतन' की संज्ञा प्रदान करता है इस तीन स्तरों वाले मानव को वह स्थूल दृष्टि से पुनः तीन प्रवृत्तियों में विभाजित करता है और मनुष्य के सम्पूर्ण मानसिक जीवन को इदम्, अहम् एवं परम् नामक तीन सोपानों में विभक्त मानता है। इनमें से 'इदम्' में व्यक्ति की 'आनुवंशिकता' जन्मजात गुण एवं शारीरिक लक्षणों के मूल उत्स रहते हैं और यह मन के अवचेतन स्तर पर रहने से व्यक्ति को अपरिचित ही रहता है लेकिन इसे व्यक्ति की अतृप्त इच्छाओं और वासनाओं का अंधकारमय कोष समझना चाहिए, क्योंकि यहीं से काम-शक्ति की प्रेरणा उत्कृष्ट होती है।
इस काम-शक्ति को फ्रायड ने 'लिविडो' कहा है और उसका विचार है, कि व्यक्ति जब बाह्य परिवेश के सम्पर्क में आता है तब उसे अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं और इन्हीं अनुभवों के आधार पर उसके अहम् का निर्माण होता है। यह अहम् एक ओर तो व्यक्ति आचार-विचार के नियम प्रदान करता है और दूसरी ओर अचेतन मन की अवांछित इच्छाओं का नियमन भी करता है। इसी प्रकार परम् अहम् व्यक्ति द्वारा अर्जित नैतिक अभिरुचियों, आदर्शों एवं मूल्यों से सम्बन्धित होता है तथा इदम् व्यक्ति की अवांछनीय कामनाओं की पूर्ति का आग्रह लेकर उपस्थित होता है तथा दोनों के मध्य व्यक्ति की मानसिक चेतना आलोड़ित होती रहती है। इतना अवश्य है कि इन दोनों के मध्य अहम् समन्वय स्थापना का कार्य करता है और उसके मध्य छिड़े हुए संघर्ष को सुलझाकर व्यक्ति का जीवन सुखी बनाता है ।
फ्रायड मन की दो प्रमुख वृत्तियाँ मानता है— (1) इरास या कामवृत्ति, और (2) डेथ इंस्टिक्ट या मृत्युवृत्ति । लिबिडो अर्थात् काम-शक्ति मन की इरास या काम वृत्ति से सम्बन्धित है और उसका सम्बन्ध व्यक्ति की कामुकता से होता है। साथ ही फ्रायड ने मृत्युवृत्ति को आत्महनन, ईर्ष्या एवं द्वेष की प्रवृत्तियों का संपुजन माना है और उसका कहना है कि जिस भी व्यक्ति में मृत्युवृत्ति प्रधान रहती है उसका जीवन अशान्त होता है, परन्तु कामवृत्ति अपने परिष्कृत रूप में मानव सभ्यता और संस्कृति का नियमन करती है। उस कामवृत्ति या लिविडो के विकास की तीन स्थितियाँ मानी गयी हैं और इनमें से स्वकाम या नारसीसिज्म वह पहली स्थिति है, जिसमें व्यक्ति स्वयं से प्रेम करता है। द्वितीय स्थिति को मातृरति एवं पितृरति कहा गया है और इसमें पुत्र अपनी माता से तथा पुत्री अपने पिता से प्रेम करती है। इसके पश्चात् विजातीय रति की स्थिति आती है जब युवावस्था के आरम्भ में स्त्री और पुरुष परस्पर एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं ।
फ्रायड का कहना है कि हम मन के जिस अंश को स्पष्ट रूप से जानते हैं वह सम्पूर्ण मन का बहुत बड़ा भाग होता है और शेष मन अज्ञात, रहस्यमय, अभेद्य एवं अचेतन बना रहता है तथा इन दोनों के मध्य एक ऐसा स्तर होता है जिनकी धुंधली-सी अनुभूति हमें उसी प्रकार होती है जिस प्रकार जल में डूबे हिम खण्ड का कुछ भाग हमें दिखाई देता है। इसे अर्द्धचेतन मन कहा जाता है और इसके माध्यम से अचेतन मन की इच्छाएँ चेतन मन में आने का प्रयत्न करती हैं तथा वे केवल अवचेतन तक ही आ पाती है। जब निद्रा के समय चेतन मन निष्क्रिय हो जाता है तब अचेतन मन की भूमिका पर ये इच्छाएँ स्वप्नों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करती हैं। वास्तव में अचेतन मन अविवेकशील एवं दलित इच्छाओं का शक्तिशाली पुँज है पर जब इदम् की अनेक कामनाएँ असामाजिक होने के कारण पूर्ण नहीं हो पातीं जब वे अचेतन की ओर मुड़ जाती हैं और अन्य दमित इच्छाओं के साथ मिलकर एक मण्डल बनाने लगती है।
फ्रायड के अनुसार चेतन अचेतन मन में लगातार संघर्ष होता रहता है तथा दोनों मन दो विरोधी द्वन्द्वात्मक स्थितियों तथा प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं इस प्रकार जब चेतना के धरातल पर अचेतन मन की इच्छाएँ आना चाहती हैं, तब उन्हें रोकने के लिए व्यक्ति मन 'निषेध' या 'सेंसर' की प्रक्रिया की अवतारणा करता है और इस प्रक्रिया द्वारा चेतन मन व्यक्ति की असामाजिक इच्छाओं का दमन करता है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि चेतन के धरातल पर अचेतन की सभी इच्छाएँ उपस्थित नहीं हो पातीं, क्योंकि कभी-कभी कुछ इच्छाएँ प्रवेश करने में सफल रहती हैं, पर हमेशा ऐसा नहीं होता। अतएव कभी-कभी निषेध इच्छाओं का तीव्र रूप से दमन करती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति के मानसिक सन्तुलन जाता रहता है तथा उनके मन में अनेक प्रकार की मानसिक वर्जनाओं और ग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है।
मनोविश्लेषण के उक्त सिद्धान्तों पर ही फ्रायड का साहित्य दर्शन भी आधारित और फ्रायड के अपने कला-चिन्तन में लिविडो या कामशक्ति को कला का मूल उत्स मानते हुए कहा है कि धर्म, अर्थ, साहित्य एवं संस्कृति के मूल में काम-शक्ति की प्रेरणा ही अवस्थित है तथा व्यक्ति की दमित एवं कुण्ठित असामाजिक प्रवृत्तियाँ अपने परिशोधित रूप में कला एवं संस्कृति का निर्माण करती हैं। फ्रायड के विविध कलाएँ भौतिक एवं शारीरिक वर्जनाओं में उत्स्रष्टा होती हैं। इस सम्बन्ध में फ्रायड के विचार इस अनुसार प्रकार व्यक्त करते हैं-“वाद्ययन्त्र वादक संगीतज्ञों की कलाबाजी विकृति आत्मरति का ही परिवर्तित रूप है।"
चित्रकारिता में कुशल कलाकार वे ही लोग होते हैं जो बचपन की आरम्भिक अवस्था में गन्दगी से फर्श और दीवार को लीपने में औरों से अधिक दिलचस्पी लेते रहे हैं और चित्रकारी बच्चों की इस लीपापोती की प्रवृत्ति के बदले हुए रूप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कला सम्बन्धी विविध वस्तुओं और पुस्तकों के संग्राहक वे लोग होते हैं जो वस्तुओं का संग्रह मल संग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। धन संग्रह भी इस कोटि में आता है।
ज्ञान की खोज और वैज्ञानिक आविष्कारों की ओर झुकाव का अर्थ है सेक्स सम्बन्धी गुप्त क्रियाओं को किसी पार्टीशन के घेरे में झाँककर देखना । अध्ययन में बहुत अधिक रखना मन को पेट में रोके सुख पाना है। साहित्य-सर्जना मल त्याग करने की तुष्टि मात्र है।इससे स्पष्ट हो जाता है कि फ्रायड कुण्ठा के उदात्तीकृत स्वरूप को कला का नियामक तत्त्व मानते हैं और उनका कहना है कि साहित्य एवं कला प्रकृति मूल्य सम्पन्न नहीं होतीं, बल्कि वे तो भ्रम हैं और तुच्छ क्षतिपूरक क्रियाएँ हैं। फ्रायड के अनुसार कल्पना प्रवण लेखक की रचना में उसी की वर्जनाएँ काम प्रतीकों के माध्यम से स्वयं की अभिव्यक्ति करती है और कला सृजन वास्तव में काम प्रतीकों का पुनः निर्माण है फ्रायड कला को विशुद्धत एक शारीरिक प्रतिक्रिया मानता है और उसमें नैतिकता या आध्यात्मिकता की खोज करना व्यर्थ है तथा कलाकार की सृजन प्रक्रिया का पूर्णतया विश्लेषण करने के पश्चात् कला के रहस्य को समझा जा सकता है।
फ्रायड का कहना है कि न केवल कविता में बल्कि मनुष्य को प्रत्येक सर्जनात्मक क्रिया में अचेतन की प्रेरणाएँ विद्यमान रहती हैं और कविता का उदय मानसिक व्यापार के रूप में होने के कारण उसकी स्वप्न, दिवास्वप्न एवं अन्य मानसिक व्यापारों से तुलना की जा सकती है। अतएव यदि दिवास्वप्न की प्रक्रिया को समझ लिया जाये तो काव्य की प्रक्रिया के रहस्य को समझा जा सकता है और फ्रायड ने खेलते हुए बालक की क्रिया तथा कविता प्रक्रिया में पर्याप्त समानता भी मानी है। उसका उसका कहना है कि बालक के सदृश कवि भी कल्पना की प्रतियों का निर्माण करता है और उसे गम्भीर भाव से ग्रहण करता है तथा अपनी मानसिक सृष्टि को तीव्र रूप के यथार्थ से पृथक् कर, उसमें अपनी बहुत-सी भावनाएँ सम्मिलित कर देता है।
फ्रायड के अनुसार कलाकार एक ऐसा व्यक्ति होता है जो यथार्थ जीवन से पलायन करता है, क्योंकि यथार्थ उसकी सन्तुष्टि के मार्ग में बाधक बन जाता है। अतएव वह एक ऐसे काल्पनिक जगत् का निर्माण करता है, जिसमें उसकी कामवृत्ति एवं यशलिप्सा तृप्त हो सके परन्तु वह अपने कल्पना-चित्रों के जगत् से पुनः यथार्थ के धरातल की ओर बढ़ता है, वस्तुतः कलाकार में इतनी शक्ति होती है कि वह इन कल्पना चित्रों के द्वारा एक नवीन यथार्थ का निर्माण कर सकता है और अपने कल्पना चित्रों की सार्थकता यथार्थ जीवन के अन्तर्गत कर सकता है। इसी प्रकार फ्रायड ने लेखक की तुलना दिवास्वप्न देखने वाले मनुष्य के साथ कर यह सिद्ध करना चाहा है कि प्रेमाख्यानों एवं उपन्यासों में लेखक अपने अहम् की ही नायक के रूप में प्रतिष्ठा करता है और ऐसे समस्त नायक बहुधा सभी स्त्रियों के प्रेमास्पद रहते हैं पर इसे एक यथार्थ चित्रण न समझ कर दिवास्वप्न मात्र ही समझना चाहिए। फ्रायड का विचार है कि लेखक परिष्करण एवं उदात्तीकरण द्वारा दिवास्वप्न की अहंमूलक प्रवृत्ति को ग्राह्य बना देता है और वर्तमान में अपनी विशिष्ट प्रक्रिया के द्वारा एक ऐसी स्थिति में पहुँचा देता है जहाँ हम विविध स्रोतों से बहुत अधिक आनन्द प्राप्त करते हैं।
फ्रायड कला के उदात्तीकृत रूप को सभ्यता एवं संस्कृति के मूल्यों की एक प्रगतिशील उपलब्धि मानता है और कला एवं स्वप्न की प्रक्रिया को समान बतलाते हुए कहा है कि मुक्त आसंग एवं रागात्मक पौवापर्य स्वप्न की प्रक्रिया को समान बतलाते हुए कहा है कि मुक्त आसंग एवं रागात्मक पौवापर्य स्वप्न की वे प्रक्रियाएँ हैं जिन्हें काव्य की विशिष्ट शैली के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है। वस्तुतः अचेतन पापानुभूति, उसका प्रशासन और समान भूमि पर आधारित उसका भाव विनियोग फ्रायडीय कला सिद्धान्त में प्रमुख तत्व हैं, तथा फ्रायड कला में सम्प्रेषण को महत्त्वपूर्ण मानकर साधारणीकरण की आवश्यकता पर बल देता है। इस प्रकार उसका विचार है कि एकांतिक दिवास्वप्न कला की प्रेषणीयता में बाधक होते हैं और कलाकार को उन्हीं दिवास्वप्नों का विनियोग अपनी रचना में करना चाहिये, जो सभी व्यक्तियों में सामान्य होते हैं।
एडलर और युंग की विचारधारा
वस्तुतः एल्फ्रेड एडलर और कार्ल युंग फ्रायड के ही शिष्य थे तथा बहुत दिनों तक उन्हीं के साथ कार्य करते रहे, परन्तु उनकी सैद्धान्तिक स्थापनाएँ बहुत कुछ अंशों में फ्रायड से भिन्न हैं। यहाँ यह स्मरणीय है कि एडलर वैयक्तिक मनोविज्ञान के जनक के रूप में प्रसिद्ध हैं और उसने फ्रायड से आगे बढ़कर सामाजिक उत्थान के पक्ष पर भी विचार किया है। साथ ही दोनों की मान्यताओं में मौलिक विभिन्नता भी है और जहाँ फ्रायड कामवृत्ति को ही जीवन का मूलप्रेरणा बतलाता है वहाँ एडलर आत्म-प्रकाशन की मूलप्रवृत्ति को जीवनगत व्यवहारों का मूल उत्स स्वीकार करता है। एडलर का कहना है कि जो व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित समझा जाता है वह स्वयं को हीन समझ सकता है और व्यक्ति की जीवन शैली उनकी कामवृत्ति से न नियमित होकर, उसकी विलक्षणताओं से नियमित होती है। एडलर के कथानुसार जीवन में तीन समस्याएँ प्रमुख होती हैं-समाज विषयक, रोजगार विषयक तथा काम और विवाह विषयक। इन तीनों समस्याओं में से किसी एक समस्या में असफल होने पर व्यक्ति जीवन से पलायन करना चाहता है और मानसिक रूप से, रुग्ण भी हो जाता है पर उसकी इस रुग्णता का कारण कामवासना का दमन नहीं होता। वह तो वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रेरणाओं के असामंजस्य से पीड़ित होकर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये उत्सुक हो उठता है-
"When a man of literary talent presents his play or relates what we take to his personal day dream we experience great pleasure arising probably from many sources. How the writer accomplishes this is his innermost secret."
एडलर साहित्य
चिन्तन के सम्बन्ध में भी फ्रायड से भिन्न दृष्टिकोण रखता है और वह फ्रायड के इस विचार को नहीं मानता कि सम्पूर्ण मनःसृष्टियों का सुनिश्चित प्रयोजन अतृप्त कामनाओं की काल्पनिक परितृप्ति है। एडलर के मतानुसार व्यक्ति की मनःसृष्टि उसकी जीवन शैली के अनुरूप होती है और उस स्थायी उद्देश्य का निर्देश करती है जिसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य के सभी कार्य-कलाप प्रवर्तित होते हैं। एडलर की दृष्टि में साहित्य एवं कला हीन भावना की क्षतिपूर्ति के साधन है और कलाकार इनके माध्यम से दूसरों के हृदय पर अपना अधिकार स्थापित करता है तथा हीनता की भावना के निराकरण से और महता की स्थापना से अपने लड़खड़ाते विश्वास की एक नवीन आस्था से पुनर्प्राप्ति करता है। साथ ही एडलर कला के अन्तर्गत तादात्म्य एवं भावाविनियोग की आवश्यकता को चितरंजन मानता है और व्यक्ति के मन में हीनता की भावनाओं का निवास स्वीकार करते हुए भी यह मत प्रकट करता है कि सामाजिक जीवन की आवश्यकताएँ मानव-प्रेम और विश्व बन्धुत्व की भावनाओं का उद्गीकरण भी करती हैं।
सामान्यतया मनोविश्लेषणवादी साहित्यशास्त्र में युंग की कलाविषयक मान्यताओं का एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि युंग के फ्रायड के सदृश न तो मानसिक चेतना को कामवृत्तियों का पुँज मानता है और न वह एडलर के समान सभी सर्जनात्मक क्रियाओं को हीनता की क्षतिपूर्ति समझता है। वास्तव में युंग की विचारधारा अधिक स्वास्थ्य और आदर्शप्रवण है तथा उसका सिद्धान्त भावप्रतिमानों या आर्केटाइप्स पर आधारित है और उसने मनोविश्लेषण के क्षेत्र में कलात्मक रहस्यवाद का प्रवर्तन भी किया है। साथ ही उसने फ्रायड की कामवृत्ति को मूल प्रेरणा के रूप में अस्वीकृत करते हुए, वैयक्तिक विलक्षणताओं को व्यक्ति की सीमा के ऊपर उठाकर सामाजिक धरातल पर विवेचित किया है। युंग ने अचेतन मन की एक नवीन व्याख्या करते हुए अचेतन के व्यक्तिगत अचेतन एवं सामूहिक अचेतन नामक दो स्तर माने हैं और अचेतन तथा चेतन को एक-दूसरे का विरोधी और पूरक बतलाया है वह अचेतन मन को ही वास्तविक मानता है। युंग का विचार है कि व्यक्ति अपने शब्दातीय भावों को प्रकट करने के लिए कतिपय प्रतीकों का प्रयास करता है और स्वप्न निरुद्देश्य न होकर, व्यक्ति की अकथ्य भावनाओं के संकेत होते हैं तथा प्रक्रिया का मूल उद्देश्य अचेतन मन की सहायता से चेतन मन की गुत्थियों को सुलझाना है। इसी प्रकार युंग ने साइकिल एनर्जी या मानसिक ऊर्जा को सभी विचारों की मूल प्रेरणा के रूप में प्रतिष्ठित कर, मनुष्य को कामकुता की अन्धेरी गलियों से निकलकर स्वस्थ धरातल पर प्रतिष्ठित किया है और यह कामुकता ऊर्जा फ्रायड की कामवृत्ति तथा एडलर की आत्म-प्रकाशन की वृत्ति से अधिक व्यापक तत्व है।
युंग को फ्रायड का यह मत स्वीकार नहीं है कि काव्य स्वप्न के समतुल्य है और वह काव्य एवं स्वप्न में तलस्पर्शी असमानताएँ मानता है। साथ ही उसे यह भी मान्य नहीं है कि कवि के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से कविता का अध्ययन किया जा सकता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में कवि का मनोविश्लेषण और कविता का अध्ययन दो पृथक् वस्तुएँ हैं। इस प्रकार युंग मनोवैज्ञानिक साहित्य की व्याख्या करते हुए कहता है कि मनोवैज्ञानिक साहित्य की सामग्री का चयन चैतन मानवानुभूति के विशाल क्षेत्र से किया जाता है और यह जीवन के धरातल पर आधारित होता है। युंग के शब्दों में-
"Psychological literature always takes its materials from the vast realm of conscious human experience-from the vivid foreground of life, might say. I have called this mode of artistic creation psychological because in its activity it nowhere transcends the bounds of psychological intelligibility.... In dealing with the psycholigcal mode of artistic creation we never need ask ourselves what the material consists of or what it means.
कल्पना-प्रवण साहित्य को समझने के लिये युंग मनोविश्लेषण की आवश्यकता स्वीकार करता है और मनोविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत केवल कलाकत्मक रूपविधान की विवेचना ही की जा सकती है, परन्तु मनोविज्ञान कला की मूल-प्रकृति का अध्ययन नहीं कर सकता। युंग के कथानुसार मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण की विधि के द्वारा कवि के वैयक्तिक सम्बन्धों में उसकी रचना के विधायक तत्त्वों की खोज की जा सकती है, पर उसके कला की आलोचना नहीं की जा सकती और मनोविज्ञान का आधार लेकर कलाकृति एवं कला सृजन तल्लीन लेखक का अध्ययन नहीं किया जा सकता। युंग का कहना है कि कलाकृति का अर्थ एवं विशेषता स्वयं कलाकृति में निहित होती है और उसे उसकी पूर्वावस्थाओं एवं पर्वतत्त्वों में खोजा नहीं जा सकता। युंग के अनुसार कलाकार या तो बर्हिमुखी होते हैं या अन्तर्मुखी और बर्हिमुखी कलाकार स्वयं को किसी अन्य तत्त्व या काव्य-वस्तु के अधीन पाता है तथा अन्तर्मुखी कलाकार कुछ चेतन उद्देश्यों के अनुरूप विषयवस्तु का विवेकपूर्ण अंकन करता है।
युंग कलासृजन की प्रक्रिया को फ्रायड के सदृश यांत्रिक या जैविक न मानकर उसका सप्राण मानता है और उसे मानवात्मा पर आधारित बतलाया है तथा स्वायत्त ग्रन्थि की अभिधा प्रदान करता है। युंग का विचार है कि स्वायत्त ग्रन्थि में इतनी शक्ति होती है कि वह कलाकार की आत्मा को बलपूर्वक अनुशासित करती है और उसे कार्य निर्देश भी देती है। अतएव कला सौन्दर्य है और उसी में उसका वास्तविक उद्देश्य समाया है तथा उसे अर्थ की अपेक्षा नहीं होती। युंग के अनुसार कलाकृति में प्रयुक्त बिम्बों, प्रतीकों एवं धारणाओं के विश्लेषण से हम उसका अर्थ जानने का प्रयत्न कर सकते हैं, और यहीं मनोविश्लेषण हमारी सहायता कर सकता है तथा जब अचेतन की विशिष्ट भाव लहरी चेतना के धरातल पर उपस्थित होती है तब स्वायत्त ग्रन्थि का निर्माण होता है। इस प्रकार कलाकृति का मूल स्रोत वैयक्तिक अचेतन में न होकर इस सामूहिक अचेतन में होता है, जो अखिल मानवता की उपलब्धियों से युक्त होती है।
निष्कर्ष - सामान्यतया मनोविश्लेषणवादी विचारकों ने जिन साहित्यिक मान्यताओं की स्थापना की है उनमें से अधिकांश व्यक्ति-वैचित्रय के धरातल पर प्रतिष्ठित हैं और मार्क्सवादी विचारकों ने मनोविश्लेषणवादी साहित्य की कटु आलोचना करते हुए साहित्य लोकोन्मुखता पर ही बल दिया है। इस प्रकार मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्तों का बहुत अधिक विरोध होते हुए भी न केवल अनेक पाश्चात्य विद्वान् मनोविश्लेषणवाद से प्रभावित जान पड़ते हैं, अपितु हमारे हिन्दी साहित्य पर भी मनोविश्लेषणवाद का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।
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