मातृभाषा हिंदी के प्रति हमारी अभिरुचि मातृभाषा किसी व्यक्ति की पहली भाषा होती है, जो उसे अपने परिवार और समुदाय से मिलती है। हिंदी भारत की सबसे व्यापक
मातृभाषा हिंदी के प्रति हमारी अभिरुचि
मातृभाषा किसी व्यक्ति की पहली भाषा होती है, जो उसे अपने परिवार और समुदाय से मिलती है। हिंदी भारत की सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है और लाखों लोगों की मातृभाषा है। लेकिन आजकल हम देख रहे हैं कि युवा पीढ़ी हिंदी के प्रति उतनी रुचि नहीं दिखा रही है जितनी दिखानी चाहिए। इस लेख में हम हिंदी के प्रति हमारी अभिरुचि के कारणों और इसे बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा करेंगे।
देश का विकास और राष्ट्रीय चरित्र मातृभाषा में सुरक्षित है। इस संबंध में महापुरुषों ने मातृभाषा के महत्त्व को स्वीकार किया है। स्वामी दयानंद, विवेकानंद, तिलक, मालवीय जी ने ही नहीं विदेशी विद्वान मैक्समूलर ने भी हिंदी की तारीफ के पुल बाँधे। जापान, चीन, रूस जैसे प्रगतिमान देशों ने भी अपनी मातृभाषा को महत्त्व दिया है और निरंतर प्रगतिमान हैं। न जाने क्यों, भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ के निवासियों को अपना कुछ अच्छा नहीं लगता, अपितु उन्हें विदेशी वस्तुएँ अच्छी लगती हैं। उनकी संस्कृति आकर्षित करती है। इतना ही नहीं, विदेशी वस्तुओं को अपनाकर भारतीय गौरवान्वित महसूस करने लगे हैं। अपनी सहज सरल भाषा के प्रति घटती रुचि उनके इस सोच का ही कारण है।
जिस समय देश स्वतंत्र हुआ उस समय लोगों में अपनी मातृभाषा के लिए अच्छी भावना थी इसलिए हिंदी के विकास के लिए राष्ट्रीय-स्तर पर प्रयास किए गए। मातृभाषा के सुधार के लिए नीतियाँ बनाई गईं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी। ताकि अंग्रेज़ी ज्ञान के बिना परेशानी नहीं होगी। अहिंदी भाषी प्रदेशों की आशंकाएँ देखते हुए त्रिभाषा पर आधारित राष्ट्रीय नीति बनाई गई।
जिसको समुचित रूप से न अपनाने पर भाषाओं के विकास की बात ढुलमुल नीति में छिप गई। इस दुलमुल नीति से अंग्रेजी भाषा के प्रति राज्यों की रुचि बढ़ी। सुविज्ञजनों ने विचार दिए कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के महत्त्व को बनाए रखने के लिए हिंदी का ज्ञान देना अनिवार्य होना चाहिए। अहिंदी प्रदेशों में अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी का अध्ययन होना चाहिए। प्राथमिक विद्यालय के बाद अंग्रेजी भाषा के अध्ययन का प्रावधान हो। इसके प्रयास हुए, किंतु समुचित प्रयास न होने के कारण अंग्रेज़ी अपना वर्चस्व स्थापित करती गई। सुविज्ञों ने योजनाएँ बनाई थीं उसके प्रति सजगता और ईमानदारी से कार्य किया जाता तो आज हिंदी या अन्य मातृभाषाओं की ऐसी दुर्दशा न होती।
हिंदी के प्रति अभिरुचि कम होने के कारण
अंग्रेज़ी का ज्ञान न रखने वाले शिक्षित लोग स्वयं को हेय समझने लगे। लोगों के मन में यह भाव पनपने लगा कि वैश्वीकरण के कारण अंग्रेज़ी का ज्ञान ही उनकी प्रगति में सहायक हो सकता है। इतना दम-खम अन्य भाषाओं में नहीं है। इसी विचारधारा ने पब्लिक स्कूलों को हवा दी। पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ी, इतनी बढ़ी कि कई गुनी हो गई। इन स्कूलों में संपन्न परिवारों के बच्चे प्रवेश पाने लगे। इन्हें उच्च-शिक्षा अर्थात् उत्तम शिक्षा का केंद्र मानकर सामान्य जन भी येन-केन प्रकारेण इन्हीं स्कूलों में अपने बच्चे भेजने का प्रयास करने लगे। इस प्रकार पब्लिक स्कूल बढ़ते गए, सरकारें भी अंग्रेजी के वर्चस्व को नकार न सकी। प्रतिवर्ष करोड़पति लोगों की संख्या भी बढ़ी और उन्हें लुभाने के लिए इन स्कूलों ने लुभावने आकर्षण दिखाए। सरकारी स्कूलों में केवल अति सामान्य परिवार के बच्चे पढ़ने के लिए विवश और तड़प कर रह गए। पब्लिक स्कूलों के प्रति आकर्षण को देख दूर-दराज के क्षेत्रों में पब्लिक स्कूल खुल गए, जिनमें हिंदी भाषा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। इस तरह हिंदी या अन्य मातृभाषाओं की दुर्दशा होती गई।
जब उच्च-शिक्षा प्राप्त युवक अपनी डिग्रियों को लेकर नौकरी के लिए कंपनियों के द्वार पर दस्तक देता है तो अंग्रेजी के ज्ञान बिना उसके सपने चूर-चूर हो जाते हैं। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर चतुर लोगों ने अंग्रेजी सिखाने के लिए संस्थान खोले और अंग्रेज़ी के बढ़ते वर्चस्व से परिचय कराया। इससे अंग्रेज़ी का प्रचलन बढ़ता गया और अपनी भाषा के प्रति रुचि घटती गई। हिंदी भाषा के सुधार के स्थान पर अंग्रेज़ी को सँवारने में युवक लग गए और अंततः हिंदी को हेय समझने लगे। अब आज का छात्र अपनी प्रगति अपना उज्ज्वल भविष्य अंग्रेज़ी में ही देखता है। वह विचार समाप्त हो गया कि अपनी मातृभाषा के द्वारा बच्चे का विकास संभव है। उसके लिए भले ही रट्टू तोता की तरह अंग्रेजी के वाक्य रटने पड़ें। भले ही अपने देश में हम विदेशी कहे जाने लगें। इस तरह हमारी मातृभाषा का पथ हमने स्वयं पथरीला कर लिया। ऐसा करने में सरकारों ने खूब सहयोग दिया, भले ही इसमें उनकी विवशता रही हो।
हिंदी के प्रति अभिरुचि कैसे बढ़ाएं
यद्यपि अंग्रेज़ी के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है, तथापि अपनी मातृभाषा की ओर भी ध्यान देना चाहिए, नहीं तो हम अपने ही देश में विदेशी हो जाएँगे। इसका परिणाम सबसे अधिक अपनी संस्कृति पर पड़ेगा और पड़ रहा है। अपनी सनातन संस्कृति का वर्चस्व न रहने पर हम विश्व स्तर पर लताड़े जाएँगे। यही कारण था महात्मा गाँधी जैसे सुविज्ञ मातृभाषा के महत्त्व को न नकार सके। उनका कहना था कि मातृभाषा को छोड़कर हम दूसरों के पिछलग्गू बन जाएँगे। अब तो बस यही कह सकते हैं कि परमात्मा हमें सद्बुद्धि दे।
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