निराला की कविता पर प्रगतिवादी चिंतन का गहरा प्रभाव है निराला प्रगतिवादी कवि हैं छायावादी कवियों में निराला क्रांतिवादी दृष्टि का महत्त्वांकन यातना और
निराला की कविता पर प्रगतिवादी चिंतन का गहरा प्रभाव है
निराला जी के गीत छायावाद से अलग न हटकर उसकी सम्भावनाओं से निर्मित है। किन्तु उनमें एक बहुत बड़ी शक्ति का विकास होता गया है- वह है लोकोन्मुखता । निराला की छायावादी कविताओं में उनका लोकोन्मुख व्यक्तित्व प्रारंभ से ही छलकता रहा है। निराला जी का जीवन संघर्षमय तथा लोक-सम्पृक्त रहा है। इसलिए वे स्वभावतः प्रेम-सौन्दर्य के बोध के साथ-साथ जीवन के अन्य अनुभवों को अपने में समेट लेते हैं और व्यक्ति प्रणय के गीत न गाकर लोक जीवन के सुख-दुःख की यातना और संघर्ष की गहराई में उतरते हैं। उनकी व्यक्तिगत प्रणयानुभूति भी एकांतवासिनी न रहकर प्रायः लोकागन्ध से उष्ण हो उठती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उनकी लोकोन्मुखता के रूप दो हैं-
- छायावाद से एकदम हटकर कवि ने प्रगतिशील कविताएँ लिखी हैं।
- छायावाद का स्वर अधिक लोकोन्मुख होता गया ।
इन दोनों के लिए निराला ने सब कुछ अर्थात् भाषा के शब्द, मुहावरे, छन्द, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, भाव, दृश्य, शैली आदि को लोक-जीवन से ही लिया है। अब हम उनकी प्रगतिशील काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख सोदाहरण करना चाहेंगे। इस संदर्भ में हम, उनकी प्रगतिशील या प्रगतिवादी चेतना का निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण रूप देखते हैं-
परम्परा विरोध
प्रगतिवादी सिद्धान्त चेतना की सबसे बड़ी पहचान है। परम्परा का विरोध करके आधुनिकता और नवीनता की स्थापना करना । कविवर निराला जी इसके सदैव आग्रही रहे हैं। उन्होंने परम्परागत छन्द-विधान के बंधन को तोड़ते हुए नवीन छंदों की स्थापना का साहस दिखाते हुए स्पष्ट रूप से कहा-
"मुक्त छन्द
सहज प्रकाशन वह मन का
निज भावों को प्रकट अकृत्रिम चित्र ।"
पूर्व छन्द के बन्धनों को उन्होंने किसी प्रकार नहीं स्वीकार किया और स्पष्ट रूप से विद्रोही स्वर में कहा-
"आज नहीं है मुझे कुछ चाह,
अर्द्ध विकल इस हृदय कमल में आ तू
प्रिय ! छोड़कर बन्धनमय छन्दों की छोटी राह ।"
शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति
निराला जी की काव्य-चेतना में शोषितों के प्रति सहानुभूति का तीव्र स्वर है। यह स्वर उनकी उदारता और परदुःखकातरता के भावों से परिपुष्ट होकर निकला है।
क्रांति की भावना
क्रांति अर्थात् परिवर्तन की भावना और उसके दिशा-निर्देश को प्रतिपादित करना भी प्रगतिवादी काव्य - साहित्य की प्रमुख धारा रही है। कविवर पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' इसके अपवाद नहीं हैं। उनकी अधिकांश कविताएँ इसी विचारधारा की पोषक और प्रतीक हैं।
वेदना की अनुभूति
प्रगतिवादी काव्य के काव्यकारों ने कहीं-कहीं आत्म-वेदना में समग्रता का बोध कराने के लिए सफल और रोचक कविताएँ लिखी हैं। इस प्रकार की वेदना की अनुभूति कविवर निराला ने प्रकट की है। उससे समग्रता और व्यापकता का बहुत बड़ा बोध होता है। इस तरह की वेदना में कवि के अकेलेपन में आये हुए अभाव का चित्र उभरकर तन-मन को झकझोर डालता है।
व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण
प्रगतिवादी साहित्य में व्यंग्य के पुट अवश्य हैं। कविवर निराला ने अपने साहित्य में धनी और सम्पन्न व्यक्तियों पर व्यंग्य के तीखे और ऊँचे प्रहार करते हुए अपने अस्तित्व का अच्छा इजहार किया है-
"लक्षपति का ही कुमार होता, / शिक्षा पाता अरब समुद्र पार ।
देश के नीति मेरे परम पंडित / मैं भी करता साम्यवादी प्रचार ।"
साम्यवाद का घोर समर्थन
साम्यवाद अर्थात् समानवाद को प्रगतिवादियों ने सामाजिक विकास और कल्याण के लिए अत्यधिक महत्त्व दिया। उन्होंने इसकी स्थापना सामाजिक विषमता के लिए बहुत बड़ी खुराक मानी है। कविवर निराला ने भी यह मान लिया था कि सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने का एकमात्र हल साम्यवाद ही है।
नारी चित्रण
प्रगतिवादी साहित्य में नारी के प्रति सामाजिक उपेक्षा और उसकी हीन दशा को बड़ी गंभीरता और सतर्कता के साथ देखा गया है। महाकवि 'निराला' ने इस प्रकार के दृष्टिकोण बड़े ही प्रभावशाली रूप में रखे हैं। निष्ठुर समाज से उपेक्षित और तिरस्कृत नारी की दशा का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण निराला जी ने किया है।
उद्बोधन
प्रगतिवादी कवि वस्तुतः क्रांतिकारी होते हैं। वह जब कभी क्रांति का बिगुल फूंकता है, तब शिव और श्यामा का भयंकर तांडव नृत्य आरंभ हो जाता है और फिर चारों और उथल-पुथल मच जाती है। इस प्रकार के उद्बोधन के स्वर कविवर निराला ने फूँकते हुए कहा-
"पशु नहीं, वीर तुम, /
समर-शूर क्रूर नहीं,
काल-चक्र में ही दबे /
आज तुम राजकुंवर,
समर सरताज,
तुम हो महान्, तुम सदा हो महान्
हे नश्वर यह दीन-भाव, कायरता- कामपरता
ब्रह्म हो तुम, पदरज भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्वभार,
जागो फिर एक बार ।"
निराला जी का व्यंग्य प्रधान और प्रगतिवादी काव्य
सन् 1940 के आसपास निराला जी की मनोस्थिति में ऐसा परिवर्तन हुआ कि वे उदात्त भावों को भूलकर व्यंग्य और हास्य की भूमिका पर उतर आये। 'कुकुरमुत्ता' में एक व्यंग्य है ? कुकुरमुत्ता एक सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि है जिसमें किसी प्रकार की संस्कृति नहीं है। वह अपने मुँह से अपनी प्रशंसा अतिरंजित रूप से प्रस्तुत करता है। यह उसकी अहमन्यता के प्रति व्यंग्य है। कुकुरमुत्ता तथा गुलाब का सम्वाद एक परिवेश निर्माण करता है । फिर कुकुरमुत्ता अपनी यथार्थ भूमि पर आ जाता है और आत्म-स्तुति में मग्न करता है । क्रान्ति का अग्रदूत बनता है। एक स्थान पर निराला जी टी० एस० इलियट पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं-
"कहीं का रोड़ा, कहीं का पत्थर,
टी० एस० इलियट ने जैसे दे मारा।
पढ़ने वालों ने भी जिगर पर रखकर,
हाय, कहाँ लिख दियां जहाँ सारा ।।"
निराला जी की कृति में संसार कुकुरमुत्ता में बदलता जा रहा है। कुकुरमुत्ता में एक सन्देश है, की उन्नति के लिए सांस्कृतिक तत्वों की आवश्यकता पर बल है जिसके अभाव में समाज की उन्नति सम्भव नहीं है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कविवर 'निराला' का काव्य-क्षेत्र प्रगतिवादी विचारधाराओं से परिपुष्ट और साधारित है। इससे उनका काव्य-वैभव अत्यन्त सशक्त और प्रभावशाली सिद्ध होता है।
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