वर्तमान समय में भारतीय न्यायपालिका में सुधारों की आवश्यकता विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं। आजादी के बाद से वि
वर्तमान समय में भारतीय न्यायपालिका में सुधारों की आवश्यकता
दलील सौदेबाजी उस स्थिति के बारे में बात करता है जिसमें अभियुक्त सजा को कम करने के बदले में मुआवजे के लिए पीड़ित के साथ सौदेबाजी करता है। प्रतिवादी अधिक उदार सजा, सिफारिशों, एक विशिष्ट सजा या अन्य आरोपों को खारिज करने के बदले में कम अपराध या (एकाधिक अपराधों के मामले में) एक या अधिक अपराधों के लिए दोषी मानता है। प्रतिवादी या अभियुक्त अभियोजन पक्ष द्वारा दायर किए गए मूल आरोपों पर अपराध के लिए दोषी ठहराने के लिए सहमत होते हैं, इस उम्मीद में कि मुकदमे में दोषी ठहराए जाने पर उन्हें कम सजा मिल सकती है।
'याचिका' शब्द का अर्थ है 'अनुरोध' और 'सौदेबाजी' शब्द का अर्थ है 'बातचीत'। तो सरल शब्दों में इसका मतलब एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत एक व्यक्ति जिस पर आपराधिक अपराध का आरोप लगाया गया है, वह कम गंभीर अपराध के लिए दोषी मानते हुए कानून में निर्धारित सजा से कम सजा के लिए अभियोजन पक्ष से बातचीत करता है। दलील सौदेबाजी में अभियुक्त अपना बचाव नहीं करना चाहता। उसे पता होता है कि वह दोषी सिद्ध हो जाएगा। इसलिए उसका उद्देश्य यह होता है कि उसे कम से कम सजा हो। वह जल्दी से जल्दी अपनी सजा काट कर अपनी आम जिंदगी जी सके। दलील सौदेबाजी के कुछ अपवाद भी हैं।ऐसे अपराध जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास, सात वर्ष से अधिक कारावास से दंडनीय है। महिलाओं के विरूद्ध अपराध (जैसे पीछा करना या बलात्कार)। चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों के विरूद्ध अपराध। ऐसे अपराध जो किसी देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को प्रभावित करते हैं (जैसे खाद्य पदार्थों में मिलावट या मनी लॉन्ड्रिंग)। इसके अलावा जहां अदालत को पता चलता है कि किसी व्यक्ति को पहले भी इसी अपराध के तहत दोषी ठहराया गया है या उसने (आरोपी) ने अनजाने में इस अवधारणा के तहत आवेदन दायर किया है, तो अदालत उस चरण से कानून के अनुसार आगे बढ़ सकती है जहां ऐसा हो।
कुछ मामलों में प्रतिवादी अधिक नरम सजा पाने के लिए मूल आरोप से कम गंभीर आरोप को स्वीकार करने का निर्णय ले सकता है। उदाहरण के लिए जिस व्यक्ति पर गंभीर हमले का आरोप लगाया गया है, वह कम सजा के बदले में साधारण हमले का दोष स्वीकार करना चुन सकता है। एक प्रतिवादी कुछ आरोपों को खारिज करने के बदले में कम अपराध के लिए दोषी ठहराने या कम सजा स्वीकार करने का विकल्प चुन सकता है। उदाहरण के लिए चोरी के कई मामलों में आरोपी कोई व्यक्ति केवल एक मामले में दोषी मान सकता है और शेष आरोपों को कम सजा के लिए बातचीत के समझौते के हिस्से के रूप में खारिज कर सकता है। यदि प्रतिवादी अपना दोष स्वीकार करता है, तो अभियोजन पक्ष के पास एक विशिष्ट सजा का सुझाव देने का विवेक है।उदाहरण के लिए, गबन के आरोपों से जुड़े मामले में, प्रतिवादी दोष स्वीकार करने का विकल्प चुन सकता है और परिणामस्वरूप, पूर्ण क्षतिपूर्ति करने की शर्त पर परिवीक्षा दी जा सकती है। दलील सौदेबाजी का दुनिया-भर में बहुत लंबा और विविध इतिहास रहा है। इसकी उत्पत्ति रोम के समय से लेकर वर्तमान अमेरिका तक देखी जा सकती है, और अब यह कई विकसित और विकासशील देशों की कानूनी प्रणालियों में फैल रही है। अमेरिका और भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है। जहां अमेरिका एक विकसित राष्ट्र है वहीं भारत एक विकासशील राष्ट्र है। भारत अपने राजनीतिक और सामाजिक भ्रष्टाचार के लिए सदा से ही प्रसिद्ध रहा है। यह भ्रष्टाचार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही क्षेत्रों में व्याप्त रहा है। दलील सौदेबाजी न्यायपालिका के क्षेत्र में भ्रष्टाचार को बढ़ाएगी।अगर हम अस्सी और नब्बे के दशक की वॉलीवुड की फिल्मों की बात करें तो गांव का जमींदार कोई अपराध कर देता था। जमींदार का चमचा थानेदार के सामने जमींदार के अपराध को स्वयं कबूल कर लेता था। इससे थानेदार अपराध की जांच में ढिलाई बरतता था। बाद में जमींदार अपने चमचे को भी छुड़ा लेता था। अमीर लोगों के अपराध पैसे के लालच में गरीब लोग अपने सिर पर ले लेंगे। भ्रष्ट जांच अधिकारी जांच में कोताही बरतेंगे। न्यायालय भी दलील सौदेबाजी के चलते निर्दोष लोगों को जेल भेजेंगे। इससे दलील सौदेबाजी अमीर लोगों के लिए अपराध करने का एक लाइसेंस साबित होगा। न्यायालय सौदेबाजी के अड्डे बन कर रह जाएंगे| हर व्यक्ति कुछ नया करना चाहता है, जिससे की उसका नाम हो। कुछ नया करने के चक्कर में उन चीजों को भारतीय न्यायपालिका पर नहीं थोपना चाहिए। जो भारतीय समाज की परिस्थितियों के अनुकूल न हो। नए अव्यवहारिक कानूनों को लाने की जगह पुराने अव्यावहारिक कानूनों को हटाना चाहिए। दलील सौदेबाजी के समर्थकों का कहना है कि इससे मुकदमों के निपटारों में जल्दी होगी और न्यायपालिका पर बोझ घटेगा। न्यायपालिका के बोझ को घटाने के लिए किसी के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता। मुकदमों के जल्दी निपटारे के लिए अतिरिक्त न्यायधीशों की नियुक्ति की जा सकती है। न्यायधीश दिन में एक घंटा अतिरिक्त कार्य कर सकते हैं। वर्तमान में न्यायपालिका में सुधारों के नाम पर दलील सौदेबाजी जैसे सभी अव्यवहारिक कानूनों को हटाने की आवश्यकता है। वर्तमान समय में न्यायपालिका की साख को बचाए जाने की जरूरत है। बहुत से मुकदमों में न्यायधीश केवल तारीख पे तारीख देता है। वह मुकदमे की गहराई तक जाने की कोशिश नहीं करता। गरीबों की जिंदगी तारीखों में ही निकल जाती है। लेकिन न्यायालय अपना फैसला नहीं दे पाता। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में पहले पिता, फिर बेटा, फिर पोता जमींदार का कर्ज चुकाने के लिए जिंदगी भर मजदूरी करते हैं पर कर्ज नहीं चुका पाते। उसी तरह वर्षों नहीं, दशकों निकल जाते हैं पर न्यायालय अपना फैसला नहीं दे पाता। अधीनस्थ न्यायपालिका की उच्च न्यायालय के प्रति जबावदेही तय होनी चाहिए।सभी मुकदमों का निश्चित समय में फैसला होना चाहिए। अगर अधीनस्थ न्यायालय निश्चित समय में फैसला नहीं करता है तो उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए। उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालय के कामकाज पर निरंतर नजर रखनी चाहिए। अगर कोई न्यायाधीश अपने काम में कोताही बरतता है तो उच्च न्यायालय को उसके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं होता।
न्यायपालिका को इस तथ्य को आत्मसात करना चाहिए। भारत में जब किसी व्यक्ति पर न्यायालय में आरोप लगते हैं, तो उसे तभी से दोषी माने जाना लगता है। कानून के अनुसार तो ऐसा नहीं है, पर जमीनी सच्चाई यही है। अगर आरोपी गरीब है तो न्यायालय के कर्मचारियों द्वारा भी उसके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। एक तरह से बिना मुकदमे के फैसले के ही उसे सजा दी जाने की कोशिश की जाती है। इस हथियार का प्रयोग भारत में अमीरों द्वारा गरीबों को परेशान करने के लिए निरंतर किया जा रहा है। आरोपी के दोषी सिद्ध होने तक उसके साथ दोषियों की तरह बर्ताव नहीं किया जाना चाहिए। जब पुलिस स्टेशन में किसी के खिलाफ शिकायत दर्ज की जाती है तो जिस व्यक्ति के खिलाफ शिकायत दर्ज की जा रही है, अगर वह गरीब है तो पुलिस द्वारा उसके खिलाफ जानबूझकर कठोर धाराएं लगाई जाती हैं। इन धाराओं पर पुलिस की जबावदेही तय होनी चाहिए। गलत और अतार्किक धाराएं लगाने पर पुलिस पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए।पुलिस भी समाज का हिस्सा होती है। भारत में पुलिस आज समाज की मालिक बनी बैठी है। पुलिस न्यायपालिका का प्रयोग अपने तुच्छ हितों को साधने के लिए कर रही है। न्यायपालिका गरीबों के प्रति कठोर और अमीरों के प्रति नरम है। गरीबों को तारीख पर तारीख दी जाती है। गरीबों के मुकदमों में पुलिस भी गवाही देने समय पर नहीं आती। न्यायालय को भी इससे फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि आरोपी गरीब व्यक्ति है। मुकदमे को बेवजह वर्षों तक लंबा खींचा जाता है। जिला न्यायवादियों के स्थानांतरण बहुत कम होते हैं। वे वर्षों तक एक ही जगह पर जमे रहते हैं। जबकि सरकारी नीति तीन वर्ष बाद कर्मचारियों के स्थानांतरण करने की है। कुछ न्यायवादी दस वर्ष से भी अधिक समय से एक ही जगह जमे पड़े हैं। अगर स्थानांतरण होता भी है तो एक वर्ष बाद वे फिर उसी जगह पर लौट आते हैं। प्रत्येक तीन वर्ष बाद न्यायवादियों का स्थानांतरण होना चाहिए और उन्हें वापस पहले के स्थान पर स्थानांतरित नहीं करना चाहिए।
पंच के दिल में खुदा बसता है। पंचों के मुंह से जो बात निकलती है, वह खुदा के तरफ से ही निकलती है। आज का दौर नारीवाद का दौर है। नारीवाद सामाजिक व्यवस्था पर हावी है। नारीवादियों को नारीवाद के अलावा और किसी दृष्टिकोण से कोई लेना-देना नहीं है। बीते दिनों सोशल मीडिया पर एक बात छाई रही जिसमें एक गर्भवती कहती है कि मैं इतनी बड़ी नारीवादी हूं कि अगर मेरा बच्चा लड़का हुआ तो मैं स्वयं अपने हाथों से जन्म लेते ही उसका गला घोंट दूंगी।आज भारत में न्यायधीश की कुर्सी पर बैठी अधिकतर महिलाएँ न्यायशास्त्र के अनुसार कार्य करने की बजाए नारीवाद का प्रचार करना ही अपना कर्तव्य समझती हैं। आज भारतीय न्यायपालिका घोर पतनावस्था के दौर से गुजर रही है। वरिष्ठ न्यायधीशों को आगे आकर इन महिला न्यायधीशों के फैसलों पर नजर रखनी चाहिए और इन्हें न्यायशास्त्र के हिसाब से मुकदमों का फैसला देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। आज भारत में उच्च न्यायालयों की यह हालत है कि न्यायधीशों और अधिवक्ताओं के सिंडिकेट बने हुए हैं। एक ही तरह के मुकदमों में एक ही न्यायधीश द्वारा अलग अलग तरह के फैसले दिए जाते हैं। आज उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश राजनीतिक दलों के प्रभाव में मुकदमों के फैसले देते हैं। अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ प्रदर्शक बन जाता है। परंतु आज न्यायधीश जानबूझ कर राह भटक रहे हैं। क्योंकि सेवानिवृती के बाद राजनीतिक दलों द्वारा उन्हें बड़े ओहदों पर नियुक्ति दी जाती है।
न्यायधीशों की हालत आज प्रेमचंद के उपन्यासों के ब्राह्मण पात्रों की तरह है। वहां का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहां तो सब अपने ही भाई बंधु हैं। ऋषि मुनि सब तो ब्राह्मण हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने बिगड़ेगी, संभाल लेंगे। वर्तमान समय में भारतीय न्यायपालिका में सुधारों की नितांत आवश्यकता है।दल-बदल कानून विधायिका के क्षेत्र में, सूचना का अधिकार कार्यपालिका के क्षेत्र में सोशल मीडिया का विकास मीडिया के क्षेत्र में मील के पत्थर हैं। न्यायपालिका के क्षेत्र में ऐसे ही किसी मील के पत्थर की जरूरत है। इस तरह हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय में भारतीय न्यायपालिका के क्षेत्र में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है।
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