प‌द्मावत में इतिहास व कल्पना का समन्वय

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पद्मावत, इतिहास और कल्पना के समन्वय का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।यह रचना सदियों से पाठकों को प्रेरित और मनोरंजित करती रही है, और आज भी इसका साहित्यिक और स

प‌द्मावत में इतिहास व कल्पना का समन्वय


लिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित "पद्मावत" महाकाव्य, इतिहास और कल्पना का अद्भुत मिश्रण है। यह रचना 16वीं शताब्दी की है, और इसमें चित्तौड़ की रानी पद्मावती और दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के बीच हुए संघर्ष की कथा का वर्णन है।

पदमावत की समीक्षा में यह प्रश्न अनेकशः उठाया गया है कि क्या यह कथा किसी ऐतिहासिक आधार पर है अथवा मात्र कवि - कल्पना पर ही आधारित है। इन दोनों बातों से पहले यह विचारणीय है कि कथा का मूल स्रोत क्या है?
 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी-ग्रन्थावली की भूमिका में इस प्रश्न पर व्यापक विचार करते हुए यह स्थापना की है कि पदमावत की कथा बहुत दिनों से चली आ रही एक लोकगाथा का जायसी द्वारा परिष्कृत और विकसित रूप है। उत्तर भारत और उसमें भी विशेषतः राजपूताने के क्षेत्र में प्रचलित प्रेमगाथाओं में पद्मिनी या पदमावती की कहानी बहुत पहले से मिलती है इसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। इसमें नायक प्रतिनायक के नामों में भिन्नता है और घटना के विवरणों में भी भिन्नता है । पर सारी घटना के केन्द्र में किसी असाधारण सुन्दरी पािनी कोटि की नारी के होने की बात तो प्रायः सभी कथाओं में है। राजपूताने में इस लोकगाथा के प्रति लोगों में गहरा लगाव कदाचित इसलिए भी है क्योंकि यह सती प्रथा से जुड़ी हुई प्रेमगाथा है। उस क्षेत्र में इस परम्परा के प्रति एक गौरव की भावना प्राप्त होती है। 

प‌द्मावत में इतिहास व कल्पना का समन्वय
शुक्ल जी ने इस काव्य की ऐतिहासिकता के विवेचन में कर्नल टाड द्वारा लिखित 'राजपूताने का इतिहास' में प्राप्त एक सच्ची घटना का विवरण दिया है, जिसमें पद्मिनी रानी की प्राप्ति की लालसा से दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन द्वारा चित्तौड़ के राजा भीमसी (भीम सिंह) पर किए गए हमले की चर्चा है। इसमें अलाउद्दीन के द्वारा दर्पण में पद्मिनी की झलक देखना, छल से चित्तौड़ के राजा को कैदी बनाना, गोरा-बादल नामक वीर सैनिकों द्वारा धोखे से पालकियों में सैनिक ले जाकर राजा को मुक्त करा लेने का प्रसंग मिलता है। शुक्ल जी के अनुसार-दो चार व्योरों को छोड़कर ठीक वही वृत्तान्त ‘आइने अकबरी' में भी दिया हुआ है। इस पुस्तक में रत्नसेन नाम ही मिलता है या रत्नसिंह । भीमसी नाम 'आइने अकबरी' में नहीं है।
 
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी पदमावत की मूल कथा को बहुत पुरानी मानते हुए कहा है- “पदमावती नाम भारतीय साहित्य में बहुत परिचित है। संस्कृत में कई काव्यों की नायिका का नाम पदमावती है।... गुजराती साहित्य में भी यह नाम और कथा प्रचलित है। इस बात से यह विश्वास करने का आधार है कि कहानी का मूल रूप काफी पुराना रहा होगा।"
 
डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने 'पदमावत' पर अपभ्रंश के एक प्रेमाख्यान 'रमण सेहरी कथा' की गम्भीर छाया अनुभव की है। यह सरस संयोग और तीव्र वियोग की एक ऐसी प्रसिद्ध प्रेमगाथा है, जिसमें नायक पचिनी स्त्री की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के दारुण दुःख झेलते हुए सिंहलद्वीप की यात्रा करता है। योगमार्गी बौद्धों में सिंहलद्वीप को एक सिद्धपीठ मानने की प्रथा है। शुक्ल जी ने इस मान्यता में भी पदमावत की कथा का उत्स खोजने के लिए कुछ संभावना देखी है, पर पदमावत का नायक सिद्धि को पदमावती के रूप में प्राप्त करता है, जबकि योगमार्गी बौद्धों अथवा नाथपन्थियों में सिंहलद्वीप की पद्मिनी नारियों को साधना का अन्तराय माना गया है। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ इसी बाधा को पार करते हुए पद्मिनी सुन्दरियों के मोहजाल में फँस गये थे। पृथ्वीराज रासो में भी पदमावती नामक एक नायिका की कथा आती है। इन सारी बातों से कुल मिलाकर तीन निष्कर्ष निकलते हैं। एक तो यह कि साहित्य में कई स्थानों पर पदमावत से पहले भी 'पदमावती' या पद्मिनी' कोटि की असाधारण सौन्दर्य वाली स्त्रियों की चर्चा है। दूसरी यह कि 'पदमावत' की कहानी से मिलती-जुलती कहानी पुराने इतिहासग्रन्थों में पहले से मिलती है और तीसरी यह कि निश्चित रूप से यह लोक-जीवन में प्रसिद्ध प्रेमगाथा रही है। इस काव्य की कथा का मूल स्रोत इन्हीं निष्कर्षों में छिपा है ।
 
पदमावत की कहानी में ऐतिहासिक सत्यता का अंश कितना है और कितना कल्पना तत्त्व है, यह पता लगाना इस विचार का दूसरा पहलू है। कथा का विश्लेषण किया जाय तो यह दो भागों में स्पष्ट रूप से विभक्त दिखायी देती है । जिसका विवरण निम्नलिखित है -  
  1. सिंहलद्वीप वर्णन, पदमावती के जन्म, किशोरावस्था, हीरामन तोते के द्वारा वर की खोज, रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा, पदमावती से विवाह और चित्तौड़ वापस आने तक की कथा पूर्वार्द्ध में मानी जाती है।
  2. राघव चेतन का निष्कासन, अलाउद्दीन द्वारा चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण, सन्धि और भोज, छल से राजा को पकड़ना, गोरा-बदल के द्वारा राजा की मुक्ति, रत्नसेन- देवपाल युद्ध, रत्नसेन की वीरगति, नागमती, पदमावती का सती, होना, शाही सेना का आक्रमण तथा बादल की वीरगति तक की कथा उत्तरार्द्ध में मानी जाती है। 
कथा के इन दोनों भागों में पहला विशुद्ध रूप से कल्पना पर आधारित है, पर इसमें भी स्थानों के नाम जैसे चित्तौड़, सिंहलद्वीप, मध्य प्रदेश, कलिंग आदि वास्तविक और इतिहाससम्मत है । पूर्वार्द्ध में ही स्तुतिखण्ड के अन्तर्गत कवि ने आत्मवृत्त की चर्चा में जायसनगर और शाहेवक्त की चर्चा में दिल्ली के शासक शेरशाह का जो जिक्र किया है, वह सब भी सत्य घटना पर आधारित है। इन स्थानों और व्यक्तियों के ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त हैं। इस भाग में यदि कल्पना का मुख्यतः कहीं प्रयोग है, तो सिंहलद्वीप के राजा, रानी, राजकुमारी तथा चित्तौड़ के राजा, रानी के नाम और कार्य विवरण में, हीरामन तोते की विशिष्ट अवधारणा में तथा सिंहलद्वीप की दोनों रोमांचक यात्राओं (जाते समय की और लौटते समय की) में है। पर यह कल्पना सबसे पहले जायसी ने की यह, मानना बहुत संगत नहीं होगा। जायसी को यह काल्पनिक अंश लोक-परम्परा से मिला। उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रतिभा से उसे इतना सँवारा कि उसमें नूतनता और मौलिकता आ गयी।
 
पदमावत के उत्तरार्द्ध की कथा का आधार अपेक्षाकृत अधिक है। यहाँ कल्पना का सहारा कम लिया गया है। इतना होने पर भी जो लोग ऐतिहासिक कालगणना का एक-एक दिन और कथा की घटनाओं का एक-एक छोटा प्रसंग ऐतिहासिक साक्ष्यों से मिलायेंगे, उन्हें तो कुछ न कुछ निराशा होगी ही, क्योंकि इतिहास जिस रूप में इतिहास की पुस्तकों में रहता है, ठीक उसी रूप में काव्य-ग्रन्थों या साहित्य-रचनाओं में नहीं होता। इनमें रचनाकार को ऐतिहासिक घटनाओं में से कुछ को काट देने, कोई काल्पनिक प्रसंग जोड़ देने तथा संक्षिप्त को विस्तृत कर देने, विस्तृत को संक्षिप्त कर देने का अधिकार होता है। डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इसी अधिकार को दृष्टि में न रखने के कारण पदमावत की कथा को पूर्णतः अनैतिहासिक घोषित कर दिया है, जो पुनर्विचार की माँग करता है। 

उत्तरार्द्ध की कथा में अलाउद्दीन के द्वारा चित्तौड़ पर चढ़ाई, युद्ध-भूमि में वीर राजपूतों का प्राणोत्सर्ग तथा पद्मिनी और अन्य नारियों का जौहर की ज्वाला में कूदकर भस्म होना पूरी तरह इतिहास पुष्ट घटनाएँ हैं। कथा के इस भाग में आचार्य शुक्ल ने जायसी की तीन कल्पनाओं की ओर इंगित किया है। ये हैं- 1. राघव चेतन का अस्तित्व । 2. सन्धि की शर्त में पदमावती को दिखाना नहीं बल्कि पाँच दुर्लभ पदार्थों को देना। 3. रत्नसेन को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाना। इन काल्पनिक तथ्यों के योग का उद्देश्य विशुद्ध रूप से रचनात्मक है। राघव चेतना की परिकल्पना से कथा के विकास को स्वाभाविकता मिली है। पदमावती - दर्शन को सन्धि का अंश न कहकर एक संयोग-प्रधान घटना की तरह रखने से रत्नसेन या नायक के वीरोचित गौरव की रक्षा हुई है तथा बन्दी रत्नसेन को चित्तौड़ के बाहर ही शत्रु शिविर में दिखाकर दिल्ली में दिखाने से गोरा-बादल के शौर्य के वर्णन का अवकाश मिल गया है। 

वस्तुतः पदमावत की कथा में ऐतिहासिकता और कल्पना का बड़ी सूझ-बूझ के साथ समन्वय हुआ है। यह भी कहना बहुत सही नहीं है कि एक भाग पूरी तरह काल्पनिक है या कि दूसरा भाग पूरी तरह इतिहाससम्मत है। स्थिति कुछ ऐसी है कि दोनों भागों से पहले में कल्पना का आशय अधिक लिया गया तथा दूसरे में ऐतिहासिकता का। जायसी एक विशालकाय प्रबन्ध लिख रहे थे। अतः उन्होंने लोकख्यात व इतिहासप्रसिद्ध कथानक को इसका आधार बनाया। इतिहास व कल्पना के समन्वय में जायसी की काव्यात्मक दृष्टि प्रशंसनीय है।

पद्मावत, इतिहास और कल्पना के समन्वय का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।यह रचना सदियों से पाठकों को प्रेरित और मनोरंजित करती रही है, और आज भी इसका साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व है।यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पद्मावत की ऐतिहासिक सटीकता को लेकर विवाद रहा है। कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि रानी पद्मावती और उनकी कहानी पूरी तरह से काल्पनिक हैं, जबकि अन्य का मानना ​​है कि इसमें कुछ ऐतिहासिक सच्चाई है।

अंततः, पद्मावत को एक साहित्यिक कृति के रूप में पढ़ा और आनंद लिया जाना चाहिए, न कि इतिहास के स्रोत के रूप में।

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