भारतीय भाषाओं के विकास में पालि का स्थान पालि भाषा का भारतीय भाषाओं के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह एक प्राचीन भारतीय भाषा है जिसे ब
भारतीय भाषाओं के विकास में पालि का स्थान
पालि भाषा का भारतीय भाषाओं के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह एक प्राचीन भारतीय भाषा है जिसे बुद्धकाल में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपनाया गया था।भारतीय भाषाओं का सम्यक् रूपेण अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि पालि-भाषा ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। बुद्ध के काल में जो जनभाषा प्रचलित थी वह 'पालि' ही थी। तत्कालीन समस्त साहित्य इसी भाषा में लिखा गया क्योंकि जन-जन की वाणी होने के कारण विचारों का संवहन करने की पालि भाषा में अद्भुते शक्ति थी। इस कारण पालि भाषा का अत्यन्त महत्त्व है। पालि भाषा ने कालांतर में भारतीय भाषाओं के विकास में सराहनीय योगदान किया।
भारत में अनेक भाषाएँ होने के कारण उनका वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक था कि उनका वर्गीकरण किया जाए। भाषा-वैज्ञानिकों ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया। धातु उपसर्ग, प्रत्ययों की गठन-रीति आदि के साम्य-वैषम्य को आधार बनाकर किया गया भाषा वर्गीकरण 'पारिवारिक-वर्गीकरण' कहलाता है। इस सम्पूर्ण विवेचन में 'पालि' की गणना भारोपीय कुल में की जाती है। पालि के साथ-साथ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, मराठी आदि भाषाएँ भी इसी काल में आती हैं। यह भारोपीय कुल साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका विकसित रूप भी सर्वाधिक है। इसी परिवार की भारत-ईरानी शाखा भी महत्त्वशाली है।
भारतीय परिवार की भाषा को 'आर्य-भाषा' की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है। आर्य-भाषा का इतिहास 4000 वर्षों में फैला हुआ है। इस समय भाषाओं ने विकास की अनेक सीढ़ियों को पार किया है। विद्वानों ने सुविधा के लिए इसे तीन भागों में बाँट दिया है-
(1) प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा काल (वैदिक-युग से 500 ई० पू० तक)
(2) मध्यकालीन आर्य-भाषा-काल (500 ई० पू० से 1000 ई० तक)
(3) आधुनिक आर्य भाषा काल (1000 ई० से अब तक ) ।
प्रथम युग की भाषा के दर्शन हमें ऋग्वेद में होते हैं। ऋग्वेद में तत्कालीन बोलियों का मिश्रित रूप भी मिलता है। ऋग्वेद के अतिरिक्त यजुर्वेद, सामवेद, ब्राह्मण-ग्रंथ और सूत्र-ग्रन्थों के द्वारा इसका विकास हम सहज ही देख सकते हैं। उस काल की भाषा 'वैदिक-संस्कृत' के नाम से अभिहित की जाती है।
मध्य युग तक भाषाओं की विविधता अत्यन्त विस्तृत हो गई थी अतः उसे संयमित किया गया और इस प्रकार एक साहित्यिक भाषा के रूप में इन विविध भाषाओं का विकास हुआ। अनेक भाषाओं का संस्कार होने पर यह भाषा विकसित हुई थी अतः इसे संस्कृत नाम से अभिहित किया गया। उसी काल में एक साहित्यिक भाषा के साथ-साथ अनेक प्रान्तीय बोलियाँ भी विकास की ओर अग्रसर हुईं, क्योंकि जनसाधारण के लिए इसकी अत्यन्त आवश्यकता थी । ‘पालि’ तत्कालीन जनभाषा थी बुद्ध द्वारा उसी बोली में उपदेश दिए गए और इस कारण धर्म संयुक्त होने के कारण इस भाषा का महत्त्व बढ़ता गया। इसमें आस-पास की अनेक बोलियाँ भी समाहित होती गईं। इस विवेचन से ज्ञात होता है कि पालि और संस्कृत लगभग साथ-साथ ही विकास की ओर गतिमान हुईं। मध्य युग में पालि-भाषा के विकास को तीन स्तरों पर देख सकते हैं।
(1) पालि और अशोक के अभिलेखों की भाषा (500 ई० पू० से प्रथम ई० पूर्व तक) ।
(2) प्राकृत भाषाएँ ( प्रथम ई० से 500 ई० तक)
(3) अपभ्रंश भाषाएँ (500 ई० से 1000 ई० तक) ।
मध्ययुग की भाषाओं को प्राकृत नाम से भी अभिहित किया जाता है। इन्हें क्रमशः प्रथम प्राकृत, द्वितीय प्राकृत व तृतीय प्राकृत कहते हैं। इन्हीं भाषाओं से हिन्दी, मराठी, व गुजराती आदि अनेक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। इस दृष्टि से पालि-भाषा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'पालि' एक मिश्रित साहित्यिक भाषा है। इस कारण इसमें अनेक बोलियों के तत्व समा गए हैं। व्याकरण के अनेक उदाहरणों से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है। पालि भाषा के क्रमिक विकास को विद्वानों ने वर्गीकृत किया है। जर्मन विद्वान् गायगर ने भाषागत विशेषताओं को आधार बना कर पालि-भाषा को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया है-
(1) गाथा की भाषा।
(2) पिटक साहित्य के गद्य की भाषा।
(3) अनुपिटक साहित्य के गद्य भाग की भाषा।
(4) बाद के कृत्रिम पद्य की भाषा ।
अनेक विद्वानों ने इसका विकास-क्रम इस प्रकार दिखाया है-
(1) त्रिपिटक गाथाओं की भाषा ।
(2) त्रिपिटक गद्य की भाषा ।
(3) उत्तर-कालीन पालि गद्य की भाषा।
(4) उत्तर-कालीन पालि काव्य की भाषा ।
पालि भाषा का परिचय
तेरहवीं शती ईसा पूर्व 'पालि' शब्द का प्रयोग भाषा-विशेष के अर्थ में नहीं मिलता है। पालि शब्द का क्या अर्थ है ? यह किस प्रदेश की भाषा थी? यह प्रश्न आज भी विवाद का विषय है । इस सम्बन्ध में प्राच्य व पाश्चात्य सभी मतों में विभिन्नता है, फिर भी विभिन्न कोषों में पालि शब्द की व्युत्पत्ति प्राप्त होती है।
'अभिधानप्पदीपिका' में पालि शब्द का अर्थ है- पंक्ति।
'पंति वीथ्यावलिस्सेनि पालिरेखा च राजिं च ।'
संस्कृत में ‘पंक्ति' का अर्थ 'मूल ग्रन्थ' के वाचक के रूप में ग्रहण किया जाता है। महाभाष्य की पंक्ति, साहित्य-दर्पण की पंक्ति आदि ऐसे प्रयोग इसकी ओर संकेत करते हैं। पालि शब्द की निष्पत्ति 'पाल' या 'पा' धातु से मानी गई।'पा पालेति रक्खनीति पालि'- रक्षा करने वाली, पालन करने वाली पालि है।
संस्कृत की ही भाँति बौद्ध ग्रन्थों में पालि शब्द 'मूल ग्रन्थ' के लिए प्रयुक्त हुआ है। 'महावंश' में बुद्धघोष की अट्ठकथाओं को लक्ष्य करके कहा गया है कि- 'थेरियाचरिये सब्बे पालिविय तमग्गहुं'। और 'जम्बूदीपे पन पालिमत्तंयेव अत्थि अट्कथा पन नात्थि ।
पालि की भाषागत विशेषताएँ
अशोक-कालीन धर्म लिपि की भाषाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस काल में अनेक बोलियाँ प्रचलित थीं। साहित्यिक भाषाओं में इन बोलियों की विशेषताएँ स्थल-स्थल पर व्यक्त होती हैं, अतः पालि और संस्कृत में भी यह समान रूप से उपलब्ध हैं। पालि में तत्कालीन बोलियों के दर्शन हो जाते हैं और संस्कृत में भी।
ऋग्वेद किसी एक ऋषि द्वारा किसी एक काल की रचना नहीं है। इसमें अनेक होंगे, यह निर्विवाद है। अतः अनेक बोलियों का सम्मिश्रण भी हमें ऋग्वेद में मिलता है। धीरे-धीरे लगे युग ऋग्वेद कालीन भाषा विकसित होती गई । ब्राह्मण ग्रन्थों में भाषा के विकसित रूपों से यह स्पष्ट है। पाणिनि ने ऋग्वेद की भाषा को व्याकरण के नियमों में आबद्ध करके साहित्यिक रूप प्रदान किया। संस्कारों से युक्त होने के कारण ही इसे संस्कृत कहा गया। ब्राह्मण ग्रन्थों या यास्काचार्य, पाणिनि आदि के समय तक संस्कृत व्यवस्थित हो गई थी। वेदों की भाषा को 'छान्दस्' नाम से अभिहित किया जाता है और परवर्ती भाषा को 'संस्कृत' नाम से। बुद्ध द्वारा भी वेद - भाषा को 'छान्दस्' नाम से पुकारा गया है।
एक ओर तो वेदविहित भाषा आचार्यों द्वारा परिष्कृत सुसम्बद्ध रूप ग्रहण कर रही थी, दूसरी ओर आर्यों की बोलचाल की भाषा भी विकसित हो रही थी। वेद की भाषा 'संस्कृत' कहलाई और बोलचाल की भाषा 'पालि'। पालि चूँकि बोली थी अतः यह विकसित होती रही। मध्यकाल में बौद्धों के द्वारा इसे साहित्यिक व धार्मिक गौरव प्राप्त हुआ। पालि में प्राचीन और अर्वाचीन दोनों रूप मिले-जुले हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्यकालीन आर्य भाषा युग में 'संस्कृत' और 'पालि' भिन्न-भिन्न रूपों में विकसित हुईं। ऋग्वेद का अध्ययन करने से स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है कि वैदिक-कालीन भाषा में अनेकरूपता है। अथवा यह कहें कि यही इस भाषा की विशेषता है तो अनुचित न होगा। वैदिक भाषा की यह विशेषता संस्कृत में न होकर पालि में अधिक है। संस्कृत व्याकरण के नियमों में बँध गई है किन्तु पालि इस कठिन बन्धन से इतनी अधिक कसी हुई नहीं है। उदाहरणार्थ- वैदिक भाषा में- अकारान्त शब्द के तृतीया बहुवचन रूप हैं- कणेभिः, देवेभिः। संस्कृत भाषा में ये दैवैः', 'कर्णे.' हो गए हैं। किन्तु पालि ‘देवेभि’ या ‘देवेहि’, कण्णेभि या कण्णेहि' रूप ही मिलते हैं ।
इसी भांति वैदिक संस्कृत के 'विश्चन्' 'च्यवन्' नपुसंकलिंग शब्द के प्रथमा बहुवचन रूप 'विश्वा' और 'च्यवना' मिलते हैं, पालि में भी ऐसी ही प्रवृत्ति है । किन्तु लौकिक संस्कृत में नहीं । इसी भाँति उत्तम पुरुष बहुवचन का 'मसि' वैदिक प्रयत्य का पालि के रूप में हैं 'मसे'। वैदिक भाषा में प्रथम पुरुष बहुवचन में 'रे' प्रत्यय लगता है, लौकिक संस्कृत में यह लुप्त है किन्तु पालि में 'पच्चरे', 'भासरे' आदि रूप मिलते हैं। ये उदाहरण भरतसिंह उपाध्याय ने 'पालि साहित्य के इतिहास' में निर्देशित किए हैं। इस आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक संस्कृत और पालि एक दूसरे के अधिक निकट है।
पालि और लौकिक संस्कृत के तुलनात्मक अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। दोनों ही मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ हैं। दोनों एक ही काल में एक ही मूल वैदिक भाषा से विकसित हुईं किन्तु फिर भी दोनों में पर्याप्त विषमताएँ भी हैं।
इस प्रकार , पालि भाषा भारतीय भाषाओं के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसने न केवल भारतीय भाषाओं की शब्दावली और व्याकरण को प्रभावित किया, बल्कि भारतीय संस्कृति और साहित्य को भी समृद्ध किया। पालि भाषा के अध्ययन से हमें भारतीय भाषाओं और संस्कृति के विकास को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।
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