रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि और समीक्षा सिद्धांत रामविलास शर्मा हिंदी साहित्य के एक प्रखर आलोचक, विद्वान और विचारक थे। 20वीं शताब्दी के मध्य में,
रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि और समीक्षा सिद्धांत
रामविलास शर्मा हिंदी साहित्य के एक प्रखर आलोचक, विद्वान और विचारक थे। 20वीं शताब्दी के मध्य में, उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से साहित्यिक आलोचना की नींव रखी और 'प्रगतिवादी आलोचना' के स्तंभ बन गए।
डॉ.रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक हैं। उनके सम्बन्ध में डॉ. बच्चन सिंह ने लिखा है कि- “मार्क्सवादी आलोचकों में रामविलास शर्मा की दृष्टि सर्वाधिक पैनी, स्वच्छ तथा तलस्पर्शी है विचारों के स्तर पर वे कहीं भी समझौतावादी नहीं होते। वे बहुत ही खरे दो टूक बात करने वाले निर्भीक आलोचक हैं।”
मार्क्सवादी आलोचना का प्रादुर्भाव डॉ. रामविलास के पूर्व ही हो चुका था। 'हंस' के सम्पादक के रूप में डॉ. शिवदत्त सिंह चौहान उसके सैद्धान्तिक पक्ष पर बहुत कुछ लिख चुके थे। प्रकाशचन्द्र गुप्त ने भी इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये थे। आरम्भ में प्रगतिवाद साहित्य की व्यापक प्रगतिशील चेतना के उन्मेष को लेकर अवतीर्ण हुआ था, किन्तु बाद में उसका आशय कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों का उदघोषणा मात्र रह गया था। मार्क्सवादी साहित्यकार केवल उस साहित्य को उत्तम मानते थे जिसमें सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष का चित्रण हो, पार्टी की नीतियों के आधार पर जनता को सशस्त्र क्रान्ति की चेतना प्रदान की गई हो। इस संकीर्णता की कटु आलोचना भी हुई। शनैः-शनैः साहित्यकारों ने इस संकीर्णता से मुक्त होने का प्रयास भी किया।शर्मा जी की आलोचना दृष्टि और समीक्षा सिद्धान्त मे निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ दृष्टिगत होती हैं -
मार्क्सवादी आलोचक
जहाँ तक डॉ. रामविलास शर्मा का प्रश्न है. वे मार्क्सवादी आलोचक होने के कारण साहित्य में सर्वहारा वर्ग के चित्रण पर अधिक जोर देते हैं। 'साहित्य सन्देश' में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने कहा है-“साहित्य की रचना करते समय साहित्यकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह 'सर्वहारा' का सहयोगी साहित्य निर्मित करे।" लेकिन यह एक संकीर्ण मनोवृत्ति है। समाज में केवल सर्वहारा वर्ग की ही समस्याएँ नहीं हैं; वर्ग-वैषम्य से पीड़ित जनता भी है। क्या प्रगतिशील साहित्य को उनके विषय में नहीं सोचना चाहिए ? केवल 'सर्वहारा वर्ग' की बात कहना साहित्य को संकीर्ण परिधि में आबद्ध कर देता है।
परम्परा उत्थान
रामविलास शर्मा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने प्रत्येक नवीन का समर्थन किया तथा प्रत्येक प्राचीन का विरोध नहीं किया। उन्होंने उन मार्क्सवादी आलोचकों पर आरोप लगाया जिन्होंने पंक्तियाँ खोज-खोजकर तुलसीदास को प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी आदि सब कुछ कहा है। उनका है - "यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने साहित्य की पुरानी परम्पराओं से परिचित हों। परिचित होने के साथ-साथ हमें उनके श्रेष्ठ तत्त्वों को भी ग्रहण करना चाहिए।"
व्यंग्य की मार
रामविलास शर्मा की समीक्षा शैली की एक प्रमुख विशेषता व्यंग्य की मार भी थी। डॉ. नगेन्द्र की 'विचार और अनुभूति' नामक पुस्तक पर चुटकी लेते हुए वे कहते हैं कि- “नगेन्द्र जी के विचार उन्हें एक कदम आगे ढकेलते हैं तो उनकी अनुभूति उन्हें चार कदम पीछे घसीट ले जाती है। इस पुस्तक का नाम एक कदम आगे तथा चार कदम पीछे भी हो सकता था।”
एक अन्य उदाहरण देखिये-
नगेन्द्र जी के यहाँ हर चीज शुद्ध है। बानगी देखिये-
(1) साहित्य के क्षेत्र में तो शुद्ध मनोविज्ञान का ही अधिक विश्वास उचित होगा ।
(2) लोक प्रचलित अस्थायी वादों के द्वारा साहित्य का रस शुद्ध हो जाता है।
(3) छायावाद निश्चित ही शुद्ध कविता है।
हम अपनी ओर से यही कह सकते हैं कि नगेन्द्र जी की आलोचना बिल्कुल शुद्ध आलोचना होती है। प्रामाणिक आलोचना-शर्मा जी की समीक्षा शैली की एक अन्य विशेषता यह है कि उसमें उदाहरण विद्यमान रहते हैं। इससे आलोचना सशक्त हो जाती है। उन्होंने जब महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन की विचारधारा की आलोचना की थी तो साहित्य में जैसे एक भूचाल आ गया था। किन्तु उन्होंने प्रमाण देकर अपनी बात कही थी इसलिए आने वाले तूफान से अप्रभावित रहे। स्वयं उनकी आलोचना जब अमृतराय ने 'हंस' में की तो उन्होंने यही कहा कि आप प्रमाण दीजिए, बिना प्रमाण दिए मैं आपके किसी आरोप पर गम्भीरता से विचार नहीं करूँगा ।
शर्मा जी एक सफल आलोचक हैं। उनके जिन गुणों ने उन्हें सफल आलोचक बनाया है वे हैं—विद्वता, भाषाधिकार, प्रामाणिक बात कहने की आदत, वैज्ञानिक दृष्टि, निष्पक्षता ।
निष्पक्षता
निष्पक्षता के गुण ने जहाँ एक ओर शर्मा जी से किसी की भी बेहिचक आलोचना कराई है, वहीं दूसरी ओर छोटे-छोटे लेखकों को यथोचित सम्मान भी दिलवाया है। उनकी विशेषता है कि उनमें अहंकार नाममात्र को भी नहीं है। प्रायः प्रसिद्धि प्राप्त विद्वान नवोदित साहित्यकारों की उपेक्षा करते हैं। किन्तु शर्मा जी किसी भी नये रचनाकार का उद्धरण बड़ी उदारता से अपनी रचना में दे देते हैं। यह उनकी निष्पक्षता ही है जो वे एक और पन्त और राहुल जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकारों को नहीं बख्शते तथा दूसरी ओर नये रचनाकारों की वांछनीय सराहना करते हैं।
सामाजिक यथार्थ के समर्थक
डॉ. रामविलास शर्मा ने हिन्दी में सन्त साहित्य, भारतेन्दु युग, छायावाद, प्रेमचन्द, निराला आदि पर अत्यन्त सुलझे हुए विचार व्यक्त किए हैं। सन्त कवियों के विषय में उन्होंने लिखा' है—“सदियों के सामन्ती शासन की शिला के नीचे जन-साधारण की सहृदयता का जल सिमट रहा था, सन्त कवियों की वाणी के रूप में वह अकस्मात फूट पड़ा तथा उसने समूचे भारत को रस सिक्त कर दिया। भारतेन्दु युग की नव्य-चेतना तथा नव-जागरण ने उन्हें प्रभावित किया और उन्होंने मुक्त कण्ठ से उसकी सराहना की। प्रेमचन्द की जनवादी चेतना के वह मुक्त कण्ठ से प्रशंसक हुए। उनका कथन है- “हिन्दुस्तान के किसानों को प्रेमचन्द की रचनाओं में जो आत्माभिव्यंजन मिला, वह भारतीय साहित्य में बेजोड़ है।
प्रगतिशील आलोचक
छायावादी काव्यधारा का उन्होंने अभिनन्दन किया तथा नई रोमांटिक कविता की सराहना करते हुए उन्होंने कहा- "नई रोमांटिक कविता ने नायक-नायिकाओं की क्रीड़ा के स्थान पर व्यक्ति एवं उसके भावों-विचारों को प्रतिष्ठित किया। निष्प्राण प्रतीकों के स्थान पर सजीव भावों के द्वारा वे साहित्य को जीवन के समीप लाए।” निराला के वे प्रशंसक हैं। उन्होंने ईमानदारी के साथ स्वीकार किया है—“बारह वर्ष तक इतने निकट सम्पर्क में रहने के कारण उन पर पूर्ण तटस्थता से लिखना मेरे लिये प्रायः असम्भव है ।" किन्तु है।" उन्होंने अपने प्रयास के सन्दर्भ में घोषित किया है—“साहित्य के हित को ध्यान में रखते हुए मैंने यही प्रयास किया है कि कहीं उनकी अनुचित प्रशंसा न हो और कहीं भी उनके साहित्य की कमजोरियों पर पर्दा डालने से हमारी नई साहित्यिक प्रवृत्तियों का अहित न हो।” यह कहना उचित होगा कि यही दृष्टि प्रत्येक आलोचक में होनी चाहिए, तभी उनकी आलोचना सही होगी।
छन्दोबद्ध कविता के समर्थक
डॉ. रामविलास शर्मा आमतौर पर छन्दोबद्ध कविता के समर्थक हैं। फिर भी उन्होंने निराला के मुक्त छन्द की प्रशंसा की है। कारण यह है कि निराला के मुक्त छन्द में गेयता, ध्वनि साम्य, सानुप्रासिकता, काव्य गुणों की सत्ता आदि विशेषताएँ रहती हैं। इसके विपरीत जिन कवियों के मुक्त छन्द कोरे गद्य में बदल जाते हैं, उनकी उन्होंने कटु आलोचना की है।
पूँजीवाद का विरोध
डॉ. रामविलास शर्मा साम्राज्यवाद, पूँजीवाद आदि के कट्टर शत्रु हैं तथा जिन रचनाओं में इनकी यत्किंचित भी झलक मिलती हो, उनकी वे आलोचना करते हैं। उनका मत है- “जो पूँजीवाद या साम्राज्यवाद की खुशामद करे, उन्हें स्थायी बनाने में मद्द करे, प्रगति के मार्ग पर काँटे बिछाए, वह देश का शत्रु है और हिन्दी का शत्रु है, धर्म और संस्कृति के नाम पर जनता का गला घोंटकर वह पूँजीवाद के दानव को मोटा करना चाहता है। उनसे सभी लेखकों तथा पाठकों को सतर्क रहना चाहिए।"
उपसंहार
डॉ. रामविलास शर्मा की विचारधारा में काव्यशास्त्र की परम्परागत मान्यताओं के लिए कोई स्थान नहीं। वे रस तथा अलंकार विषयक प्राचीन मान्यताओं के विरुद्ध हैं। रस को 'ब्रह्मानन्द सहोदर' कहने वालों के साथ उन्होंने खूब चुटकियाँ ली हैं। आधुनिक युग में प्राचीन रस सिद्धान्त की निःसारता उन्होंने प्रमाणित की हैं, परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि वे प्रत्येक प्राचीनता के विरोधी हैं। पूर्व में यह उल्लेख किया जा चुका है कि वे सन्त साहित्य एवं तुलसी के प्रशंसक रहे हैं। 'मध्यकालीन हिन्दी कविता में गेयता' में वे लिखते हैं-" गाँव के किसानों को आए दिन के व्यवहार में तुलसी, रहीम, सूर, गिरधर आदि की उक्तियाँ उद्भव करते सुनिए तो पता चलेगा कि वे साहित्यकारों के शब्दों को किस प्रकार अपने जीवन में परखते चलते हैं जो साहित्य इस प्रकार उनके जीवन में घुल-मिल जाता है, वही टिकाऊ होता है, दूसरा नहीं।"
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि डॉ. रामविलास शर्मा आधुनिक हिन्दी आलोचकों की अग्रिम पंक्ति के आलोचक हैं। शर्मा जी की आलोचना दृष्टि का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने साहित्यिक मूल्यांकन के नए मानदंड स्थापित किए और आलोचना में नए विचारों को जन्म दिया।उनकी आलोचना के कुछ महत्वपूर्ण पहलू आज भी प्रासंगिक हैं और साहित्यकारों और आलोचकों को प्रेरित करते रहते हैं।
राम विलास शर्मा जी एक बहुत ही विद्वान आलोचक थे
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