भारतीय काव्यशास्त्र में साधारणीकरण का सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र में, साधारणीकरण एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो रस (सौंदर्यपूर्ण आनंद) की अनुभूति में
भारतीय काव्यशास्त्र में साधारणीकरण का सिद्धांत
भारतीय काव्यशास्त्र में, साधारणीकरण एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो रस (सौंदर्यपूर्ण आनंद) की अनुभूति में केंद्रीय भूमिका निभाती है। यह सिद्धांत दर्शाता है कि कैसे काव्य-पाठक या दर्शक, काव्य-पात्रों और घटनाओं से अपनी व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों को अलग करके, सामान्य मानवीय भावनाओं से जुड़कर रस का अनुभव करते हैं।
साधारणीकरण का अर्थ एवं परिभाषा
साधारणीकरण का सामान्य अर्थ होता है- असाधारण को साधारण बनाकर प्रस्तुत करना। इस सिद्धान्त के सन्दर्भ में जब साधारणीकरण की चर्चा होती है, तब तत्काल हमारा ध्यान इसके विभिन्न अवयवों पर जाता है। भरतमुनि के प्रसिद्ध सूत्र- 'विभानुभावव्यभिचारि, संयोगाद्रसनिष्पतिः' के अनुसार विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी अथवा संचारी भाव और स्थायी आदि रस के विभिन्न अवयव हैं। यहाँ यह प्रश्न उठना नितान्त स्वाभाविक है कि इनमें से साधारणीकरण किसका होता है ? रस के किसी एक अवयव का अथवा उन सबका। इसी स्वाभाविक जिज्ञासा ने रस-सिद्धान्त के सन्दर्भ में साधारणीकरण की चर्चा को जन्म दिया। रस-सूत्र के प्रारम्भिक चार व्याख्याताओं- भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक और अभिनव गुप्त के समय से आधुनिक आलोचकों में पं० रामचन्द्र शुक्ल और डॉ० नगेन्द्र तक इस जिज्ञासा के समाधान की प्रक्रिया निरन्तर चलती आयी है।
साधारणीकरण की अवधारणा का उन्मेष
भट्ट लोल्लट और शंकुक द्वारा की गयी रस-सूत्र की व्याख्या में कहीं भी साधारणीकरण पद का प्रयोग नहीं हुआ था। सर्वप्रथम भट्टनायक ने इसकी अपनी व्याख्या में साधारणीकरण का प्रयोग किया। उनके अनुसार, रसनिष्पत्ति की प्रक्रिया में क्रमशः तीन व्यापार होते हैं, जिन्हें (1) अभिधा, (2) भावकत्व और (3) भोजकत्व कहते हैं। अभिधा के द्वारा सहृदय या सामाजिक को नाट्य अथवा काव्य के अर्थ का बोध होता है। भावकत्व के द्वारा विभावादि का साधारणीकरण होता है, अर्थात् आलम्बन, उद्दीपन आदि सभी विशिष्टता खोकर साधारण बन जाते हैं तब भोजकत्व व्यापार द्वारा' सामाजिक रस का भोग करता है। भट्टनायक ने भावकत्व को साधारणीकरण की संज्ञा दी है और विभावादि के साथ स्थायीभाव तक का साधारणीकृत होना स्वीकार किया है। उन्हीं के शब्दों में 'भावकत्व साधारणीकरण तेन ही व्यापारेण विभावादयः स्थायी च साधारणीक्रियन्ते ।'
भट्टनायक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने रस की व्याख्या में सर्वप्रथम सामाजिक को केन्द्र-बिन्दु बनाया और इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया कि सहृदय को रस की प्रतीति किस प्रकार होती है, तथापि साधारणीकरण की उनकी व्याख्या पूर्ण नहीं है और उनके उत्तरवर्ती आचार्य अभिनवगुप्त ने उसमें अनेक खामियों की ओर संकेत किया है।
भट्टनायक की विवेचना पर अभिनव गुप्त का सबसे बड़ा आक्षेप यह है कि उनके द्वारा रसानुभूति की प्रक्रिया में भावकत्व और भोजकत्व व्यापार की कल्पना शास्त्रसम्मत नहीं है। अतः उसे निरर्थक समझना चाहिए। भट्टनायक के पूर्व आचार्य भरतमुनि के समय से ही यह विवाद चला आ रहा था कि रस की स्थिति किसमें मानी जाये- अनुकार्य में, अनुकर्त्ता में अथवा सामाजिक में। सबने रस की स्थिति सामाजिक के बाहर स्वीकार की और इसीलिए रसानुभूति की प्रक्रिया में व्यवधान खड़ा होता रहा। अन्य में स्थित रस की चर्वणा अन्य कैसे कर सकता है ? पदार्थों में निहित रस जैसे गन्ने का रस, आम का रस में तो यह सम्भव है, किन्तु काव्य-रस में यह सम्भव नहीं। इसका उत्तर न स्वयं भरत के पास था और न उनके व्याख्याताओं के पास। सर्वप्रथम इस जटिल समस्या का समाधान अभिनव गुप्त ने सुझाया। उनके अनुसार रस न अनुकार्य में स्थित होता है और न अनुकर्त्ता में। वह सहृदय अथवा सामाजिक के अन्तःकरण में वासना-रूप में विद्यमान रहता है और विभावादि के संयोग से अभिव्यक्ति को प्राप्त करता है। इसलिए अभिनव गुप्त के सिद्धान्त को अभिव्यक्तिवाद की संज्ञा से अभिहित किया गया। काव्य में विभावादि के कलात्मक वर्णन और नाट्य में उसके वैसे ही कलात्मक प्रदर्शन से सामाजिक के अन्तःकरण में स्थित स्थायी भाव साधारणीकृत हो जाते हैं। सामाजिक के अन्तःकरण में स्थित वासनात्मक स्थायी भाव का साधारणीकरण होते ही उसके कारण रूप विभावादि भी साधारणीकृत हो जाते हैं, जिससे सहृदय को विभावादि विशिष्ट न प्रतीत होकर साधारण लगते हैं। इस तरह वह विभावादि के साथ तन्मय हो जाता है। इस तन्मयी भावना को तादात्म्य कहते हैं। संक्षेप में, अभिनव गुप्त के मतानुसार प्रेक्षक का अनुकर्त्ता से तादात्म्य स्थापित हो जाता है। इस अवस्था में सहृदय का स्थायीभाव साधारणीकृत होकर आस्वाद्य बन जाता है।
साधारणीकरण की यह व्याख्या इतनी लोकप्रिय हुई कि परवर्तियों ने उसे उसी रूप में अपना लिया। आधुनिक काल में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पुनः साधारणीकरण की नये सिरे से व्याख्या की। उनके अनुसार- "जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता है कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलम्बन हो सके तब तक उसमें रसोद्बोधन की पूर्ण शक्ति नहीं आती। इसी रूप में लाया जाना हमारे यहाँ 'साधारणीकरण' कहलाता है।" अपनी चिर परिचित शैली में इस परिभाषा का स्पष्टीकरण देते हुए वे पुनः लिखते हैं- “साधारणीकरण का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष आती है, वह जैसे काव्य के वर्णित आश्रय के भाव का आलम्बन होती है, वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलम्बन हो जाती है। इससे सिद्ध हुआ कि साधारणीकरण धर्म का होता है। व्यक्ति तो विशेष ही रहता है, पर उसकी प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती है, जिसके साक्षात्कार से सब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा या बहुत होता है। तात्पर्य यह है कि आलम्बन स्वरूप में प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति समान प्रभाव वाले कुछ धर्मों की प्रतिष्ठा के कारण सबके भावों का आलम्बन हो जाता है।”
साधारणीकरण का महत्व
उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि शुक्ल जी की दृष्टि में आलम्बन, आलम्बनत्वं धर्म और स्थायी भाव सबका साधारणीकरण होता है। शुक्ल जी ने आलम्बन और आलम्बनत्व धर्म के साधारणीकरण की जो बार-बार चर्चा की, उसका एक विशेष कारण है। वे सौन्दर्य को सुन्दर वस्तु से भिन्न नहीं मानते थे। सुन्दर वस्तु के दर्शन में ही दर्शक के मन में सौन्दर्य का उद्बोधन होता है। यह सच है कि कर्ता अपनी कृतियों के माध्यम से हमारी प्रियता प्राप्त करता है, किन्तु कालान्तर में वह इतना प्रसिद्ध हो जाता है कि उसके स्मरण मात्र से हम उसके द्वारा बतायी गयी राह की ओर आकर्षित होने लगते हैं। स्वाधीनता आन्दोलन के उन दिनों में जब शुक्ल जी समीक्षा में आये तो देश में ऐसे महान पुरुषों की आवश्यकता थी, जो हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर सकें। तिलक गोखले, गाँधी उन्हीं में से थे। गाँधी ने बार-बार रामराज्य लाने की बात की और उससे जनता को आकर्षित करना चाहा। रामराज्य का मतलब क्या था, राम का राज्य। राम के बिना रामराज्य की कल्पना करना व्यर्थ है। यही ऐतिहासिक सन्दर्भ है, जिसके कारण शुक्ल जी बार-बार आलम्बन (राम) और आलम्बनत्व धर्म (राम के गुण, शील) के साधारणीकरण का उल्लेख करते हैं।
छायावाद युग में जब काव्य के क्षेत्र में नवीन क्रान्ति हुई और कविता में 'विभाव-वर्णन' का स्थान वेदना की स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति ने ले लिया, तब एक बार पुनः साधारणीकरण का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। जब आलम्बन और आलम्बनत्व धर्म ही कविता से लुप्त हो जायें तब साधारणीकरण किसका माना जाय। उस स्थिति में रस-सिद्धान्त के प्रबल समर्थक डॉ० नगेन्द्र को साधारणीकरण की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करनी पड़ी। उन्होंने स्थापित किया कि साधारणीकरण कवि की अनुभूति का होता है। कवि की अनुभूति चाहे ऐतिहासिक अथवा काल्पनिक पात्रों का सहारा लेकर खड़ी हो अथवा स्वतन्त्र रूप से काव्य में व्यक्त हो, है वह कवि की अनुभूति ही, अतः साधारणीकरण उसी का होता है। राम-सीता और दुष्यन्त शकुन्तला कौन हैं ? वही न जिनको वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। जिस प्रकार कविवर्णित उन पात्रों का साधारणीकरण होता है, उसी प्रकार कवि की अनुभूति का भी ।
इस प्रकार साधारणीकरण भारतीय काव्यशास्त्र में एक शक्तिशाली अवधारणा है जो काव्य को कला, मनोरंजन और शिक्षा का एक अद्वितीय रूप बनाती है। यह हमें सौंदर्य, आनंद, सहानुभूति, ज्ञान और आत्म-अनुभूति प्रदान करता है।यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि साधारणीकरण ही भारतीय काव्य की आत्मा है।
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