साहित्य का समाजशास्त्र

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साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य और समाज के बीच संबंधों का अध्ययन है। यह साहित्यिक रचनाओं को सामाजिक संदर्भ में रखकर उनका विश्ले

साहित्य का समाजशास्त्र


साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य और समाज के बीच संबंधों का अध्ययन है। यह साहित्यिक रचनाओं को सामाजिक संदर्भ में रखकर उनका विश्लेषण करता है, जिसमें उनकी रचना, प्रकाशन, वितरण और पाठकों द्वारा ग्रहण किए जाने की प्रक्रियाएं शामिल हैं।

समाज मनोविज्ञान का अध्ययन करते हुए यह अनुभव किया गया कि व्यक्ति मन को, उसके समाज और उसकी संस्कृति से अलग करके समझा नहीं जा सकता। जिस बात को हम अपनी व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा समझते हैं, उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश के तत्त्वों का प्रवेश इस प्रकार हो गया होता है कि वह व्यक्ति के मन के अंग बन जाते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति का मन ही हमारे सामने आता है, किन्तु विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि व्यक्ति-मन के निर्माण में सामाजिक परिस्थितियों का योगदान बहुत दूर तक रहा है। वास्तविक स्थिति यह है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों के अन्वेषण के बिना व्यक्तिगत मनोवृत्तियों का अध्ययन नहीं हो सकता और न ही व्यक्ति चरित्र का निर्माण हो सकता है। परिणामतः साहित्य की आलोचना में मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का प्रवेश हो गया है।
 
समाजशास्त्र और साहित्य में उसी प्रकार आदान-प्रदान होता है। जिस प्रकार साहित्य और मनोविज्ञान में। किसी पात्र का चरित्र पूर्ण रूप से विकसित नहीं किया जा सकता, जब तक कि उसका मानसिक विकास न दिखलाया जाय और मानसिक विकास तब तक पूर्णरूपेण समझ में नहीं आ सकता, जब तक कि उसके आधार रूप सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों को स्पष्ट न कर लिया जाय । दूसरे शब्दों में किसी सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में ही किसी व्यक्तित्व को खड़ा किया जा सकता है। जिस प्रकार मनोविज्ञान में साहित्य-प्रदत्त अनुभवों से सामग्री लेकर मानसिक सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है, उसी प्रकार समाजशास्त्रियों ने व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में जीवन और साहित्य से सामग्री एकत्र कर सिद्धान्तों का निर्माण किया है।
 

समाजशास्त्रीय समीक्षा का उदय

18वीं शताब्दी के मध्यभाग में फ्रांस में वाल्टेयर और जर्मनी में स्टेनवर्ग, लेसिंग आदि आलोचक इस नये आन्दोलन का साहित्य-क्षेत्र में नेतृत्व करते हुए दिखायी पड़ते हैं। फ्रांस की 18 वीं शताब्दी की आलोचिका ममदे-स्तेल ने साहित्य का अध्ययन सामाजिक संस्थाओं की सापेक्षता में करते हुए लिखा था- “धार्मिक या राजनीतिक धारणाओं का साहित्य पर अपरिहार्य प्रभाव पड़ता है।” आन्द्रेशेनियर ने वातावरण, सामाजिक नियम, रीतिरिवाज और सामयिक परिस्थितियों से श्रेष्ठ साहित्य का कार्य-कारणात्मक सम्बन्ध स्थापित किया है। 

साहित्य का समाजशास्त्र
वाल्टेयर ने साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में जातिगत विशेषताओं पर जोर दिया है। उसने लिखा है- “जिस जाति में स्त्रियाँ पराधीन हैं और पर्दे के अन्दर रहती हैं। उसके साहित्य से उस जाति का साहित्य भिन्न होगा जिसमें स्त्रियाँ स्वाधीन रहती हैं।" 18 वीं शताब्दी के बाद इसी आलोचना की परम्परा 19 वीं सदी के समाज-विज्ञानों की परम्परा का अंग बन गयी।

साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन का जो सूत्रपात 18 वीं शताब्दी में हुआ, उसके दृष्टिकोण में तेजी से अन्तर आता गया। 18 वीं शताब्दी तक तो समाजशास्त्र का अपने आधुनिक रूप में उदय तक नहीं हुआ था। वस्तुतः समाजशास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन सन् 1938 ई० में सोसियोलोजी (Sociology) शब्द के निर्माण के साथ हुआ।
 
सर्वप्रथम काण्ट नामक समाजशास्त्री ने सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर विचार व्यक्त किया। उन्होंने ही पहली बार सामाजिक घटनाओं के अध्ययन क्षेत्र से कल्पना अथवा अनुमानित विचारों को दृढ़तापूर्वक निकालकर उसे वैज्ञानिक तथ्यों से सींचा। साहित्य को भी एक सामाजिक घटना के रूप में स्वीकृति इसी समय में मिली। इसे साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टि का प्रथम चरण कहा जा सकता है। इस नयी प्रणाली के प्रयोग के साथ समाजशास्त्र का गणित, सांख्यिकी, राजनीति, धर्मयुद्ध, मनोविज्ञान, कला और साहित्य से सम्पर्क बढ़ा।
 
समाजशास्त्र समाज-संगठन का वैज्ञानिक अध्ययन है और संगठन में योग देने वाले जो भी विषय हैं, सबका समाजशास्त्र से सम्बन्ध हैं। इसलिए विभिन्न विषयों के समाजशास्त्रीय अध्ययन की परम्परा का सूत्रपात हुआ है। साहित्य के समाजशास्त्र विषय पर अभी पर्याप्त विचार नहीं हुआ है, फिर भी इस ओर विचारकों ने ध्यान दिया है और नयी उपलब्धियाँ सामने आयी हैं। 'साहित्य के समाजशास्त्र' विषय पर विचार करने वाले विद्वानों में हेण्डरसन, हेरीलेविन, एडविन सेविंगमैन, कैण्टवेल, स्टिवर्ट, एच० डी० डंकन, टी० ओटोमोर, डॉ० राधाकमल मुखर्जी आदि प्रमुख हैं।
 
साहित्य की समाजशास्त्रीय व्याख्या के तीन रूप देखने को मिलते हैं। पहले में आलोचकों का वह वर्ग आता है, जो मूलतः साहित्यिक उद्गम का होता है, दूसरे वर्ग में वे आलोचक हैं, जो किसी गूढ़ वैज्ञानिक परम्परा से सम्बद्ध हैं और हर चीज की व्याख्या उसी दृष्टि से करने में अग्रणी हैं। दूसरे मार्क्सवादी आलोचक इसी प्रकार के मनोविश्लेषणवादी भी होते हैं। तीसरा साहित्य की समाजशास्त्रीय आलोचना का वर्ग मूलतः समाजशास्त्रियों का है, जो समाजशास्त्र की दृष्टि से समाज की आलोचना करते हैं। ये आलोचक साहित्य के विभिन्न समाजगत प्रेरणा- केन्द्रों का अध्ययन करते हुए साहित्य की मूल चेतना को उद्घाटित करने का प्रयत्न करते हैं।
 
समाजशास्त्रीय आलोचना के साथ कुछ समाजवादी आलोचकों ने भ्रम फैलाने का प्रयास किया है, पर विश्वास है इस आलोचना-पद्धति की पूर्ण रूप से स्थापना हो जाने के बाद इससे सम्बन्धित बहुत सारे भ्रमों का उद्घाटन हो जायेगा। बहुत समय तक एक धारणा थी कि सामाजिक घटनाओं के अपूर्ण हो जाने के कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बाहर है, पर कौन्तले ने चिन्तन में इस भ्रम का निराकरण कर दिया है। ठीक इसी प्रकार यह धीरे-धीरे सुनिश्चित होता जा रहा है कि साहित्य की सम्पूर्ण विषय-वस्तु सामाजिक घटनाओं के विभिन्न तत्त्वों से सम्बन्धित है। साहित्य अपने समाज की संस्कृति के मूल्यों का वाहक एवं व्याख्याता है। समाज में मनुष्यों की वृद्धियों के परिष्कार, मूल्यों के विस्तार और अन्तस्सम्बन्धों की स्थापना करने वाली एक कार्य-प्रणाली होने के कारण स्वयं एक संस्था है, जातीय गुण भी एक शक्तिशाली माध्यम है।
 
लेखक या कलाकार का एक समूह मन होता है। वह अपनी रचना के माध्यम से अपने इसी समूह मन को अभिव्यक्त करता है। इसीलिए इसमें पाठक और आलोचक भी बन पाते हैं। शेक्सपीयर ने कभी विश्वमानव की अभिवृत्तियों के विस्तार का ध्यान कर अपने नाटकों की रचना की थी, किन्तु- अपने इस समूह में ऐसे आदर्श पुरुषों का चयन और अभिव्यक्तिकरण करने में स्वयं समर्थ था, जिसके कारण उसकी वृत्तियों में वर्णित वस्तु सम्पूर्ण विश्व-मानव, विश्व-समूह की वस्तु है। यही कारण है कि साहित्य के छोटे-से-छोटे समूह-उत्पाद से बृहत्तर समूह में विस्तार ज्ञान के समाजशास्त्र पर विचार करते समय भी इसी ढंग से विचार किया जा सकता है। इस प्रकार साहित्य के अध्ययन के लिए समाजमिति-पद्धति का सफल प्रयोग किया जा सकता है। साहित्य के द्वारा समूह की अभिव्यक्तियों का अध्ययन कर उसके अन्तरसम्बन्धों के मनोवैज्ञानिक स्वरूपों का पता लगाया जा सकता है।

साहित्य का समाजशास्त्रीय विश्लेषण और दिशाएँ

साहित्य को एक सामाजिक संस्था होने का गुण प्राप्त है। जिस प्रकार संस्थाओं की निर्धारित संरचना होती है। उसके कुछ मूल्य और आदर्श होते हैं और सदस्य उन्हीं के अनुसार अपनी भूमिका अदा करते हैं। उसी प्रकार साहित्य-संस्था की भी निर्धारित संरचना होती है, सीमाएँ होती हैं। सभी लिखित सामग्री साहित्य नहीं है। उसकी रचना में कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन और विघटन के मूल्यों का दिग्दर्शन होता है। निर्धारित मूल्यों के आधार पर सत्य, शिव और सौन्दर्यमूलक आदशों की अभिव्यक्ति होती है और साहित्य इन मूल्यों और अभिव्यक्ति के साथ भूमिका प्रकट करता है। 'रामचरितमानस' द्वारा कवि ने यह बताया है कि समाज कैसा होना चाहि, उसमें पिता, पुत्र, माता, भाई, भार्या, राजा, मन्त्री आदि की स्थिति क्या होनी चाहिए। इस प्रकार प्रकट रूप में ही नहीं, परोक्ष रूप में भी साहित्य-संस्था का कार्य करता है।
 

साहित्य का संस्थात्मक स्वरूप

साहित्य एक ऐसी संस्था है, जो शब्दों को माध्यम बनाकर मानव-जीवन की विविध वृत्ति में (शृंगार, उत्साह, क्रोध, भय का) रागात्मक चित्रण कर मानव मूल्यों .की स्थापना करती है। इस चित्रण की तीन विशेषताएँ हैं- 
  1. गहनता - गहनता अर्थात् सामान्य से सामान्य इस ढंग से कहना कि उसमें इतनी मर्मस्पर्शिता हो, इतना वजन आ जाय कि उससे कोई भी अप्रभावित न रह जाय। जैसे 'मेघदूत' की नायिका ने जिस ढंग से विरह-निवेदन किया, वह अपनी गहनता के कारण साहित्य की अमूल्य निधि बन गया।
  2. यथार्थता - यथार्थता अर्थात् अभिप्रेतवाद की अभिव्यक्ति समर्थ की जाय कि पूर्णतया पहुँचने में कोई कसर बाकी न रह जाय। लेडी मैकबेथ का वर्णन साहित्य में इसी यथार्थता के कारण इतना महत्त्वपूर्ण बन गया।
  3. मितव्ययिता- मितव्ययिता अर्थात् थोड़े-से-थोड़े शब्दों के प्रयोग से बात अधिक प्रभावी बन जाय। 

अमेरिकी समाजशास्त्रीय यारसेश का कथन है- सामाजिक नियन्त्रण के आधारभूत साधन संस्थागत रूप में संगठित एक समाज-व्यवस्था की स्वाभाविक अन्तःक्रिया में पाये जाते हैं। इस कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है कि प्रत्येक समाज में अनेक व्यक्ति होते हैं और ये सभी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आपस में अन्तःक्रिया करते रहते हैं। ऐसा करने के लिए वे बाध्य होते हैं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले नहीं कर सकता। इस दृष्टि से साहित्य भी संस्था का रूप है। साहित्य अपनी सीमा में प्रतिनिधि भावों को व्यक्त कर व्यक्ति और समाज के बीच अन्तरसम्बन्ध स्थापित करता है। इसी अन्तरसम्बन्ध को सामाजिक व्यवस्था की संज्ञा देता है। भारतीय साहित्य को इसी से साधारणीकरण कहा जाता है। इन संस्थाओं के आधार पर व्यवस्थाओं का निर्माण होता है। साहित्य वास्तव में एक विश्वात्मक संस्था है, जहाँ मानवता के विकास का सबसे बड़ा योग होता है। इसीलिए डॉ० राधाकमल मुखर्जी ने कहा है- कला (साहित्य) का मुख्य उद्देश्य सार्वभौमिक बनाना है। 

हिन्दी में साहित्य शब्द का मूल स्वरूप सहित अर्थात् हित की भावना से सम्बद्ध है। ‘साहित्यपायनेः साहित्यहितेनस' । साहित्य मनुष्य के सामाजिक होने का मुख्य मनोवैज्ञानिक आधार हित है। यह हित समूह और संस्था को बनाता है। हित और मनोवृत्ति का आपस में सम्बन्ध है। भय, प्रेम, सहानुभूति ये सब मनोवृत्तियाँ हैं। मनोवृत्ति चेतना का आभ्यन्तर गुण है। इस आभ्यन्तर गुण का स्वार्थ एक प्रकट रूप है। चोर का कानून जानने में स्वार्थ पुलिस का भी है और जज का भी है। तीनों का स्वार्थ है कानून जानना, परन्तु चोर की मनोवृत्ति कानून के शिकंजे से बच निकलने की और पुलिस की मनोवृत्ति कानून जानकर चोर को दण्डित करने की है। इस प्रकार हित का सम्पादन करने वाली प्रणाली है। संस्था और साहित्य मनुष्य के हित का सम्पादन अपने-अपने ढंग से करता है। साहित्य के माध्यम से मनुष्य की सामाजिकता का विकास होता है, व्यक्ति राम, व्यक्ति विशेष न रहकर व्यक्ति-व्यक्ति के आत्मा में रमने वाले राम बन जाते हैं। यही साहित्य की चरम सफलता है। साहित्य आत्मा के विस्तार, मनुष्य की मनोवृत्ति के परिष्कार, मानव मूल्यों के संचार की एक प्रणाली देता है, इसलिए वह संस्था है।
 

साहित्य के संगठन तत्त्व

एक संस्था के रूप में साहित्य के कुछ संगठन-तत्त्व भी हैं। किसी समाज का धर्म पर संघर्ष, सामाजिक, दार्शनिक और राजनीतिक विचारधाराएँ उसके साहित्य की वस्तु निर्धारित करती हैं। इसलिए हमारे लिए यह विचारणीय हो जाता है कि कलाकार अभिव्यक्ति के लिए जिन-जिन प्रारूपों का निर्माण करता है और धर्म, विज्ञान तथा विचार के प्रसारण में उसका प्रयोग करता है। उससे यह अर्थ नहीं निकलता कि कला का आधार वहाँ धर्म, विज्ञान और विचारधारा विशेष से है। किसी समाज के धर्म, इतिहास, राजनीति और दर्शन का ध्यान इसके कला को समझने में सहायता पहुँचा सकता है लेकिन उसकी पूर्णता तब तक नहीं हो सकती जब तक हम उसे कला-रूप के भीतर समझने का प्रयास नहीं करते। इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए समाजशास्त्री व्यापक परिप्रेक्ष्य अपनाता है। पाठक या आलोचक तीनों आयामों से कला की व्याख्या में प्रवृत्त है। इस स्थान पर साहित्य संस्था अपने एक भौतिक रूप का निर्माण करती हैं। जो लेखक, पाठक और आलोचक के संगठन से बनती है।
 
साहित्य एक गतिशील और लोचदार संस्था है। समाज के हितों से सम्बद्ध होने के कारण सामाजिक गतिशीलता के साथ साहित्य में भी परिवर्तन होता रहता है। समाज के अनुकूल नयी आवाज और मूल्यों का ग्रहण और प्रकटीकरण होता रहा है। जैसे-जैसे समाज के मूल्य परिवर्तित होते हैं साहित्य के मूल्य में भी नये-नये बिन्दु ग्रहण करते गये हैं और आगामी समाज को नये मूल्य का सन्देश देते गये हैं। प्राचीन समाज आध्यात्मिक आलम्बों पर आधारित था, इसलिए साहित्य में धर्मनायकों के चरित्र की परम्परा बहुत प्रमुख थी। आज के समाज में भौतिक यथार्थता बहुत है। अतः साहित्य दिन-प्रतिदिन जीवन के सामान्य से सामान्य चरित्रों की ओर उन्मुख हो गया है ।
 
साहित्य पर समाज का समाजशास्त्रीय दृष्टि से स्वतन्त्र विचार करने वालों में एच० डी० डंकन का महत्त्व सबसे अधिक है। उन्होंने साहित्य को समाजशास्त्रीय अध्ययन की सशक्त भूमिका प्रदान किया और स्पष्ट दिशा-निर्देश देने का प्रयत्न किया। किसी कृति के विश्लेषक उन्होंने एक सुन्दर आधार प्रदान किया है। जिसके अनुसार लेखक, पाठक या आलोचक इन तीनों इकाइयों में पारस्परिक सम्बन्ध पर विचार कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। यह अध्ययन के लिए दिशा-निर्देशक समाज है। अतः उसके दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है।
 
साहित्य एक स्वतन्त्र समाज होता है, जिसमें तीन वर्ग होते हैं- लेखक, पाठक और आलोचक। इन तीनों के अन्तरसम्बन्ध से एक साहित्य-समाज का निर्माण होता है। समाज के सत्ता के लिए संघर्ष होता है, एक वर्ग दूसरे के ऊपर प्रभुत्व जमा कर अन्य को कमजोर करने का प्रयास करता है, वैसा ही साहित्य-संस्था में होता है। लेखक, पाठक और आलोचक तीनों एक सामाजिक परिधि में होते हुए भी एक दूसरे से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली रखने का संघर्ष करते हैं। फलतः साहित्यिक सम्बन्धों की विभिन्न स्थितियों का उदय होता है। सामाजिक स्थिति के अनुसार कभी लेखक और पाठक का घनिष्ट सम्बन्ध होता है, आलोचक का कोई महत्त्व नहीं रहता, कभी लेखक, आलोचक का सम्बन्ध रहता है, पाठक का व्यक्तित्व गौण हो जाता है और कभी आलोचक और पाठक प्रबल हो जाते हैं। साहित्य-संस्था की एक वह भी स्थिति होती है जब लेखक, पाठक और आलोचक तीनों परस्पर अन्तरसम्बन्धित होते हैं।
 

समाजशास्त्रीय समीक्षा

समाजशास्त्रीय समीक्षा की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि साहित्य के प्रतिमानों की उपेक्षा करती है। वह समाजशास्त्रीय समीक्षा के अन्तर्गत विवेच्य विषय की सम्पूर्ण के रूप में आती है, पर आज ये बात विशेष रूप से हमारे सामने है कि शैली अलंकार आदि का विवेचन भी इसी समीक्षा के अन्तर्गत समाविष्ट किया जायेगा।
 
हिन्दी में समाजशास्त्रीय समीक्षा धीरे-धीरे चर्चा का विषय बन चुकी है और विद्वानों का ध्यान इस ओर जा रहा है। डॉ० नगेन्द्र ने 'साहित्य के समाजशास्त्र' निबन्ध पर स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है। श्रीराम मेहरोत्रा ने 'साहित्य के समाजशास्त्र : मान्यता और स्थापना' शीर्षक से एक ग्रन्थ बहुत पहले सन् 1970 ई० में लिखा था। पत्र-पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत लेख छप चुके हैं। डॉ० निर्मला जैन के सम्पादकत्व में सम्बद्ध विषय के विदेशी विद्वानों की रचनाओं का हिन्दी अनुवाद 'साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की मान्यताएँ' है।
 
हिन्दी में रचना के क्षेत्र में सामाजिक चिन्तन को बहुत पहले से महत्त्व दिया जाता रहा है। गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के काल में सामाजिक जीवन की समस्याओं को लेकर पुराकथाओं, पौराणिक कथाओं को केन्द्र में रखकर काव्य-सर्जना हुई है। समकालीन लेखन में भी बिम्बों, प्रतीकों के चयन में सामाजिक जीवन के यथार्थ को व्यक्त करने का आग्रह दिखायी पड़ता है। नाटक, एकांकी, रेडियो, रूपक, नुक्कड़ नाटक आदि माध्यमों से सामाजिक जीवन को ढंग से व्यक्त किया गया है और ऐसी कृतियों की आलोचना में साहित्य के समाजशास्त्र का महत्त्व निर्विवाद रूप से है।

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Humanities Hindi Antral Bhag 2,4,NCERT Solutions Hindi Class 11 Antra Bhag 1,19,NCERT Vasant Bhag 3 For Class 8,12,NCERT/CBSE Class 9 Hindi book Sanchayan,6,Nootan Gunjan Hindi Pathmala Class 8,18,Notifications,5,nutan-gunjan-hindi-pathmala-6-solutions,17,nutan-gunjan-hindi-pathmala-7-solutions,18,political-science-notes-hindi,1,question paper,19,quizzes,8,Rimjhim Class 3,14,samvad-lekhan-in-hindi,6,Sankshipt Budhcharit,5,Shayari In Hindi,16,sponsored news,10,Syllabus,7,top-classic-hindi-stories,44,UP Board Class 10 Hindi,4,Vasant Bhag - 2 Textbook In Hindi For Class - 7,11,vitaan-hindi-pathmala-8-solutions,16,VITAN BHAG-2,5,vocabulary,19,
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हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: साहित्य का समाजशास्त्र
साहित्य का समाजशास्त्र
साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य और समाज के बीच संबंधों का अध्ययन है। यह साहित्यिक रचनाओं को सामाजिक संदर्भ में रखकर उनका विश्ले
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX_h8el_0bdnPhWVc2uOltWceJM2or2uT-HcGGfT2s4_NbbHAKkP4CcnO-VlMMQO8ny2v0TBBj60aG8b50d2M5k_R4RTxnzs2x3N1ahCng-CgLGTwM8HKqyXC70KwKqKxQd_5gYdFMq1uP-4y-FY94s4RsspgXE2MIfm9ixyuM12hQSPqxnVGweJN1tv49/w320-h228/sahitya.png
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