साहित्य किसे कहते हैं | साहित्य की प्रेरक शक्ति | साहित्य के मूल तत्व साहित्य मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें ज्ञान, मनोरंजन, प्रेरणा औ
साहित्य किसे कहते हैं | साहित्य की प्रेरक शक्ति | साहित्य के मूल तत्व
साहित्य मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें ज्ञान, मनोरंजन, प्रेरणा और सौंदर्य प्रदान करता है। साहित्य मानवीय अनुभवों को दर्शाता है और सामाजिक परिवर्तन लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
साहित्य किसे कहते हैं
साहित्य शब्द अंग्रेजी शब्द लिटरेचर (Literature) का पर्यायवाची है। हिन्दी में साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति सहित' शब्द से हुई है, जिसकी संस्कृत में व्याख्या है—' सहितेन भावः स साहित्यम्' हित के भावों से भरे को साहित्य कहते हैं। 'सहित' में 'यत्' प्रत्यय लगकर साहित्य शब्द बना है। अंग्रेजी लिटरेचर दो अर्थों में प्रयुक्त होता है— (1) व्यापक अर्थ में, (2) संकुचित अर्थ में। व्यापक अर्थ में इसका आशय समस्त वाङ्मय से होता है। इसके अन्तर्गत सभी विषयों का साहित्य आता है। प्रत्येक प्रकाशित कृति साहित्य कहलाती है। संकुचित अर्थ में साहित्य से आशय रसात्मक साहित्य से होता है। इससे भाषा साहित्य का भी तात्पर्य हो सकता है। उपन्यास, कविता, नाटक, कहानी, गल्प, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी-साहित्य, गद्यकाव्य आदि सभी विधाओं का इसमें परिगणन होता है।
इस प्रकार स्थूलतः हम प्रत्येक हित-साधन करने वाली कृति को साहित्य कह सकते हैं, पर रूढ़ार्थ में साहित्य शब्द का प्रयोग रसात्मक साहित्य के अर्थ से ही होता है, क्योंकि इसमें भावनाओं का प्राधान्य होता है।
पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य के स्वरूप को समग्रता से विवेचन किया है। हेनरी एडमन ने 'Study of Literature' में साहित्य की परिभाषा देते हुए लिखा है कि विभिन्न साधनों में साहित्य ही एक ऐसा साधन है जिसमें किसी विशिष्ट काल की स्फूर्ति की अभिव्यक्ति होती है। यही स्फूर्ति परिपक्व होकर राजनीतिक आन्दोलन, धार्मिक विचार, दार्शनिक वादों और कला के रूप में प्रकट होती है-
"Literature is only one of the many channels in which the energy of age discharges itself in its political movement a religious thought, philosophical speculation and art. We have the same energy overflowing into other forms of expression."
इस परिभाषा के अनुसार साहित्य किसी विशेष काल की भावनाओं की स्फूर्ति और इसी साहित्य से प्रेरणा ग्रहण करके समस्त आन्दोलनों और धार्मिक व दार्शनिक विचारों का प्रस्फुटन होता है।
प्रो. एम. जी. भाटे साहित्य को आत्मा का संगीत समझते हैं जो मानव के अन्तस्थल से निःसृत होता है और भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होकर जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित करता है-
"Literature is the music which streams out of the attempts of man at tune himself to life on the Key Board of language."
इस परिभाषा के अनुसार साहित्य मानवीय भावनाओं का प्रकटीकरण आत्माभिव्यक्ति है। साहित्य भाषा के माध्यम से प्रकट होता है और उसमें मानव-जीवन का चित्रण होता है। साथ ही, इसमें सौन्दर्य, आनन्द तथा कल्याण की भावना निहित होती है।
आई. ए. रिचर्ड्स साहित्यिक कथन के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहते हैं कि इसमें निर्दिष्ट वस्तुओं का वास्तविक और झूठा होना महत्वपूर्ण न होकर उन निर्दिष्ट वस्तुओं के बीच निर्दिष्ट सम्बन्ध ही महत्वपूर्ण होता है। साहित्य हमारे मनोभावों और अन्तर्वेगों को जागृत करता है।
इस प्रकार साहित्य के स्वरूप का अध्ययन करने पर चार तत्वों पर प्रकाश पड़ता है- (1) साहित्य मानव-जीवन की अभिव्यक्ति है, जो भाषा के माध्यम से स्वरूप ग्रहण करती है, (2) साहित्य मानवीय मनोभावों को जागृत करने में सहायक होता है, (3) साहित्य स्वयं भी किसी विशिष्ट काल से प्रेरणा ग्रहण करके समसामयिक विचारों और आन्दोलनों को जन्म देता है और (4) साहित्य में सौन्दर्य तथा आनन्द के साथ संगीतमयता होती है और उसकी भावना कल्याणमयी होती है।
साहित्य की प्रेरक शक्तियाँ
साहित्य-सर्जना की प्रेरक प्रवृत्ति भावना है और भावना की प्रेरक प्रवृत्ति प्रतिभा है। अर्थात् साहित्य की सर्जना साहित्यकार की प्रतिभा से होती है जो अनुभावों और अनुभूतियों को ही साहित्य के रूप में भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। पर इस अकेली प्रतिभा से ही साहित्य की सर्जना नहीं होती, इसके लिए शास्त्र-ज्ञान और अभ्यास भी परम आवश्यक है, अभ्यास के अन्तर्गत अध्ययन और चिन्तन-मनन आता है। इस प्रकार साहित्य-सर्जना की मूल प्रवृत्तियाँ भावना, व्युत्पत्ति और अभ्यास होती हैं—इन तीनों के संयोग से ही उत्तम साहित्य की सर्जना होती है।लेकिन इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय हैं कि साहित्यकार अपनी इच्छा का स्वयं स्वामी होता है—वह किसी के बन्धन में आबद्ध नहीं होता। जब उसकी इच्छा होती है, वह लिखता है। इसी को अंग्रेजी 'मूड' (Mood) कहते हैं। अतः इन प्रवृत्तियों अथवा प्रेरक शक्तियों का अध्ययन करते समय हमें यह भी समझना चाहिए कि वे कौन-सी प्रेरक शक्तियाँ हैं जो साहित्यकार की साहित्य सृजन-शक्ति को प्रेरित करती हैं जिनके कारण वह जीवन के सत्यों को सुन्दर से सुन्दरतम रूप प्रस्तुत करता है। इन प्रेरक शक्तियों पर पाश्चात्य विचारकों ने विस्तार से विचार किया है। हडसन ने साहित्य की चार प्रेरक शक्तियाँ मानी हैं-
(1) आत्माभिव्यक्ति की इच्छा, (2) मनुष्य और उसके कार्यों में रुचि, (3) यथार्थ जगत् के प्रति आकर्षण और तद्नुसार कल्पना-जगत् के निर्माण की प्रवृत्ति, (4) रूप-विधान की कामना ।
हीगेल ने सौन्दर्यानुभूति को इसकी प्रेरक आवृत्ति बताया है। वह लिखते हैं, “सौन्दर्यानुभूति के क्षणों में हमारी आत्मा में आनन्द का जो स्त्रोत जन्म लेता है, उसी का उच्छलन कविता है।" अतः काव्य अथवा साहित्य की प्रेरणा-शक्ति हीगेल के अनुसार, सौन्दर्य के प्रति आकर्षण है।
क्रोचे भी हडसन की तरह आत्माभिव्यक्ति को साहित्य-सृजन की मूल प्रेरक शक्ति मानते हैं, क्योंकि जगत् में विभिन्न पदार्थों के संसर्ग से मानव-मन में उन्हें मूर्त रूप देने की इच्छा होती है और यही इच्छा साहित्य की सृजन में प्रवृत्ति होती है।
फ्रायड जीवन की समस्त क्रियाओं की मूलभावना वासना (Sex) अथवा अभुक्त काम को साहित्य-सर्जना की प्रेरक शक्ति मानते हैं। मनुष्य जिस कामवृत्ति को सामाजिक मर्यादा के डर से तृप्त नहीं कर पाता, वही साहित्य के माध्यम से तृप्ति खोजती है अतः साहित्य की प्रेरणा वासना के दमन की स्वस्थ प्रवृत्तियाँ हुई।
एडलर के अनुसार वास्तविक जगत् के अभावों से काल्पनिक जगत् में छुटकारा पाने की प्रवृत्ति ही साहित्य-सृजन में सहायक होती है और युग के अनुसार साहित्य का जन्म काम वासना और प्रभुत्व-कामना दोनों ही प्रवृत्तियों से होता है, उनके मूल में जीवनेच्छा ही प्रबल प्रवृत्ति पाई जाती है ।
इन मूल प्रेरक प्रवृत्तियों पर दिये गये विचारों के माध्यम से ज्ञात होता है कि साहित्य मूल प्रेरक-प्रवृत्ति अभिव्यक्ति की इच्छा है, मनुष्य संसार के विभिन्न पदार्थों से प्रेरणा ग्रहण करके उसे अपनी अनुभूति से नवीन रूप देकर अभिव्यक्त करना चाहता है और इसी से प्रतिभा, अभ्यास आदि के संसर्ग से साहित्य का जन्म होता है।
साहित्य के मूल तत्व
सम्पूर्ण सृष्टि की रचना ही तत्वपूर्ण है, पाँच तत्वों के संयोग से मानव शरीर का निर्माण हुआ है। अतः जब प्रत्येक वस्तु तत्वों के संयोग से बनी है तो फिर साहित्य भी तत्वों से अछूता कैसे हो सकेगा ? पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य के मूल तत्वों पर विचार किया है। मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति को सुन्दर, सुव्यवस्थित, आकर्षणमय और प्रभावशाली बनाने के लिये जिन साधनों का प्रयोग करता है, साहित्य में उन्हीं को साहित्य के तत्व कहा जाता है।
पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य के मूलतः चार तत्व माने हैं-
(1) भाव-तत्व,
(2) बुद्धि-तत्व,
(3) कल्पना-तत्व,
(4) शैली-तत्व ।
अब हम इन पर संक्षेप में विचार करेंगे।
भाव तत्व
जो भाव साहित्यकार को किसी विषय पर कुछ लिखने को प्रेरित करते हैं, वे ही पाठकों के हृदय में भी उठकर बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। साहित्यकार का यह प्रयत्न भाव-तत्व के कारण ही पूर्ण होता है। यह साहित्य का मूल तत्व है, क्योंकि साहित्यकार साहित्य में अपनी भावनाओं को ही प्रस्तुत करता है और अपनी अनुभूति से देश-काल की सीमा का उल्लंघन करके सार्वदेशीय तथा सर्वकालिक साहित्य की सर्जना करता है, जो सभी जनों एवं सभी समय के लोगों को प्रिय होता है। जब तक भाव न होंगे, अभिव्यक्ति किसकी होगी ? कोई भी पदार्थ, स्थिति, दृश्य या घटना तब तक अभिव्यक्ति नहीं पा सकती, जब तक साहित्यकार के हृदय में उसके प्रति भाव जागृत न हो। भावों के जागृत होने पर ही साहित्य लोकहित तथा लोकाकर्षण की वस्तु बन जाता है
अंग्रेजी विचारक विंचेस्टर ने साहित्य में इन भावों की विशेषताएँ बताई हैं। इन्हीं से भाव तीव्र और प्रभावोत्पादक बनते हैं— (1) भावनाओं का औचित्य, (2) भावनाओं की विवशता और शक्तिमत्ता, (3) भावनाओं की स्थिरता और उनका साहित्य, (4) भावनाओं की विविधता और (5) भावनाओं की पवित्रता तथा औदात्य ।
इस प्रकार भाव-तत्व को जागृत करने, उसे तीव्रतर तथा प्रभावोत्पादक बनाने में औचित्य, विशदता, स्थिरता, विविधता तथा वृत्ति, गुणादि सहायक होते हैं। इन्हें साकारता शब्द, अर्थ और कल्पना से प्राप्त होती है।
बुद्धि तत्व
बुद्धि का सम्बन्ध विचारों तथ्यों और सिद्धान्तों से है। बुद्धि-तत्व का महत्व इन तथ्य में है कि यह भाव, कल्पना तथा शब्दार्थ का संयोजन औचित्यपूर्ण करता है। यह साहित्य को कलेवर प्रदान करता है। इसी से साहित्य में व्यवस्था रहती है। प्रत्येक साहित्यिक रचना का कोई न कोई उद्देश्य तो अवश्य होता ही है। इन उद्देश्यों की काव्य में अभिव्यक्ति भी बुद्धि तत्व से होती है। साहित्य के क्षेत्र में बुद्धि-तत्व, समग्रतः निम्नलिखित कार्य करता है-
(1) भावों को आधारभूमि का निर्माण करता है।
(2) अव्यक्त भावों को स्पष्ट करता है।
(3) लेखक के दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की समुचित व्यवस्था करता है।
(4) भावों को व्यवस्थित करता है।
(5) भावाभिव्यक्ति में चमत्कार योजना करता है।
(6) दार्शनिक विचारों को सुन्दर तथा रमणीय रूप में प्रस्तुत करने में सहायता देता है।
कल्पना तत्व
साहित्य में भावों का निरूपण के माध्यम से ही होता है। मन में जन्म लेने वाले भाव तब तक अभिव्यक्त ही रहते हैं, जब तक कल्पना के माध्यम से उनका चिन्तन-मनन नहीं हो जाता।
साहित्यकार यथार्थ जगत् में जो देखता है या अनुभव करता है, उसे उसी रूप में अभिव्यक्त नहीं करता, अपितु पहले से तो उसे कल्पना-तत्व के द्वारा भव्य और आकर्षक रूप प्रदान करता है—ऐसा रूप जो सभी के मन को प्रसन्न कर दे। साहित्यकार का कथन सत्य होने के साथ-साथ रसमय भी होता है और यह रसमयता यह कल्पना-तत्व के माध्यम से ही लाता है। यह कल्पना-तत्व की ही विशेषता है कि वह अतीत को वर्तमान में और परोक्ष का प्रत्यक्ष में वर्णन कर देता है। कल्पना ही वह शक्ति है जो साहित्य को आद्य बनाती है। इसके सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वान् Dugald Stewart का कथन है कि असाधारण कल्पना ही काव्य निर्माण की शक्ति उत्पन्न करती हैं-"An uncommon degree of imagination constitutes poetical genious."
यहाँ दृष्टव्य है कल्पना का आश्रय औचित्य की सीमा में ही होना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि कल्पना के अतिरेक में काव्य या साहित्य का समस्त सौन्दर्य ही नष्ट हो जाए।
शैली तत्व
भाव-तत्व, कल्पना-तत्व और बुद्धि-तत्व-ये तीनों अनुभूति से सम्बद्ध हैं, पर इन तीनों के संयोग से निष्पन्न साहित्य भावनाओं के मूर्त रूप शैली-तत्व के माध्यम से ही प्राप्त होते हैं। भाव चाहे कितने ही विशद, उदात्त और संयोजित क्यों न हों, यदि अभिव्यक्ति में सफलता नहीं है तो वे व्यर्थ हैं। अतः शैली का साहित्य में प्रयोग परमतत्व है। साहित्यकार जिस भाषा, रूप और प्रकार से अपने विचारों को प्रकट करता है, वही शैली कहलाती है। यह भावों तथा रस के संधार में भी सहायक होती है। विषय को सजाने-सँवारने, युक्तिसंगत बनाने और उसमें प्रभाव उत्पन्न करने में शैली-तत्व ही प्रमुख है। इस प्रकार से यह काव्य या साहित्य का शरीर है। इसे हम दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-शब्द-तत्व और अर्थ-तत्व ।
(क)शब्द-तत्व- इसके अन्तर्गत शब्दगत चमत्कार, शब्दालंकार, वृत्तियाँ शब्द चयन से उत्पन्न प्रवाह तथा संगीतमयता आदि आते हैं। यह तत्व काव्य में विशेष प्रभावोत्पादक होता है। शब्द-गति दो प्रकार की होती है-साधारण और नर्तन। साधारण में गद्य और नर्तन में काव्य निष्पन्न होता है।
(ख) अर्थ-तत्व- साहित्य में प्रयुक्त शब्द जब तक सार्थक न हों तो उनका प्रयोग ही क्या, अतः शब्द-तत्व की सार्थकता अर्थ-तत्व से ही ज्ञात होती है। इसी के समावेश से शब्द-तत्व की उपादेयता है। अर्थ भी साहित्य का एक प्रमुख तत्व है । यह कल्पना का वाहन और सत्य का द्योतक है। इसी से साहित्य का सौन्दर्य समझ में आता है और उसकी कल्याणकारी भावना प्रस्तुत होती है ।
निष्कर्ष - सारांश रूप में कहा जा सकता है कि साहित्य में चारों तत्वों का होना अनिवार्य है। इनमें से किसी का भी परिहार असम्भव है। वर्तमान काल में 'ज्ञान का साहित्य' और 'शक्ति का साहित्य' इसके दो प्रकार हैं-पर ये भेद स्थूल रूप से हैं। मूलतः सभी साहित्य हैं, क्योंकि प्रत्येक साहित्य किसी न किसी प्रकार हित साधना ही करता है।
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