आजादी मुबारक | हिन्दी कहानी

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आजादी मुबारक हिन्दी कहानी मम्मी मुझे जल्दी जगा देना...कल सुबह आशु को जल्दी जगाना हेै। कल उसके सकूल में स्वतंत्रता दिवस का जलसा होगा। अमर शहीदो को श्रद

आजादी मुबारक


म्मी मुझे जल्दी जगा देना...कल सुबह आशु को जल्दी जगाना हेै। कल उसके सकूल में स्वतंत्रता दिवस का जलसा होगा। अमर शहीदो को श्रद्धांजलियाँ अर्पित की जायेंगी। नौनिहालों के मुखों से निकले नारों से आसमान गूँज उठेगा। आजादी अमर रहे...भारत माता की जय..। यह सब सह नहीं सकेगी वहं। नहीं जायेगी वह आशु के स्कूल। यद्यपि आशु की कक्षा शिक्षिका ने उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया है।एक छोटा सा प्यारा सा भाषण भी लिखकर दिया है उसने आशु कों। मगर नहीं जायेगी वह। आजादी की बाते , अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध प्राणों की आहुति देनेवाले अमर शहीदो की बातें....यह सब सुनते ही उसके हृदय में न जानें कैसी घुमड़न सी होने लगती है। आँखों में धुआँ धुआँ सा होने लगता हेै। क्यों होता है उसके साथ ऐसा ! क्या सबके साथ ऐसा होता है !

”मम्मी मुझे जल्दी जगा देना.“...लगता है आशु नींद में फिर बड़बड़ाया है। आशु के सिरहाने बैठकर वह उसका केश सहलाने लगी। आज सारे कामधाम निपटाते वह बुरी तरह थक गई थी। बिस्तर पर लेटने ही वाली थी कि याद आया। ओह , कल पंद्रह अगस्त है। आशु को सबेरे तड़के तैयार होना है। उसकी ड्रेस में प्रेस नहीं हो पाई है। उठकर वह इस्तरी गरम करने लगी। इसी समय बिजली ने भी धोखा दे दिया। वह बुरी तरह हड़बड़ा गई। कल स्वतंत्रता दिवस है। आजादी की वर्षगाँठ। आशु को ही तिरंगा लिये स्वतंत्रता के गीत गाते जाना है....आगे आगें। उसके रग रग में सिरहन सी दौड़ गई। अँधेरे में टटोल टटोलकर उसने मोमबत्ती जलाई। गैस के चूल्हे पर इस्तरी रख कर गरम की। आशु के कल की ड्रेस निकाली। नन्हे सिपाही की ड्रेस। बड़े मनोयोग से ड्रेस प्रेस किया। फिर उसके जूतों में पॅालिश करने लगी।

आँखों में कुछ तिर गया। उसका अपना बचपन। माँ भी ऐसे ही उसकी ड्रेस तैयार करती थी। उसके जूतों में मनोयोग से पॉलिश करती थी। दिन भर की थकी हारी माँ। उस भारी भरकम संयुक्त परिवार की ध्ुारी। रात गये ही फुरसत मिलतीं। चौदह अगस्त की रात तो विशेष रूप से उसकी ड्रेस तैयार करती। बेटी आजादी का जश्न मनाने जो जायेगीं। पंद्रह अगस्त को उसके स्कूल से जुलूस निकला करता था। उस छोटे से शहर में में घूमता। आजादी के नारे लगाता। अमर शहीदों की जय जयकार करता। नन्हें नन्हें बच्चे सबसे आगे होते थे। उन्हीं नौनिहालों में वह भी होती थी। शुभ्र श्वेत घेरदार फ्राक ,सफेद मोजे जूते , बालों में लाल रिबिन ,लाल बेल्ट। हाथों में तिरंगा। जुलूस जब उसके घर के सामने से गुजरता तो वह और भी जोर से नारे लगाती। जुलूस का शोर सुनकर माँ सारे काम छोड़कर दरवाजे तक आ जातीं। माथा आँचल से ढके दरवाजे की ओट से उसे झाँकतीं। प्रेम और ममता की अद्भुत चमक होती उन आँखों में। माँ से दृष्टि मिलते ही वह खुशी से चीखकर नारे लगाती....आजादी अमर रहे...। माँ की आँखें इतनी विभोर हो जातीं मानो सच में आजादी के दर्शन हो गयें हों।

लेकिन यह आजादी बचपन के साथ ही विदा होने लगी थी। जरा बड़़ी हुई नहीं कि माँ ही उसे रोकने टोकने लगी थीं। उसके आने जाने पर ,उसकी साफगोई पर , उसके निर्भीक विचारों परं। तभी उसे पता चला पिताजी चाहते हैं, वह गणित और भौतिकी लेकर पढ़े।

वह डाक्टर बनना चाहती थी। अड़ गई...मैं तो बॉयलाजी लूंगी।

कैसी बेवकूफ लड़की है...पिताजी ने सख्त नाराजगी से कहा। उन्हें वैसे भी उसका बेबाकी से विचार व्यक्त करना नापसंद था।

उसने सत्याग्रह कर दिया। न खाना , न पीना, आँसू बहाते बिस्तर पर पड़े रहना। पिताजी के अहम् को जबर्दस्त चोट पहुँची थी। उन्ही की बेटी, उन्ही से विद्रोह करे। माँ के बहुत मिन्नत करने पर उन्होंने घोर वितृष्णा से कहा...जाए,जो लगे सो करे। मगर समझ लो। यह सब लड़कियों के बिगड़ने के लक्षण हैं।

आजादी मुबारक | हिन्दी कहानी
पिता के अभिशाप.का परिणाम ही था या क्या, उस पूरे सत्र स्कूल में बॉयलाजी शिक्षक ही नहीं रहा। परीक्षा के ऐन समय बॉयलाजी शिक्षक का प्रबंध किया गया। बॉयलाजी विभाग में ठीक से पढ़़ाई्र हो ही नहीं पाई। परीक्षाफल निराशाजनक ही रहा। उसकी अंकंसूची देखते हुए पिता का मुँह वितृष्णा से विद्रूप हो गया....”हम जानते थे...यही करेगी ये लड़की।“ फिर मेडिकल की इच्छा ही नहीं कर सकी वहं। डिग्री कोर्स करना पड़ा। उसमें भी बी. एस. सी. बमुश्किल द्वितीय श्रेणी। पिता ने अपार घृणा से अखबार एक तरफ फेंक दिया। एसकी छाती में घूंसा सा लगां। मन ही मन धुलती रहतीं। इतनी तो मेहनत की थीं। अमुक अमुक प्रश्न के उत्तर तो एकदम सही किए थे। फिर यह कैसे हो गया ! पिता को तो वह मुँह भी नही दिखा सकती थीं।

मैं लॉ करना चाहती हूँ माँ...उसने डरते डरतें माँ से कहा। उसकी कई सहेलियाँ लॉ में दाखिला ले रही थीं। माँ ने पिता से बात चलाई होगीं। थोड़ी देर में पिता के तेज स्वर उसके कानों में पड़े....हाँ अब यही सब तो करेगी। बाहर निकलना, लड़कों से बात करना, यही सब तो इसे अच्छा लगता है।

उस पर मानो घड़ों पानी पड़ गया।अंतत‘ बी. एड. में दाखिला लेना पड़ा। पिता यही चाहते थे।बी.एड. में भी दाखिला आसानी से नहीं मिला था। बहुत दौड़ धूप करनी पड़ी थी। पिता दौड़ धूप करते, चिड़चिड़ाहट उस पर निकालते...”अच्छे प्रतिशत लाई होती तो बाप को इस तरह मारे मारे तो नही फिरना पड़ता।“ और फिर नौकरी ! एक प्रतिष्ठित समझे जाने वाले स्कूल की अध्यापिकां। सिफारिश, घूस, घटिया समझौते करते करते पस्त हो गए थे पिता। उसे देखते ही बिगड़ने लगते। सब कुछ झेलते झेलते वह स्वयं भी टूट चुकी थी। सोचती रहती...क्या यही जीवन है ! जवानी है !

घर में दोनों छोटी बहने अच्छे अंको से उत्तीर्ण हो गई थीं। सौभाग्यवश उम्दा सरकारी नौकरियाँ भी पा गई थीं। वे उसे प्रतिभाहीन समझतीं। बात बात में उपहास बनाती रहतीं। माँ भी उन कमाऊ बेटियों को न टोकतीं। उसे अपना ही घर कैदखाना सा लगता।

और उसका स्कूल। वहाँ तो हमेशा मुँह ही सीकर रहना पड़ता। प्राचार्य और प्रबंधक समिति की एक अरसे से मुकदमेबाजी चल रही थी। कुछ अध्यापिकाऐं प्राचार्य की जासूस थीं, कुछ प्रबंधक समिति की। बाकी अध्यापिकाऐं कभी इस पक्ष में, कभी उस पक्ष में। स्वतंत्र व्यक्तित्व होने का तो कोई  सवाल ही नहीं था। सभी अपनी अपनी चालाकियों में उलझी बकरी की तरह मिमियाती बस नौकरी बचाती रहतीं। एक दिन वह भी ऐसी ही हो गई। मिमियाती, घिघियाती, मुँहजोहती, नौकरी बचाती, व्यक्तित्वहीन। घर, स्कूल, बाजार हाट पिकनिक तक में उसे नहीं लगता,वह स्वतंत्र है। अपने मन का कुछ कर सकती है। तिस पर आते जाते कामुक पुरुषों की लोलुप दृष्टि। बंधनो से छूटती कुछ महिलाओं की चर्चित होती उच्छृंखलता से वातावरण और भी बिगड़ता जा रहा था। किसका विश्वास करे। लड़कियाँ खुद भी तो मर्यादाऐं तोड़ रही हैं।  दूसरों को भी उकसा रही हैं। उसके भी कदम ड़गमगा गए तो पिता जाने क्या कर बेैठेगे। इससे अच्छा तो उसका विवाह ही हो जाये।

पिता तो स्वयं इसी चिंता से त्रस्त थे। बेचारी माँ को जहाँ तहाँ बात चलाने भेजते। मगर उसने सोच लिया था, विवाह वह अपनी मर्जी से करेगीं। अपनी पसंद के युवक के साथं। आखिर वह सुंदर है। पढ़ी लिखी है। प्रतिष्ठित सकूल में पढ़ाती है। कोई सुयोग्य युवक उसे पसंद कर ही लेगा। मगर कहाँ था वह सुयोग्य युवक। कभी कोई युवक उसे अच्छा भी लगता, तो यह देखकर उसे अपार ग्लानि होती कि वह युवक स्वयं ही उससे कटा कटा है। अपने आप में बहुत सावधान, बहुत सचेत, जैसे कि वह बहुमूल्य रत्न है, कोई उसका मूल्य कम न लगा ले। घर में उसे देखने लड़के वाले आते। लौटकर जवाब ही न देते। कई एक तो उसकी उम्दा सरकारी नौकरियों वाली छोटी बहनों को ही पसंद कर लेते। बहनें और इठलातीं। उसका मन युवकों से उचाट हो गया था। मगर उस घर के अपमानजनक माहौल से निकलने का एकमात्र यही रास्ता दिखता। विवाह। आखिरकार बहुत जूतियाँ चटकाने, बहुत भावताव करने के बाद, पिता ने एक कमाऊ लड़का उसके लिये ढूंढ ही लिया।

विवाह के बाद तो जैसे उसमें रही सही इच्छा उठनी भी बंद हो गई। नजरे झुकाये  जैसा सास नचाती वैसा नाचती। पति से कोई शिकायत करने का प्रश्न ही नहीं था। उसकी एक ही रट थी...माँ को प्रसन्न रखो। माँ ठीक रहे तो सब ठीक रहेगा। माँ थी, जो शायद उसके जीवन की बलि लेकर ही खुश हो सकती थी। कभी कभी उसका मन होता, विद्रोह कर दें। मगर वह किससे किससे विद्रोह करे। ससुराल से विद्रोह करे ! मायके जाए। कभी नहीं। किसी सहेली के घर ! उसकी कोई सहेली ससुराल से भागकर आई सहेली को पनाह नहीं देने वाली। किसी आश्रम अथवा ऐसा ही कोई्र आश्रय ! अनजान जगह में कोई कंांड हो गया तो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहेगी। आए दिन ऐसे किस्से सुनाई देते रहते। विद्रोह के जोश में भाग निकलीं कितनी ही महिलाऐं एक गलाजत से दूसरी गलाजत में गिरती चली गई थीं। हाँ, कुछ एक महिलाऐं  सारी थुक्का फजीहत के बावजूद स्वतंत्र होने का दम भर रही थीं।

कभी कभी उसे लगता , स्त्री क्या पुरुष ही कहाँ स्वतंत्र है। हर वक्त उस पर धौंस जमानेवाला उसका पति, अपनी अच्छी खासी शिक्षा और अच्छी नौकरी के बावजूद, उसे कभी स्वतंत्र सा न लगता। बल्कि आश्चर्यजनक रूप से असहाय और परबस लगता। अपने कार्यालय से तो ऐसे भागता हुआ घर लौटता, जैसे वहाँ सब इस अभागे के विरूद्ध षड़यंत्र ही रच रहे हों। अपने ऑफिस के जो किस्से वह सुनाता, उससे लगता कि पूरा ऑफिस स्वार्थी, जलनखोर, हृदयहीन लोगों का हजूम है, जो फकत उसे नीचा दिखाने के षड़यंत्र में लगा रहता है। बल्कि उसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध है। ऐसे मेें कभी कभी वह दबी जबान से सलाह दे बैठती...अड़ोसी पड़ोसी से कभी कभी मिल लिया करो जी, तो अच्छा लगेगा। इस पर वह भड़क उठता...”ये सारे पड़ोसी दो मुँहे साँप हैं। दरअसल हम लोग यहाँ साँपों के बीच रह रहे हैं। पता नहीं इस शख्स को मैंने और माँ ने कितना मना किया था कि इस मुहल्ले में मकान न बनवाये। इस शख्स के चलते मैं इस घर में कुछ नहीं कर सकता।“ वह अपने पिता को ”इस शख्स“ ही कहा करता।

लेकिन बेचारे ”इस शख्स“ की हालत तो उसे और भी दयनीय दिखती। कभी कभी मौका मिलता तो वह भी अपना दुखड़ा कह बैठता...”दाँतों के बीच जीभ की तरह रह रहा हूँ बहू मैं इस घर में। इस औरत ने मुझे कभी शांति से जीने नहीं दियां। बेटों को तो बिल्कुल मुट्ठी में किए हुए है। उसके ईशारे पर पीट देंगे ये ससुरे मुझे। क्या बताऊं  बहू किस आतंक में जीता हूँ मैं यहाँ....।“

और उस आतंकमयी को देखकर उसे लगता, मानों किसी लौह पिंजरे में कोई घायल शेरनी बंद हेै। हर समय वह गरजती बरसती ही रहती। कभी पति पर, कभी नौकरों पर और अब तो अकारण उस पर। उसका स्पष्ट कहना था...इस घाघ बुड्ढे ने उसकी जिंदगी बर्बाद की है। उसकी आत्मा जल रही है। कहाँ भाग जाऊंँ जहाँ इस धूर्त पाखंडी की सूरत न दिखे। इसके कैदखाने में मैंने कैसे गुजारी हेै जिंदगी , मैं ही जानती हूँ।

कैदखाना....कैदखाना...कैदखाना उसे तो लगता ही है, इन लोगों को भी अपना ही घर कैदखाना लगता है। क्या सबको अपना घर कैदखाना लगता है। अपना ऑफिस कैदखाना लगता है। अपना मुहल्ला कैदखाना लगता है। बिस्तर में लेटे लेटे उद्विग्न हो उठती वह। अपने जीवन में देखे सारे परिचित अपरिचित चेहरे याद करने लगती। क्या कभी कहीं देखा था, ऐसा कोई व्यक्ति जिसे किसी कैदखाने में जीने की सी यातना न महसूस हो रही हो। जो सच में एक आजाद देश का स्वतंत्र, सुंदर, निर्भीक व्यक्तित्व लग रहा हो। एक ही आस थी उसकी, अपनी संतान हो तो शायद मुक्ति मिले। आशु आया भी बरसों की प्रतीक्षा के बाद। मगर मुक्ति कहाँ....

सुबह आँख खुली तो देखा, आशु नन्हे सिपाही की पोशाक में बना ठना हाथ में छोटा सा तिरंगा हिलाता मगन खड़ा है। उसकी छाती भर आई। उसने बाहें फैला दी...“आजादी मुबारक बेटे”।

आशु दौड़कर माँ की बाहों में समा गया। बोला...आपको भी आजादी बहुत बहुत मुबारक।“आपको भी आजादी बहुत बहुत मुबारक”...उसकी छाती में घूंसा सा लगा। उसकी बाहें ढीली हो गईं। आशु कुछ समझा नहीं। उठकर उसने टी. वी. चालू कर दिया कि स्वतंत्रता दिवस के आकर्षक कार्यक्रम  आ रहे होंगे।

सच में देशभक्ति से भरे गीत प्रसारित हो रहे थे। गायकगण समवेत स्वरों में अपने समय का प्रसिद्ध झंडागीत गा रहे थे।”मानव मात्र मुक्त हो जावे, तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।“मानव मात्र मुक्त हो जावे...गीत की पंक्तियाँ तीक्ष्ण तीर की तरह उसका हृदय भेदन करने लगीं। अंतर्वेदना फूट पड़ने को व्याकुल हो उठी। वह बेकाबू सी उठकर बैठ गई और कलप कलपकर रोने लगी।

क्या हो गया मम्मी...आशु हतप्रभ सा उसे हिलाने लगा....आपको क्या हो गया?बरामदे से गुजरती सास आकर दरवाजे पर ठमककर खड़ी हो गई...”अब इसे क्या हो गया। सारी दुनिया आजादी का जश्न मना रही है और ये  सुबह से रो रही है।“
”क्या हो गया“...पति भीतर आकर दरयाफ्त करने लगा।
”पता नहीं पापा“...आशु कह रहा था...”मैंने आजादी की मुबारकबाद दी तो मम्मी रोने लगीं।“

पति ने पल भर सोचा। बोला...टी. वी. बंद कर दे आशु। अभी तो प्रधानमंत्री भी मुबारकबाद देंगे।

अखबार वैगरह सब हटा दो...ससुर भी आकर खड़े हो गए थे और शायद स्वयं भी वैसा ही कुछ महसूस कर रहे थे...अभी तो सभी महाप्रभु मुबारकबाद दे रहे होंगे...ब्रिटेन के प्रधान मंत्री, अमेरिका के राष्ट्रपति, राष्ट्रसंघ के महासचिव.

वह रोना रोकने की कोशिश कर रही थी, मगर ”मानव मात्र मुक्त हो जावे“ का तीक्ष्ण तीर उसकी छाती में बिंधा उसे लहुलूहान कर रहा था।


- शुभदा मिश्र
14 पटेल वार्ड, डोंगरगढ़(छ.ग.)491445
                              मो.नं.918265..94598

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