मलिक मुहम्मद जायसी के काव्य में रहस्यवादजायसी के रहस्यवाद का मूलाधार प्रेम है। उसी प्रेम के कारण उसमें भावात्मकता, रमणीयता और भावुकता का सन्निवेश हो स
मलिक मुहम्मद जायसी के काव्य में रहस्यवाद
मलिक मुहम्मद जायसी एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपने काव्य के माध्यम से रहस्यवाद को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। उनकी रचनाओं में प्रेम, एकत्ववाद और आध्यात्मिक खोज जैसे विषयों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। जायसी का रहस्यवाद हिंदी साहित्य का एक अमूल्य खजाना है।
रहस्यवाद हृदय की वह दिव्य अनुभूति है, जिसके भावावेश में प्राणी अपनी ससीम और पार्थिव स्थिति से असीम एवं स्वर्गिक महा अस्तित्व के साथ एकात्मकता का अनुभव करने लगता है।आशय यह है कि आत्मा और परमात्मा का घनिष्ठ सम्बन्ध जब काव्यमयी भाषा में व्यक्त होता है तो उसे साहित्य में रहस्यवाद के नाम से अभिहित करते हैं।
रहस्यवाद के दो रूप
कविवर जायसी के काव्य में उच्चकोटि के भावनात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा हुई है। इस रहस्यवाद को शुक्लजी ने दो भागों में विभाजित किया है-साधनात्मक और भावात्मक। योगादि साधनों के द्वारा जहाँ आत्मा और परमात्मा की एकता का प्रतिपादन होता है, वहाँ साधनात्मक रहस्यवाद होता है और जिसका आधार भक्ति या प्रेम होता है, वह भावात्मक रहस्यवाद कहलाता है। जायसी के रहस्यवाद में रमणीयता और सौन्दर्य के साथ-साथ रसमयता भी है। उच्चकोटि के भावात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा करने में जायसी पूर्ण सफल हुए हैं; क्योंकि उन्होंने लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम की व्यंजना बड़े ही सुन्दर कलात्मक ढंग से की है। भौतिक सौन्दर्य के माध्यम से आध्यात्मिक सौन्दर्य की झाँकी देखते हैं। उनके रहस्यवाद में प्रेम की गहन पीड़ा है, तड़पन है, मिलन है और एकात्मकता है।
जायसी का रहस्यवाद
जायसी प्रेममार्गी सूफी कवि हैं; अतः परमात्मा के साथ आत्मा के एकीकरण के लिए प्रेम को अधिक महत्त्व देते हैं। जब कोई कवि आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति करता है, तब उसे निराकार निर्गुण ब्रह्म के लिए भी साकार कल्पना करनी पड़ती है। इस प्रेम का निरूपण उन्होंने पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के प्रगाढ़ एवं निश्छल अनुराग द्वारा किया है। इस प्रेम-निरूपण में विरह की अनुभूति जायसी की सबसे बड़ी विशेषता है। प्रेमी का संकेतमात्र मिलने पर साधक उसकी मनोहरता से आकृष्ट होकर उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठता है। आत्मा और परमात्मा अथवा प्रेमी और प्रिय के इस मिलन में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं। सांसारिक आकर्षण, माता-पिता, धन-वैभव आदि की आसक्ति परमात्मा के मिलन में बाधा डालती हैं। इसीलिए जायसी ने अपने प्रेमी को योगी और साधक के रूप में प्रस्तुत किया है।
कबीर और जायसी के दृष्टिकोणों में अन्तर
कबीर के अनुसार आत्मा और परमात्मा की एकता में सबसे बड़ी बाधा माया के कारण पड़ती है। इस विषय में वे वेदान्त के मायावाद से प्रभावित हैं, परन्तु जायसी पूर्णतया सूफी हैं और सूफीमत में बन्दे और खुदा का एकीकरण सम्भव है, पर वहाँ माया का कोई विशेष स्थान नहीं। जिस प्रकार अपने निर्दिष्ट भवन पर पहुँचने के लिए यात्री को कुछ स्थल पार करने पड़ते हैं, उसी प्रकार सूफी मत में जब आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए व्यग्र होती है तो उसे अपनी साधना के मार्ग में चार अवस्थाएँ पार करनी पड़ती हैं। वे हैं शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारिफत । मारिफत अवस्था में ही आत्मा फनी (स्वतन्त्र) होकर वका (तादात्म्य) के लिए प्रस्तुत होती है। आत्मा में परमात्मा का अनुभव होने लगता है और 'अनलहक' (सोऽहं) सार्थक हो जाता है। जायसी ने भी इसी साधना की ओर संकेत किया है- चार बसेरे सों चढ़े, सत सौं उतरे पार ।
कबीर जिसे माया कहते हैं,वह सूफी कवियों की साधना का प्रमुख माध्यम है। जायसी की दृष्टि समष्टिमूलक है। सम्पूर्ण विश्व में वे उसी अनन्य का व्यापक रूप देखते हैं। इस नाते विश्व की कोई भी वस्तु उनकी दृष्टि में त्याज्य नही । परोक्ष ज्योति की ओर जायसी कैसा सुन्दर संकेत करते हैं-
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ।
जहँ जहँ विहँस सुभावहिं हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोती परगसी ॥
संसार में जो कुछ भी सुन्दर है, मूल्यवान् है, निर्मल है वह सब उसी का प्रतिबिम्ब है, उसी की छाया है—
नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर ॥
उस अखण्ड ज्योति का आभास पाकर जायसी का हृदय डगमगा उठता है और वे कहने लगते हैं-
देखि मानसर रूप सुहावा। हिय हुलास पुरइन होइ छावा ॥
था अँधियार रैनि मसि छूटी। भा भनभार किरन रवि फूटी ॥
[अर्थात् उस ज्योति के आभास मात्र से सर्वत्र प्रकाश छा गया। सांसारिक आसक्ति रूपी रात का अवसान होकर कान्तिमय अरुणोदय दिखायी पड़ा ।]
प्रकृति के माध्यम से विरह की विश्व व्यापी व्यंजना
उस प्रेममय के प्रेम से सारा दृश्य जगत् ओत-प्रोत हो रहा है। इस प्रकार पृथ्वी से आकाश तक सारा विश्व-ब्रह्माण्ड परम प्रियतम के प्रेम में वाणों से बिंध रहा है।धरती बान वेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ॥ पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर दोनों मूलतः एक थे, न जाने किसने भेद डाल दिया-
धरती सरग मिले हुत दोऊ। केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ ।।
समस्त पृथ्वी इसी विरह-व्यथा से पीड़ित है-
सुरुज बूड़ि उठा होइ ताता और मजीठ बेसू बन राता।
भा बसंत, राती बनस्पतीं औ राते सब जोगी जती ॥
[ अर्थात् उसके वियोग के ताप से तपकर ही तो सूर्य इतना गर्म हो गया है। वन में पलाश (टेसू) के पुष्प लाल हो उठे हैं। सारी वनस्पतियाँ और योगी-यती उसी के प्रेम में रंगे हैं।]
इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखायी पड़ती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति के माध्यम से जायसी बड़े सरस और बड़े हृदयग्राही ढंग से अपने भावों को प्रकट करने में पूर्ण सफल हुए हैं।
आत्मा पति तथा परमात्मा पत्नी
जायसी ने आत्मा को पति और परमात्मा को पत्नी मानकर साधना की है। उनके पद्मावत में रत्नसेन आत्मा और पद्मावती परमात्मा का प्रतीक है। जायसी के प्रेम निरूपण में विरह की अनुभूति सबसे बड़ी विशेषता है। अज्ञात प्रियतमा (पद्मावती रूपी बह्म) का संकेतमात्र पाते ही साधक (रलसेन) उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठता है। प्रेमी और प्रिय (आत्मा और परमात्मा) के मिलन में अनेक बाधाएँ आती हैं, जिनका सामना प्रेमी (साधक) को करना पड़ता है। सूफी मत के अनुसार साधक को परमात्मा के पाने तक शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारिफत चार अवस्थाएँ पार करनी पड़ती हैं, जिनका जायसी ने भली-भाँति निरूपण किया है।
सद्गुरु का महत्त्व
उस परमात्मा की प्राप्ति में गुरु के पथ-प्रदर्शन का बड़ा महत्त्व माना गया है। कबीर ने तो गुरु को परमात्मा से भी बड़ा घोषित कर दिया है। जायसी भी गुरु की महत्ता को हृदय से स्वीकार करते हैं। उनका पूर्ण विश्वास है कि गुरु के बिना परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है। सद्गुरु ही साधक के जीवन में आने वाली कठिनाइयों एवं बाधाओं का अपने सत् ज्ञान द्वारा निराकरण करता है।
सद्गुरु कहलाने का अधिकारी कौन है ? जायसी बड़ा सटीक उत्तर देते हैं कि जो शिष्य के मन में परमात्मा के विरह की चिंगारी लगा दे, वही सद्गुरु है और जो उस चिंगारी को सुलगाकर विराट् ज्वाला बना ले, वही सच्चा चेला है- गुरु विरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥ सद्गुरु ही शिष्य को परमात्मा के स्वरूप का परिचय कराकर उसके सन्धान (खोज) में प्रवृत्त करता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार जायसी के रहस्यवाद का मूलाधार प्रेम है। उसी प्रेम के कारण उसमें भावात्मकता, रमणीयता और भावुकता का सन्निवेश हो सका है। फलतः उनका रहस्यवाद भावात्मक रहस्यवाद की कोटि में आता है। उनका यह रहस्यवाद बड़ी उच्चकोटि का है, इसमें सन्देह नहीं। उनकी स्वानुभूत विरह-वेदना सहृदयों को मर्माहत किये बिना नहीं रहती ।
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