काव्य में कल्पना तत्व का अर्थ स्वरूप कार्य और भेदों का विवेचन कल्पना काव्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है। यह कवि की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह अपने
काव्य में कल्पना तत्व का अर्थ स्वरूप कार्य और भेदों का विवेचन
कल्पना काव्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है। यह कवि की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह अपने मन में नए-नए चित्रों, भावों और संसारों का निर्माण करता है। यह कवि को वास्तविकता से परे जाकर एक नई दुनिया बनाने की अनुमति देती है।
काव्य में कल्पना तत्व का अर्थ और स्वरूप
काव्य ही नहीं, प्रत्येक कला का जन्म कल्पना के कारण ही सम्भव हो पाता है। प्रत्येक कला में यथार्थ एवं कल्पना का समन्वय ही कला-सृष्टि के लिये उत्तरदायी है। इसमें इन्द्रियों की संवेदना से जो प्रत्यक्षीकरण (Perception) होता है उसे हम प्रत्यक्ष ज्ञान या यथार्थ का ज्ञान कहते हैं, किन्तु प्रत्यक्ष इन्द्रिय-संवेदनों के अभाव में भी विविध प्रकार के रमणीय एवं भयानक, सुखद एवं दुःखद चित्र जो मन के सामने उपस्थित हो जाते हैं, यह कल्पना का ही व्यापार है। कल्पना पूर्वानुभूत वस्तुओं को नये परिधान एवं रंग-रूप से हमारे सामने उपस्थित करने की अद्भुत क्षमता रखती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्यानन्द को अलौकिक कहकर लौकिक अनुभव से उसकी जो भिन्नता प्रकट की है उसका आशय यही है कि काव्य में लौकिक अनुभूति कल्पना द्वारा पुनः सृजन को प्राप्त होकर एक सर्वथा नवीन अनुभूति बन जाती है जो ब्रह्मास्वाद न होकर भी ब्रह्मास्वाद सदोहर अवश्य है । कवि की कल्पना शक्ति के कारण ही आचार्य मम्मट ने कवि की सृष्टि को “नियतिकृत नियमरहिताम्” कहा है। कवि जब किसी भौतिक संवेदना को ग्रहण करता है तो उसकी कल्पना-शक्ति उस संवेदना का इस प्रकार पुनर्निर्माण करती है कि वह सर्वथा एक नई वस्तु बन जाती है। इसलिये वाल्मीकि की 'सीता' उस सीता से भिन्न है जो अनकनन्दिनी थी, तुलसी के राम तुलसी के मानस पुत्र हैं वे दशरथी राम नहीं हैं।
सामान्य व्यक्ति करुणाजनक हृदय को देखकर करुणा का अनुभव तो करता है किन्तु उसका यह अनुभव काव्य में करुणा रस नहीं बन पाता है। ऐसा क्यों है ? क्योंकि काव्य के सृजन के लिए अनुभूति के साथ उस कल्पनाशक्ति की भी बहुत आवश्यकता होती है जो हमारी सीमित भौतिक अनुभूति को व्यापक सामान्य के साथ जोड़ती है। जब तक उस अनुभूति को मानव मात्र की अनुभूति नहीं बनाया जायेगा तब तक वह काव्य बनेगा कैसे ? इसी को आचार्य शुक्ल ने आलम्बन-तत्व धर्म का साधारणीकरण कहा है। कल्पना एक अनुभूति के साथ विभिन्न बिम्बों (Image) का सम्बन्ध जोड़ता है। सभी अनुभूतियों के पारस्परिक विरोध (Contradiction) का परिहार कल्पना को काव्य के सृजन में स्वतः समर्थ तत्व स्वीकार कर लिया है। शैली के अनुसार-
"कल्पना की अभिव्यक्ति ही कला है।” क्रोचे के अभिव्यंजनावाद में अभिव्यंजन (Expression) कल्पना ही व्यापार है। उसे कल्पना (Imagination) की 'प्रातिभज्ञान' तथा ब्लेक ने 'विशुद्ध अन्तर्दृष्टि' कहकर पुकारा है। वर्ड्सवर्ण ने काव्य की निम्नलिखित प्रसिद्ध परिभाषा दी है—
"Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings, It takes its origin from emotions recollected in traquility." इसमें भी कल्पना को ही प्रधानता प्रदान की गयी है।
काव्य में कल्पना का कार्य
काव्य में कल्पना के विभिन्न कार्य हैं—ऐक्य विधान अर्थात् अन्तर और बाह्य में ऐक्य स्थापित करना ।
- पुनसृजन करना-स्मृति द्वारा पूर्वानुभूत पदार्थों के नवीन रूप का निर्माण करना ।
- समाहार—कल्पना के ही भरोसे पर कवि काव्य में विभिन्न प्रसंगों की उद्भावना करता है।
- अलंकार विधान—कल्पना द्वारा ही अप्रस्तुत पक्ष को प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरणार्थ, मुख की कमल से तुलना, मुख में कमल की सम्भावना, सन्देह अथवा मुख पर कमल का आरोप कल्पना द्वारा ही सम्भव है।
कल्पना के विभिन्न भेद
कल्पना के विभिन्न भेद विभिन्न आधारों पर किये जा सकते हैं जैसे-
(क) पुनरावृत्यात्मक कल्पना (Reproductive imagination) – जब कल्पना के विगत दृश्य यथावत् दुहराये जाते हैं।
(ख) सृजनात्मक कल्पना (Creative imagination) - जब पूर्वानुभवों से नवीन योग बनाये जाते हैं। जैसे हमने स्त्री और पक्षियों को अलग-अलग देखा है किन्तु दोनों के योग से कल्पना एक नवीन चित्र परी का निर्माण कर देती है।
इसी प्रकार कल्पना के साथ संकल्प के योग को आधार मानकर इसे (क) संकल्पित (Active) तथा (ख) असंकल्पित (Passive) दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। जिस कल्पना के पीछे कोई मानसिक प्रयास रहता है उसे संकल्पित या सक्रिय और जिसके पीछे कोई मानसिक प्रयास नहीं होता उसे असंकल्पित या निष्क्रिय कल्पना कहा जाता है। दिवास्वप्नों में जो कल्पना होती है, वह इसी कोटि की कल्पना है। इसी को स्वछन्द कल्पना (Fancy) भी कहते हैं।
विभिन्न इन्द्रियों से प्रदत्त संवेदनाओं अथवा ज्ञान के ही समान कल्पना भी उतने प्रकार की मानी जा सकती है। चित्रों (दृश्यों) के निर्माण में दृष्टि कल्पना, ध्वनियों से सम्बन्धित ध्वनि-कल्पना, घ्राण से सम्बन्ध रखने वाली गन्ध-कल्पना तथा इसी प्रकार स्पर्श एवं स्वाद-कल्पना भी है।
इस प्रकार काव्य में कल्पना का प्रमुख स्थान है और कवि-कर्म एवं भावना दोनों के लिये वह समान रूप से आवश्यक है फिर भी कल्पना और यथार्थ का समन्वय ही काव्य को श्रेष्ठतम बनाता है। यथातथ्य चित्रण आदि अकाव्य है तो उन्मुक्त कल्पना (Free imagination) जो भावानुभूति की उपकारी न हो, को भी काव्य के क्षेत्र से बाहर ही मानना चाहिये ।
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