नागमती के विरह वर्णन की विशेषताएँ मलिक मुहम्मद जायसी की रचना 'पद्मावत' में नागमती के विरह वर्णन को हिंदी साहित्य का एक अत्यंत मार्मिक और भावपूर्ण चित
नागमती के विरह वर्णन की विशेषताएँ
मलिक मुहम्मद जायसी की रचना 'पद्मावत' में नागमती के विरह वर्णन को हिंदी साहित्य का एक अत्यंत मार्मिक और भावपूर्ण चित्रण माना जाता है। नागमती के विरह का वर्णन इतना गहरा और जीवंत है कि पाठक उसके दुःख को सहजता से महसूस कर सकता है।
विरह जीवन की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें प्रियतम से मिलन की तीव्र उत्कण्ठा और उत्कट प्रतीक्षा मिश्रित रहती है। विरह की अग्नि में तपकर प्रेम पूर्णतः विशुद्ध और निर्मल हो जाता है; क्योंकि उसमें से वासना का अंश निकलकर एकमात्र प्रिय की हितकामना ही शेष रह जाती है। जायसी प्रेम की पीर के कवि हैं; क्योंकि सूफी सिद्धान्त के अनुसार उस परम प्रभु की प्राप्ति प्रेम की साधना द्वारा ही सम्भव है और प्रेम की साधना का अर्थ है विरह की साधना; अतः जायसी स्वयं प्रभु के विरही थे, इसलिए वे नागमती के विरह-वर्णन को स्वानुभूति की-सी तीव्रता और प्रगाढ़ता से चित्रित कर सके और इसी कारण 'पद्मावत' में विरह का जैसा सजीव और हृदयस्पर्शी अंकन मिलता है, वैसा हिन्दी-काव्य में अन्यत्र दुर्लभ है।
जायसी का नागमती-वियोग-वर्णन 'पद्मावत' में वियोग-वर्णन की सर्वाधिक हृदयबेधक निवृत्ति उस स्थल पर हुई, जब राजा रत्नसेन हीरामन तोते से पद्मावती के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसकी खोज में निकल पड़ते हैं और रानी नागमती उनके वियोग में संतप्त होती है। नागमती के विरह वर्णन की विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
भारतीय स्वरूप की रक्षा
जायसी ने विरह-व्यंजना में भारतीयता की पूरी रक्षा की है। भारतीय नारी अपने विरह का प्रदर्शन नहीं करती, बल्कि गीली लकड़ी की भाँति भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती है, जिसका धुआँ भी बाहर प्रकट नहीं होने पाता। वह अपने पति को कोई उलाहना नहीं देती, उससे कोई शिकायत नहीं करती। केवल यही प्रार्थना करती है कि तुम अब भी लौट आओ तो मैं पुनः स्वस्थ हो सकूँगी। यह असाधारण सहनशीलता और अविचलित पतिनिष्ठा भारतीय नारी का सर्वथा निजी वैशिष्ट्य है-
अबहूँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर घर आउ।
मंदिर उजार होत है, कव कै आइ बसाउ ||
बदलती ऋतुओं के साथ विरह की उत्तरोत्तर बढ़ती वेदना-वर्ष के बारह महीनों में नागमती की विरहानुभूति पृथक्-पृथक् वर्णित की गयी है। यह प्रसंग 'बारहमासा' के नाम से विख्यात है। विशेषता यह है कि प्रकृति के बदलते हुए स्वरूप के साथ-साथ नागमती की विरह-व्यंजना का स्वरूप भी बदल रहा है। रत्नसेन आषाढ़ मास से कुछ पूर्व पद्मावती की खोज में निकले थे; अतः नागमती को वर्षा ऋतु में पहली बार प्रिय-वियोग का अनुभव हुआ । वर्षा ऋतु अत्यधिक उद्दीपक होने से विरहीजनों के लिए विशेष दुःखदायी है। आकाश में मेघ छाने लगे। पृथ्वी की तप्त छाती शीतल होने लगी। वृक्ष, लता, गुल्मादि पल्लवित और प्रफुल्लित हो उठे । पर नागमती को वर्षा की बूँदें कभी बाण की तरह भेदती हैं, तो कभी बिजली की चमक, तलवार की तरह काटती हुई प्रतीत होती हैं; यथा-
खड़ग बीजु चमकै चहुँ ओरा।
बुँद बान बरसहि घन घोरा ।
श्रावण आने पर सभी सखियाँ हिंडोला झूलने लगीं, पर नागमती का तो हृदय स्वयं हिंडोला बनकर डोल रहा था-
हिय हिंडोल जस डोलै मोरा।
बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ॥
वर्षा के तीन मास उसे तीन युग जैसे लगते हैं। भादों की अँधेरी काली रातें काटना दुष्कर हो जाता है। फलतः वह चरम निस्सहायता और निरवलम्बता की अनुभूति से एक पाटी से लगी सारी रात काट देती है-
रही अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी ।।
शीत ऋतु उसके दुःख को घटाने के बजाय और बढ़ाती लगती है। जाड़े की रातें और दुर्वह हो उठी हैं। इस ऋतु में सभी की मनोकामनाएँ पूरी हो रही हैं। प्यासा चातक स्वाति-बिन्दुओं से प्यास बुझाकर तृप्त होता है। सारस किलोलें कर रहे हैं। खंजन पुनः दिखायी पड़ने लगे हैं। सर्वत्र प्रकाश छा गया है, पर नागमती के भाग्य में अँधेरा ही अँधेरा है। दीपावली का प्रकाश पर्व भी आ पहुँचा है । सखियाँ इठला-इठलाकर झूमक गाती हुई त्योहार मना रही हैं, पर इधर पतिवियुक्ता बेचारी नागमती क्या करे ? उसने तो केश-प्रसाधन तक करना छोड़ दिया है-
सखि माने तिउहार सब, गाई देवारी खेलि ।
हौं का गाव कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ।
ग्रीष्म ऋतु भीषण ताप लेकर आती है। बैशाख मास में चोआ और चन्दन जैसे शीतल पदार्थ भी अग्निसदृश दाहक लगते हैं। वह भाड़ में पड़े दाने के सदृश भुन रही है, पर पति-भक्ति इतनी प्रगाढ़ है कि फिर भी उसमें से निकलना नहीं चाहती-
लागिउँ जरै जरै जस भारू। फिर फिर भूँजेमि, तजेउँ न बारू ॥
विरह की सभी मनःस्थितियों का अंकन
जायसी ने नागमती के विरह में चिन्ता, विषाद, शंका, त्रास, आवेग, स्मृति, अभिलाषा, दैन्य, निर्वेद, उन्माद व्याधि का ही नहीं, अपितु मरण तक का मार्मिक चित्रण किया है -
सूखा हिया हार भा भारी। हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी।
खन एक आव पेट महूँ ! साँसा। खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ।।
विरह की एक विश्वव्यापी व्यंजना
पति की खोज में वह राजमहल छोड़कर वन-वन भटकती फिरती है और जड़, जंगम, पशु-पक्षियों से निवेदन करती फिरती है। उसके विरह में ऐसी व्यापकता है कि उसकी सहानुभूति में सारी सृष्टि अश्रुओं से भीग जाती है।
अन्त में नागमती पक्षी द्वारा पद्मावती को सन्देश भेजती है-
पद्मावति सौं कहेउ विहंगम, कन्त लुभाइ रही करि संगम ।
हमहुँ बियाही संग ओहि पीऊ, आपुहि पाइ जानु पर जीऊ ।
मोहिं भोग सौं काज न बारी, सौंह दृष्टि कै चाहन हारी।
नारी के पातिव्रत्य और चरम आत्मबलिदान के साथ दीनता की कैसी करुण व्यंजना हुई है इन पंक्तियों में। यह वह नारी है जो अपनी रूपगर्विता सपत्नी को, जिसने उसका सुहाग छोना है, सन्देश भेजकर आश्वस्त करती है कि सुख भोग तुम्हें मुबारक रहे, मुझे तो केवल पति-दर्शन मिलता रहे, इतना ही चाहती हूँ। भारतीय नारी का यह संयम और आत्माहुति अपनी गरिमा में अतुलनीय है।
उसका विरह विश्वव्यापी हो उठता है। सारी सृष्टि उसमें रंग जाती है। भरे और कौए उसी के जलने से उठे धुएँ से काले पड़ गये हैं-
पिउ सो कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा हे काग !
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ।।
ऐसे क्षणों में विरह अपनी लौकिकता छोड़कर पारलौकिकता का स्पर्श करने लगता है। विरह की चरम विह्वलता के क्षणों में नागमती अपने शरीर को राख कर देना चाहती है और कामना करती है कि वह राख उड़कर उस मार्ग पर गिरे जिस पर उसका प्रियतम- आ रहा हो, ताकि मरकर ही सही वह उसका अन्तिम चरण-स्पर्श तो पा ले-
यह तन जारौं छार कै, कहीं कि पवन! उड़ाव'।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कन्त धरै जहँ पाव ॥
विरह की ऐसी मर्मभेदिनी चरम व्यंजना वाणी को मूक करके केवल प्रगाढ़ अनुभूति का विषयमात्र बनकर रह जाती है।
फारसी प्रभाव
फारसी के प्रभाववश कवि ने विरह में मांस भुनना, रक्त के आँसू गिरना आदि बीभत्स वर्णनों का भी समावेश कर दिया है, जो भारतीय काव्य में शृंगार रस का विघातक माना जाता है और इसीलिए रस-दोष में परिगणित है। फिर भी कवि की विरह-व्यंजना इतनी मार्मिक है कि यह दोष नगण्य हो उठता है।
निष्कर्ष
सचमुच नागमती की विरह-व्यंजना अपनी तीव्रता, प्रगाढ़ता, गहनता, मार्मिकता एवं विश्वव्यापकता में हिन्दी-काव्य में और विश्व-काव्य का गौरव है। वह हिन्दू पत्नी के चरमोत्कर्ष का पावन पर्व है। यहाँ यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है कि नागमती एक रानी के रूप में नहीं, अपितु एक साधारण नारी के रूप में विरह का अनुभव करती है। इससे उसके विरह की मार्मिकता बढ़ जाती है; क्योंकि वह विश्वजनीन (प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अनुभवगम्य) हो उठता है।
नागमती का विरह वर्णन हिंदी साहित्य का एक अद्वितीय कृति है। इसमें कवि ने मानवीय भावनाओं, प्रकृति के सौंदर्य और सामाजिक संदर्भों को एक साथ पिरोकर एक अमर रचना का निर्माण किया है। यह वर्णन हमें नागमती के त्याग और बलिदान के प्रति सम्मान और प्रशंसा करने के लिए प्रेरित करता है।
नागमती के विरह वर्णन की विशेषताएं पढ़कर ऐसे लगा जैसे स्कूल में परीक्षा में यह आने वाला है और हम तैयारी में जुटे हैं ,, बहुत अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंनागमती के विरह वर्णन की विशेषताएं पढ़कर ऐसे लगा जैसे स्कूल में परीक्षा में यह आने वाला है और हम तैयारी में जुटे हैं ,, बहुत अच्छी जानकारी
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