रीतिकालीन कवियों के समीक्षा सिद्धान्तों का विवेचन रीतिकालीन कवि काव्य को एक कला के रूप में देखते थे और इसमें सौंदर्य और आनंद को प्राथमिकता देते थे।
रीतिकालीन कवियों के समीक्षा सिद्धान्तों का विवेचन
रीतिकालीन कवि काव्य को एक कला के रूप में देखते थे और इसमें सौंदर्य और आनंद को प्राथमिकता देते थे। उन्होंने भाषा, अलंकार, छंद और रस के माध्यम से काव्य को एक नया आयाम दिया। हालांकि, आधुनिक दृष्टिकोण से रीतिकालीन काव्य को अत्यधिक अलंकारिक और भावुक माना जाता है।
रीतिकालीन कविता स्वान्तः सुखाय न रहकर स्वामिनः सुखाय होकर कवियों की जीवन-वृत्ति का साधन बन गई थी। अतः कविता में आत्म-प्रदर्शन की भावना स्वतः ही आ गई थी। भक्तिकाल में लक्ष्य-ग्रन्थों की प्रचुर परिणाम में रचना हो चुकी थी। भक्तिकाल के अन्त में ही लक्षण-ग्रन्थों की प्रवृत्ति उभर रही थी। सं. 1598 में कृपाराम 'रस-तरंगिणी' में थोड़ा-बहुत रस-निरूपण कर चुके थे। सं. 1700 के लगभग चिन्तामणि त्रिपाठी से रीतिकाल के प्रारम्भ होने से 50 वर्ष पूर्व केशव ने 'विप्रिया' और 'रसिकप्रिया' लिखकर लक्षण-ग्रन्थों का मार्ग प्रशस्त कर चुके थे। रीतिकाल के प्रारम्भ होते-होते काव्य-रचना में रीति-ग्रन्थों की परिपाटी स्वीकार कर ली गई।
संस्कृति में रीति-ग्रन्थों की एक पुष्ट-परम्परा थी। परन्तु संस्कृत में आचार्यत्व और कवि कर्म पृथक् रहा। संस्कृत आचार्यों में काव्य अथवा रीति का विवेचन किया, काव्य रचना नहीं। पण्डितराज जगन्नाथ और दण्डी जैसे आचार्य भी संस्कृत में हुए, जिन्होंने एक ओर 'रसगंगाधर' और 'काव्यादर्श' जैसे रीति-ग्रन्थों की रचना की और दूसरी ओर 'भामिनि विलास' और 'दशकुमारचरितम्' जैसे काव्य-प्रन्थ लिखे। पर उनके दोनों रूप पृथक् ही रहे । संस्कृत के उत्तरकाल में ऐसी परम्परा अवश्य रही, जिसमें रीति-विवेचन के प्रसंग में काव्य के लक्षण भी हैं और साथ ही काव्य के उदाहरण भी। परन्तु उदाहरण अपना स्वतन्त्र सत्व न रखकर सिद्धान्त विवेचन को ही स्पष्ट करने में सहायक होते हैं। कुछ ऐसे भी ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें काव्यशास्त्र के उदाहरणस्वरूप आश्रयदाताओं की प्रशंसा के लिए छन्दों की रचना की गई है। रस-परम्परा में कवि और आचार्य एक हो जाते हैं। हिन्दी का रीतिकाव्य संस्कृत की इसी तीसरी परम्परा का विकसित रूप था। इसमें आचार्यत्व और कवि-कर्म एक कर दिया गया था। रीति-विवेचन के बिना कवि-अधूरा समझा जाता था।
संस्कृत में रस, अलंकार, रीति, ध्वनि और वक्रोक्ति काव्य के पाँच मुख्य सम्प्रदाय स्थापित हुए। इनके आचार्यों ने अपनी-अपनी धारणाओं और मान्यताओं के अन्तर्गत संस्कृत काव्यशास्त्र का इतना विस्तृत और सर्वांगीण विवेचन किया कि उसमें कुछ भी शेष न रहा। केशव ने पूर्वकालीन आचार्यों भामह, उद्भट आदि के पथ का अनुसरण किया। इसमें अलंकार और अलंकार्य स्पष्ट नहीं हो पाये थे, पर केशव की यह परम्परा आगे न बढ़ पाई। केशव के 50 वर्ष पश्चात् हिन्दी में जिस रीति-परम्परा का श्रीगणेश चिन्तामणि त्रिपाठी ने किया, उसी को रीतिकाल के कवियों ने प्रायः ग्रहण किया। हिन्दी में अलंकार-ग्रन्थ अधिकतर जयदेव के 'चन्द्रलोक' और अप्पय दीक्षित के 'कुवलयानन्द' के आधार पर निर्मित हुए। कुछ ग्रन्थों में मम्मट के 'काव्य-प्रकाश' और विश्वनाथ के 'काव्यदर्पण' का भी आधार मिलता है। इस प्रकार रीतिकाल में संस्कृत काव्यशास्त्र की एक संक्षिप्त उद्धरणी हिन्दी में आई।
संस्कृत में कवि आचार्य अलग थे; परन्तु हिन्दी में यह अन्तर नहीं रहा-रीतिकाल के राजाश्रय में रहने वाले कवियों के लिए कवि कर्म और आचार्य-कर्म गौण हो गया। कवि रीति-परम्परा का ग्रहण दरबार में पांडित्य-प्रदर्शन के लिए करते थे। उन्होंने संस्कृत की उस पतनोन्मुखी परम्परा को ग्रहण किया, जिसमें केवल श्रृंगार रसमय कवि शिक्षा के प्रन्थों का निर्माण हुआ था। आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचना और पार्यालोचन शक्ति की अपेक्षा होती है, उसका विकास रीतिकाल के कवियों में नहीं मिलता। कवि लोग एक दोहे में ही काव्य के लक्षण देकर अपने कवि-कर्म में प्रवृत्त हो जाते थे। काव्यांगों का विस्तृत विवेचन तर्क द्वारा खण्डन-मण्डन, नये-नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन आदि कुछ भी न हो सका। गद्य का अभाव रीति-विवेचन के मार्ग में बाधक रहा। रीतिकाल के आचार्य कवियों का रीति-सम्बन्धी ज्ञान भी अधूरा था। अधिकतर कवि आचार्य के स्थान पर कवि ही अधिक थे। रीतिकाल के रीति-विवेचन में मौलिकता नहीं मिलती।
रीतिकाल में रीति-विवेचन अपूर्ण रहा। अपर्याप्त लक्षण साहित्य-शास्त्र का सम्यक् बोध कराने में असमर्थ रहे । अनेक स्थलों पर अलंकार आदि के स्वरूप का बोध ही नहीं होता। कहीं-कहीं उदाहरणों में भी संगति नहीं मिलती। भ्रम, सन्देह और स्मरण अलंकार के लक्षणों में प्रायः सभी कवियों ने सादृश्य की बात छोड़ दी है। इससे उनके उदाहरण बहुत जगह अलंकार के न होकर भाव के ही हो गये हैं। भूषण के उदाहरण सबसे गड़बड़ हैं। देव ने 'छल' नामक एक नया संचारी भाव माना है। कुछ लोगों ने इसे देव की नई उद्भावना माना है। परन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसको 'रसतरंगिणी' से लिया गया माना है। 'छल' का अन्तर्भाव वैसे ही 'अवहित्था' में हो जाता है। भूषण का 'भावक छवि' अलंकार संस्कृति ग्रन्थों के 'भाविक' का ही परिवर्तित रूप है। रीतिकाल के आचार्य कहे जाने वाले कवियों के द्वारा शब्द-शक्ति का विवेचन प्रायः उपेक्षित ही रहा। दास आदि ने इसका नाममात्र के लिए प्रसंग अवश्य उठाया है। परन्तु उससे विषय का बोध होने के स्थान पर भ्रान्त धारणा ही अधिक बनती है। रस-निरूपण में श्रृंगार रस के अतिरिक्त प्रायः अनेक रसों की उपेक्षा ही की गई। श्रृंगार के अन्तर्गत विशेष रूप से नायिका भेद, नख-शिख, षट ऋतु आदि का विस्तृत विवेचन किया गया । नाट्य शास्त्र के विवेचन का सर्वथा अभाव रहा।
रीति-ग्रन्थों के रचयिता भावुक कवि थे। उनके उद्देश्य शास्त्रीय विवेचन न होकर कविता करना था। अतः रसों और अलंकारों के जो उदाहरण इन कवियों ने दिये हैं, वे बड़े ही सरस और हृदयग्राही हैं। इनका विषय प्रधानतः श्रृंगार रस है । नायिका श्रृंगार रस का आलम्बन है । अतः उसके अंग-प्रत्यंग का वर्णन बड़े विस्तार से हुआ। डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है-
“एक ओर बिहारी जैसे सूक्ष्मदर्शी कवि की निगाह सौन्दर्य के बारीक से बारीक संकेत को पकड़ सकती थी, तो दूसरी ओर मतिराम, देव, घनानन्द, पद्याकर जैसे रस-सिद्ध कवियों की तो सम्पूर्ण चेतना ही जैसे रागपर्व में ऐन्द्रिय आनन्द का पान करके उत्सव मनाने लगती थी। नयनोत्सव का ऐसा रंग विद्यापति को छोड़कर प्राचीन साहित्य में अन्यन्त्र दुर्लभ है।”
रीतिकाल के रस-ग्रन्थ तो वास्तव में नायिका-भेद के ही ग्रन्थ हैं। इस प्रकार श्रृंगार के विविध अंगों और उपांगों का रीतिकालीन कवियों ने सुन्दर वर्णन किया है। इन कवियों की जीविका कविता ही थी । रीति-निरूपण तो उन्होंने दरबारी मनोवृत्ति और साहित्यिक परम्परा के कारण ही किया। वे कवि पहले हैं और आचार्य पीछे। आचार्य रूप में जहाँ वे सर्वथा असफल रहे, वहाँ कवि रूप में उन्हें पूर्ण सफलता मिली।
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