साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन की विशेषता मैथिलीशरण गुप्त की महाकाव्य साकेत में उर्मिला के विरह वर्णन को आधुनिक हिंदी काव्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण मा
साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन की विशेषता
मैथिलीशरण गुप्त की महाकाव्य साकेत में उर्मिला के विरह वर्णन को आधुनिक हिंदी काव्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। इस वर्णन में कवि ने उर्मिला की मनोदशा को इतनी गहराई और मार्मिकता से चित्रित किया है कि पाठक भी उनके दुःख को सहजता से महसूस कर सकता है।
उर्मिला का विरह 'साकेत' की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। उसकी परिस्थिति की दयनीयता उसके विरह को और करुण बना देती है।सीता राम के साथ वन को चली जाती है, मांडवी और श्रुतिकीर्ति अपने पतियों से कभी वियुक्त नहीं होतीं। केवल उर्मिला ही अपने पति से चौदह वर्षों के लिए पूर्णतः वियुक्त है। 'साकेत' का पूरा नवम सर्ग उर्मिला के वियोग की विभिन्न स्थितियों से भरपूर है। कवि ने उसकी मानसिक और शारीरिक दशाओं का बड़ी सहृदयता से चित्रण किया है। उसकी कृशता का चित्र द्रष्टव्य है -
मुख- कान्ति पड़ी पीली-पीली आँखें अशान्त नीली-नीली,
क्या हाय यही वह कृश काया,
या उसकी शेष सूक्ष्म छाया।
धीरे-धीरे वह अपनी व्यथा से ऊपर उठने का प्रयास करती है और केवल इतने से सन्तोष पाने का प्रयास करती है कि -
आराध्य-युग्म के सोने पर, निस्तब्ध निशा के होने पर।
तुम याद करोगे मुझे तभी, तो बस फिर मैं पा चुकी सभी ।
चित्रकूट में उर्मिला की लक्ष्मण से और उसके सम्मुख पदावनत हो जाते हैं।क्षण-भर को भेंट होती हैं। उसका धैर्यपूर्ण आत्म-बलिदान देखकर लक्ष्मण गद्गद हो उठते हैं ।गुप्तजी ने उर्मिला के विरह-वर्णन में आधुनिक पद्धति पर लाक्षणिक वैचित्र्य की मिलता है; जैसे-
गिर पड़े दौड़ सौमित्र प्रिया-पदतल में,
वह भीग उठी प्रिय चरण धरे दग-जल में ।
परम्परागत रूप में षड्ऋतु वर्णन और दसों काम-दशाओं का चित्रण करने के साथ-साथ भी झलक दिखायी है। शरद ऋतु की विविध वस्तुओं में उसे अपने पति के स्वरूप का आभास मिलता है -
फैला उनके तन का आतप,
मन से सर सरसाये,
घूमें वे इस ओर वहाँ,
ये हंस यहाँ उड़ छाये !
करके ध्यान आज इस जन का
निश्चय वे मुसकाये फूल उठे हैं
कमल अधर से यह बन्धूक सुहाये !
इसी प्रकार वह शिशिर ऋतु से निवेदन करती है कि वह वन में न जाये -
शिशिर न फिर गिरि वन में
जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में
कितना कंपन तुझे चाहिए ले मेरे इस तन में
सखी कह रही पांडुरता का क्या अभाव आनन में
वीर जमा दे नयन नीर यदि तू मानस भाजन में
तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में
हँसी गई रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में।
वसन्त के आगमन पर वह अपनी कोमल काम-भावनाओं को जीतने का प्रयास करती दिखायी देती है और कामदेव से कहती है कि -
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो ॥
उर्मिला जब मेघनाद के शक्ति-प्रहार से लक्ष्मण के मरणासन्न होने की बात सुनती है तो प्रिय के विरह में मृतप्राय वही विरहिणी बाला क्षत्राणी के दर्प से दीप्त हो उठती है और वीरवेश धारणकर लंका-युद्ध में जाने को सन्नद्ध हो जाती है।
साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन हिंदी साहित्य का एक अद्वितीय कृति है। इसमें कवि ने मानवीय भावनाओं, प्रकृति के सौंदर्य और सामाजिक संदर्भों को एक साथ पिरोकर एक अमर रचना का निर्माण किया है। यह वर्णन हमें उर्मिला के त्याग और बलिदान के प्रति सम्मान और प्रशंसा करने के लिए प्रेरित करता है।सारांश यह है कि उर्मिला के विरह में यदि अन्तःसलिला का संचित जल है तो ज्वालामुखी का दहकता लावा भी । उर्मिला गुप्तजी की अपूर्व सृष्टि है, जिससे 'साकेत' और उसके रचयिता धन्य हो गये।
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