तुलसीदास का समाज निर्माण में योगदान तुलसीदास जी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी
तुलसीदास ने समाज निर्माण में विशेष सहयोग प्रदान किया है
तुलसीदास जी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी रचनाएँ आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती हैं और भारतीय समाज के मूल्यों को मजबूत करती हैं।जिस युग में गोस्वामीजी का आविर्भाव हुआ, उस युग में धर्म, समाज, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में घोर विषमता व्याप्त थी। राजनीतिक क्षेत्र में शासक मुसलमान थे, जो अपने भोग-विलास में ही मुख्य रूप से संलग्न रहते थे और प्रजा हिन्दू थी, जो इन शासकों के अत्याचारों से पीड़ित और संत्रस्थ थी। धार्मिक क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के अतिरिक्त स्वयं हिन्दुओं में शैव, शाक्त एवं वैष्णव मतों के अनुयायियों में पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष विद्यमान था। पारिवारिक जीवन भी विशृंखलित था। इस प्रकार सर्वत्र वैषम्य और अशान्ति का बोलबाला था। गोस्वामीजी ने 'मानस' के उत्तरकाण्ड कलिवर्णन में इन सब विषमताओं का विस्तार से वर्णन किया है । इससे स्पष्ट है कि उन्होंने इस परिस्थिति का गम्भीरता से अध्ययन करके समन्वय की नीति अपनाकर सर्वत्र व्याप्त विषमता के उन्मूलन द्वारा चतुर्दिक् सुख-शान्ति के प्रसार का यथासाध्य प्रयत्न किया ।
धार्मिक समन्वय
गोस्वामीजी ने सबसे पहले हिन्दू-समाज के आन्तरिक विघटन को दूर करके उसे सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता का अनुभव किया। फलतः उन्होंने शिव और विष्णु को एक-दूसरे का भक्त बताकर शैव-वैष्णव विवाद को उत्तर भारत से उन्मूलित कर दिया। इसी प्रकार शाक्तों और वैष्णवों के मध्य स्थित कटुता को भी भगवती पार्वती के गुणगान एवं स्तुति द्वारा मिटाने का सफल प्रयास किया। सीताजी श्रीरघुनाथजी को पति रूप में पाने के लिए भगवती पार्वती की ही स्तुति करती हैं।
इसी प्रकार उन्होंने विभिन्न वैष्णव सम्प्रदायों (रामावत और पुष्टिमार्ग आदि), विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों (अद्वैतवाद और द्वैतवाद आदि), ज्ञान और भक्ति तथा सगुण और निर्गुण में भी समन्वय स्थापित करके पारस्परिक विद्वेष के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ी। ज्ञान और भक्ति के सम्बन्ध में वे लिखते हैं-
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव-संभव खेदा ।।
इसी प्रकार वे निर्गुण-सगुण में अभेद स्थापित करते हुए कहते हैं-
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥
[अर्थात् जो निराकार है वह भक्त के प्रेम से वशीभूत हो साकार रूप धारण कर लेता है ।]
सामाजिक समन्वय
तुलसीदास के समय में जाति-पाँति और छुआछूत का भाव बहुत प्रबल था । गोस्वामीजी यद्यपि वर्णाश्रम-व्यवस्था के समर्थक थे, पर रामभक्ति में उन्होंने ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं माना। उन्होंने अपने-अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करने वालों को ही आदर का पात्र ठहराया है। उनके राम अस्पृश्य समझे जाने वाले निषादराज गुह का आलिंगन कर उसे भाई मानते हैं तथा वानर, भालू, शबरी को, कोल-किरात-भील आदि जंगली जातियों को एवं राक्षस कुल में उत्पन्न विभीषण को प्रेमपूर्वक अपनाते हैं। सरयू में सभी चारों वर्णों के लोग एक साथ मिलकर राजघाट पर स्नान करते हैं।
राजघाट सब विधि सुंदर वर। मज्जहि तहाँ वरन चारौ नर ।
इस प्रकार गोस्वामीजी ने पूर्णतया उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए सामाजिक समन्वय का सफल प्रयास किया।
राजनीतिक समन्वय
गोस्वामीजी ने राजा और प्रजा के कर्त्तव्यों का स्पष्ट उल्लेख करके राजा को प्रजा का सेवक बताया है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुःखारी । सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।।
राजा को मुख के समान व्यवहार करना चाहिए, जो लगता तो ऐसा है कि मानो सारा खाना स्वयं खा जाता हो, पर वह एक कण भी अपने पास न रख उसे चबाकर एवं सुपाच्य बनाकर सारे शरीर को सौंप देता है। इसी प्रकार राजा भी प्रजा से कर के रूप में जो कुछ ले वह सब प्रजाहित में ही लगा दे, व्यक्तिगत भोग-विलास में व्यय न करे।
प्रजा को भी चाहिए कि धर्मशील, कर्त्तव्यपरायण एवं प्रजापालक राजा को ईश्वर का अंश समझकर उचित समादर दे तथा उसकी आज्ञा का पालन करे । गोस्वामीजी ने अपने आदर्श राज्य की कल्पना रामराज्य के रूप में प्रस्तुत की।
पारिवारिक समन्वय
गोस्वामीजी ने जितने विविध पारिवारिक सम्बन्धों का चित्रण 'रामचरितमानस' में किया है, वैसा किसी अन्य कवि की रचना में नहीं मिलता। उन्होंने राम के परिवार में इन सम्बन्धों के आदर्श रूप का विधान करके हर एक के कर्तव्य और अधिकारों का सम्यक् निदर्शन किया है। यदि सभी लोग अपनी-अपनी मर्यादा में चलें तो परिवार में सर्वत्र सुख-शान्ति छा जायेगी, पर यदि मर्यादा का अतिक्रमण किया जाये, जैसा कि कैकेयी ने किया तो परिणाम घोर कष्टकर ही होगा। गोस्वामीजी ने रावण के परिवार को इसका उल्टा दिखाया है। वहाँ रावण अपनी मनमानी करता है और अन्त में सम्पूर्ण परिवार, समाज एवं राज्य के लिए विनाश को आमन्त्रित करता है ।
साहित्यिक समन्वय
अन्य क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने के साथ-साथ गोस्वामीजी ने भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी इस नीति को अपनाया। उन्होंने 'मानस' की रचना यदि अवधी में की तो कृष्णकाव्य के लिए उपयुक्त ब्रज भाषा को अपनाया। साथ ही. 'मानस' और 'विनय-पत्रिका" के स्तोत्रों में संस्कृतगर्भित हिन्दी का प्रयोग करके संस्कृत और हिन्दी में भी समन्वय स्थापित किया। इसी प्रकार अपनी रचनाओं में वर्णिक और मात्रिक छन्दों का प्रयोग करके छन्द सम्बन्धी समन्वय, लम्बे-लम्बे समासयुक्त पदावली वाली शैली के साथ सरल एवं सुबोध शैली को अपनाकर शैलीगत समन्वय एवं अपने समय में प्रचलित रचना पद्धतियों (दोहा-चौपाई-पद्धति, पद-पद्धति, कवित्त-सवैया-छप्पय-पद्धति, बरवै-पद्धति तथा लोकगीत-पद्धति) में ग्रन्थ लिखकर विभिन्न रचना-पद्धतियों में समन्वय स्थापित किया ।
निष्कर्ष
वस्तुतः गोस्वामीजी का समय काव्य समन्वय की एक विराट् चेष्टा है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करे। बुद्धदेव समन्वयकारी थे। 'गीता' में समन्वय की चेष्टा मिलती है और तुलसीदास भी समन्वयकारी हैं।यही कारण है कि डॉ० ग्रियर्सन ने गोस्वामीजी को बुद्धदेव के बाद उत्तर भारत का सबसे बड़ा लोकनायक माना है।
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