21वीं सदी के सपने सपने प्रगति की प्रेरणा प्रदान करते हैं. साथ ही वे विकास का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं. जो स्वप्न नहीं देखता है वह कैसे कह सकता है कि
21वीं सदी के सपने
सपने प्रगति की प्रेरणा प्रदान करते हैं. साथ ही वे विकास का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं. जो स्वप्न नहीं देखता है वह कैसे कह सकता है कि वह निर्माण की दिशा में कुछ करना चाहता है. सपने हकीकत से अलग नहीं होते. हमारी आकांक्षाएं इच्छाएं एवं हमारे भय-विभ्रम भी अक्सर हमारे सपनों में तब्दील हो जाया करते हैं. सपने हमारे गतिशील होने, अभीष्ट की चाह की ओर अग्रसर होने का आईना भी हैं. पर हमें पता है कि 21वीं सदी के हमारे सपने अनायास ही साकार नहीं हो जाएंगे, क्योंकि महज तिथियों के बदल जाने से स्थितियाँ नहीं बदल जातीं.
चूँकि 20वीं सदी हमारे लिए काफी गम लेकिन केवल थोड़ी खुशी की सदी रही है, अतः 21वीं सदी की अगवानी हम कई सम्भावनाओं, आशंकाओं और प्रश्नों से कर रहे हैं ये प्रश्न हमारे जीवन के विविध पहलुओं-विचार, राजनीति, अर्थशास्त्र, पर्यावरण, सूचना-प्रौद्योगिकी, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति, हमारी मिट्टी आदि से जुड़े हैं. इन बिन्दुओं से लगकर ही हमारा स्वप्न आता है.
आज हमारे देश में चहुँदिश आतंक अवसाद और निराशा का आलम है. भूमण्डली- करण और उदारीकरण के चलते आम लोगों के लिए नौकरी व रोजगार की भयानक कमी हो रही फलतः जनस्फोट के शिकार इस देश में बेकाम-बेरोजगार लोगों की फौज बेतहाशा बढ़ रही है. आतंकवाद और उग्रवाद का खूनी पंजा दिनों-दिन पसरता जा रहा है और अपनी गिरफ्त में समूचे समाज को ले रहा है. भूखी-नंगी-बेपढ़ जनता की अनवरत बढ़ती भीड़ सभ्यता और मानवता के मुँह पर तमाचा है. दलितों वंचितों, स्त्रियों को अभी भी उनके प्रायः मानवोचित अधिकार नहीं मिल पाए हैं. एड्स, कैंसर, हेपेटाइटिस-बी जैसी जान लेवा व्याधियों पर विजय का प्रश्न अब भी बरकरार है. जाति, वर्ण और मजहब की संकीर्ण दीवारों को भी अभी हम नहीं पाट पाए हैं तथा सीमित संसाधनों वाली पृथ्वी के दोहन में हम सर्वाधिक विवेकशील कहलाने वाले प्राणी होकर भी नादानी दिखलाने से बाज नहीं आ रहे हैं. ऐसे विपरीत समय में सपनों का महत्व काफी बढ़ जाता है.
हम आतंक संकट और तनाव के असाधरण समय में जी रहे हैं. साम्प्रतिक समय के आत्मघाती सम्मोहन और संकीर्ण दायरे से निकलकर 21वीं सदी को हमें अपने सपनों पर खरा उतारना होगा. ऐसा इसलिए कि पिछली सदी के अन्तिम दशक में बहुत-कुछ इतना तेज बदला है और इस नई सदी में भी वह इतनी तेजी से बढ़ रही है कि उस गति को दिशा देने की त्वरित जरूरत आ पड़ी है. ऐसा नहीं हो तो यह हमें अवांछित दिशाओं में ले जाएगा. वर्तमान स्थितियाँ बराबर ऐसे ही संकेन्द्रण की ओर बढ़ रही हैं और यह खतरा निरंतर गहरा रहा है कि कहीं दुनिया की अधिकांश आम आबादी लगातार उत्पीडन और उत्पीड़ित मृत्यु का शिकार न हो जाए. अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य न हो जाए और सिर्फ कुछ 'धवल' भद्रजन अपने सफेद बालों को कृत्रिम कालापन दिए, नकली दिल और नकली दिमाग लिए इस धरती पर चहल कदमी न करने लगें. राम-राज्य में ये अभिशाप स्वयमेव समाप्त हो जाएंगे ।
हम चाहेंगे इस सदी में कि जो जीवन हम जी चुके हैं, उससे कहीं बेहतर जीवन के अवसर अपनी आने वाली पीढ़ियों को दे सकें, जबकि साम्प्रतिक दुनिया का जो बुरा हाल है, उसे देखते हुए अपने दिल-दिमाग मे स्वप्नों को संजोए रखना भी कठिन प्रतीत होता है. फिर भी यदि हम चाहते हैं कि मानव जाति परमाणविक संहार से विनिष्ट न हो, या अभी के प्रगतिरोधी वातावरण में मानवता पीछे न धकेल दी जाए, जिसका मुकाबला कभी हम्मूराबी, कन्फ्यूशियस, कोपरनिकस, बुद्ध, होमर, जरथ्रुष्ट, ईसा जैसे स्वप्नजीवी मानवता सेवक मसीही इंसानों को करना पड़ा था, तो हमें इन सपनों को बरकरार रखना ही पड़ेगा.
आज इस नई सहस्राब्दी के आरम्भ पर भी दुनिया की अधिसंख्य जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने को विवश हो रही है. आज भी विश्व की कुल 600 करोड़ आबादी में से 20 करोड़ लोग शरणार्थी-जीवन जीने को अभिशप्त हैं, अपराध, खासकर, हिंसक व अमानवीय अपराधों की संख्या चिन्व्य-भयावह गति से बढती जा रही है युगांडा, जाम्बिया, जिम्बाब्वे सहित अनेक अफ्रीकी-एशियाई, साटिनी अमरीकी देशों में पूर्व की तुलना में मानव जीवनावधि प्रत्याशा के विपरीत कम हो गई है. इस स्थिति को सपनों में दखल देने से बाहर करना ही होगा ।
धनी देशों में आय का संकेन्द्रण है. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट बताती है कि 1998 में विश्व के मात्र 200 धनी व्यक्तियों की सम्पत्ति विश्व के 41% व्यक्तियों की समेकित आय से भी अधिक थी. इस बराबरी के हक के समय में भी धन का यह बंदर बाँट आधुनिक सभ्यता के मुँह पर करारा तमाचा सदृश है. ऐसी अस्वस्थ स्थिति के रहते हमारे सपने सच कैसे साबित होंगे? इस सदी में तो सपने सोएं होंगे और स्पष्टतः एकसमान भी, जोकि इस भेद को पाटे बिना नहीं हो सकता.
हमें विश्व स्तर पर रूस के समाजवादी प्रयोग, पश्चिमी यूरोप के फेबियन समाजवादी प्रयोग और एशियाई संदर्भ में माओ के किसान केन्द्रित कम्यूनिटेरियन साम्यवाद के आर्थिक प्रयोग और भारत के स्तर पर नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था और न्याय सम्मत विकास के समाजवादी कार्यक्रम के निर्मम वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर सबक सीखने होंगे और उन्हें 21वीं सदी में एक नए समाजवादी भविष्य की खोज के लिए नए आर्थिक दर्शन और आर्थिक प्रयोग का प्रेरणा स्रोत बनना होगा.
नेहरू ने कहा था कि मानव जाति का जितना नुकसान धार्मिक मतान्धता (रिलीजन डाग्मा) ने नहीं किया था उससे कहीं अधिक नुकसान आधुनिक संदर्भ में आर्थिक मतान्धता से होने की सम्भावना है. विडम्बना है कि उनकी यह सही दृष्टि भारत में ही कार्यान्वित नहीं हो पाई है. समाजवादी कार्यक्रम में बदलती परिस्थितियों और जरूरतों के अनुकूल जरूरी बदलाव नहीं किए गए, परन्तु यह हुआ कि समाजवाद ही पूरी तरह से भारत से अपदस्थ हो गया और उदारवादी पूँजीवाद राष्ट्र पर हावी हो गया. आज जरूरत पडी है कि हम नेहरू के समाजवाद विषयक मूल दृष्टि पर पुनः विचार करें ।
अपने सपनों को फलीभूत करने के लिए हमें पर्यावरण संरक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान देना होगा. हमें अपनी कूपमंडुक मानसिकता त्यागकर 'वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श व विचार को अपनाना होगा ताकि जमीनी न्याय व जमीनी स्वराज पाया जा सके. तभी स्वस्थ मूल्य, संस्थाएं व नीतियाँ विकसित हो सकेंगी.
जिस उत्पादन और उपभोग की दूषित संस्कृति ने हमें स्वच्छ जल और हवा भी पाना मुहाल कर दिया है. उससे छुटकारा पाकर हम प्राकृतिक पानी और हवा को हम फिर से पाना चाहेंगे. इन्हें व्यक्तिगत सम्पत्ति बनने से रोकना होगा और इनका अनियंत्रित उपभोग किया जाना भी हमें छोड़ना होगा...
भारत, जोकि जैव विविधता और सांस्कृतिक वैविधता का आंगन है, हमारे सपनों के हिसाब से तकनीकी, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक-हर क्षेत्र में एकतानी संस्कृति, से ऊबर पाने में सक्षम हो सकेगा. हम उसमें अपनी सभी विविधाओं-आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, पर्यावरणीय के सिरा जगह निकाल पाएंगे.
हमारे शिल्पियों व कलाकारों को दुनिया के बेहतरीन धागों से अपना भाग्य बुनने से रोकने के लिए कोई 'नाइक' 'रिषॉक-सी' परदेशी पूँजी कम्पनियाँ अस्तित्व में नहीं रहेंगी, यह भी हमारा सपना होगा.
21वीं सदी को अपने सपनों का भारत बनाने के लिए 'अन्न स्वराज' लाना होगा. इस आहार लोकतंत्र' में अभी की तरह कोई भूख से नहीं बिलबिलाएंगा, भूखा नहीं मरेगा, जबकि गोदाम अन्न से अटा पड़ा हो. इसमें सरकार जनता से उनके आहार-अधिकार छीनकर अन्न का निर्यात नहीं कर सकेगी और न ही बेशक कोई ऐसा आयात हो सकेगा, जो हमारे कृषकों का जीना हराम कर दे, आत्महत्या को बाध्य कर दे.
इस सदी में हम व्यावसायिक अमानवीय मानस वाले आधुनिक चिकित्साशास्त्र के पाप का घड़ा भरकर फूट जाते देखना चाहेंगे, जो मरीज को आदमी न मानकर एक 'आइटम' मात्र मानने लगा है. और 'जीवन दाता' के पद से च्युत हो गया है.
हम चाहेंगे कि वैकल्पिक पारम्परिक चिकित्सा पद्धति-होमियोपैथी, आयुर्वेद, ध्यान चिकित्सा, जैसे-प्राकृतिक नैदानिक उपायों की तरफ हम लौट सकें. तकनीकी वैज्ञानिक उपलब्धियों का केवल सर्जनात्मक उपयोग हो, सभ्यता-मानवता नाशक उपक्रमों-लड़ाई- झगड़ों में मानव अहितकारी प्रयोजनों में इनका उपयोग कदापि न हो.
स्त्रियाँ, दलित, बालक अधिकार-वंचितों को उनका इस नए युग में मानवोचित हक मिले. हम अक्सर ऋग्वैदिक काल में विद्यमान नारी स्वतंत्रता की बात कर नारी की सम्पूर्ण विवेकसम्मत स्वतंत्रता के बारे में ख्याली योजनाएं बनाते रहे हैं. इसे हम अमलीजामा पहनाएं, सपनों से यथार्थ की दुनिया में लाएं, तो बेहतर. सभी बच्चों को पोषणयुक्त वाता- वरण, शारीरिक व मानसिक सुस्वास्थ्य मिले, उनके खुशियों से भरे घर हों, पढ़ने- खेलने के सुअवसर हों और किसी को बचपन खा जाने वाली चाकरी-बालश्रम न करना पड़े. दलितों को उनकी जन्म आधारित वर्जनाओं, उपेक्षाओं से मुक्ति मिले और वे सामान्यजनों की तरह समाज में हर रचनात्मक भूमिका निभा सकें, आत्मसम्मान के साथ जी सकें.
हमने मानव-सभ्यता के हजारों सालों में एक-से-एक धर्मों/मजहबों को परखा और उनके दंश झेले. जाति-वर्ण-नस्ल के मानव सृजित भेद ने भी मानवता को बाँटे रखा. अब इस सदी में हम एकमात्र धर्म-मानव धर्म की प्रतिष्ठा कर सकें, तो अच्छा.
हम इस नई बेला में उस विश्व समाज में जीना चाहेंगे जहाँ केवल प्रेम ही प्रेम हो. घृणा-द्वेष लेशमात्र भी न फटके जहाँ इस दुनिया को रहने लायक बनाने के लिए हर आदमी का भरसक योगदान हो. सौहार्द और निर्भयता की संस्कृति सदैव राज करे जहाँ दुनिया पर.
विश्व कवि टैगोर के शब्दों में अपने नई सदी के सपनों का समाहार करूँ, तो कहूँगा जहाँ मन हो निर्भय और हो भाल गर्वोन्नत ज्ञान भी हो खुला सबके लिए जहाँ दुनिया बँटी न हो टुकड़ों में ओछी घर की दीवारों से उस स्वर्गिक स्वाधीनता की ओर ये मेरे प्रभु, मेरे देश के जन-मन को मोड़.
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