आरक्षण और सामाजिक उत्थान समकालीन भारत में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के बावजूद निष्पक्ष एवं व्यावहारिक रूप में सामाजिक उत्थान करना चिन्तन
आरक्षण और सामाजिक उत्थान
समकालीन भारत में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के बावजूद निष्पक्ष एवं व्यावहारिक रूप में सामाजिक उत्थान करना चिन्तनशील बुद्धिजीवियों के समक्ष एक चुनौती है. स्मरणीय है कि 'सामाजिक उत्थान' एक समतावादी विचार है, जिसे प्राप्त करना मनुष्य का मूलभूत अधिकार है, और वह एक अर्जित प्रक्रिया भी है, परन्तु भारतीय परिवेश में इस अर्जित प्रक्रिया को आरक्षण प्रदत्त प्रक्रिया बनाने का 'भगीरथ प्रयास' हमारे राजनेताओं द्वारा प्रारम्भ से ही किया जाता रहा है ।
आरक्षण क्या है?
भारतीय संविधान की भूमिका में कहा गया है कि उसका निर्माण सबकी स्वतंत्रता, सबकी समानता व पारस्परिक भ्रातृत्व की मान्यता के आधार पर हुआ है. उसमें केवल संविधान निर्माण के समय से ही सबके लिए अवसर की समानता की प्रत्याभूति नहीं की गई, वरन् प्राचीनकाल से चली आ रही सामाजिक असमानता को भी दूर करने के प्रयत्न का समावेश किया गया है. भारत द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जब नवीन संविधान का निर्माण किया गया, उस समय समाज की कुछ जातियों की स्थिति इतनी पिछड़ी हुई थी कि सबके साथ अवसर की समानता दिए जाने ही से वे सबके समान स्तर पर नहीं आ सकती थीं. अतः उन्हें राष्ट्रीय स्तर तक लाने के लिए विवेकपूर्ण संरक्षण, सहायता तथा निश्चयात्मक कार्ययोजना की आवश्यकता महसूस की गई. इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 341 तथा 342 में प्रावधान किया गया. अनुच्छेद 15 (4), 16(4) तथा 46 के अनुसार समाज के पिछड़े तथा कमजोर वर्गों को विशेष सहूलियत देने की व्यवस्था की गई. अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा आंग्ल भारतीयों के लिए विशेष रूप से 10 वर्षों के लिए संविधान के अनुच्छेद 331-334 द्वारा लोक सभा व राज्यों की विधान सभाओं में स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था का उपबंध किया गया जो आज तक जारी है. बाद में सन् 1951 ई. में भारतीय सरकार द्वारा प्रथम संविधान संशोधन द्वारा सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए भी विशेष कानून बनाने का प्रस्ताव पारित कराया गया. अन्य पिछड़े वर्गों के लिए यह प्रावधान अनुच्छेद 340 में किया गया. वस्तुतः सदियों की असमानतावादी, परम्परागत एवं दोषपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अव्यवस्थाओं के शिकार व दबे-कुचले लोगों के कल्याण के लिए भारतीय संविधान में की गई इन विशेष व्यवस्थाओं को आरक्षण की संज्ञा दी जाती है ।
सामाजिक उत्थान क्या है ?
सामाजिक उत्थान एक क्रान्तिकारी विचार है. सैद्धांतिक रूप से 'सामाजिक उत्थान' का अर्थ शोषित व्यक्तियों के जीवन की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को दूर करने के एक माध्यम के रूप में लगाया जाता है. भारत में सामाजिक उत्थान का अर्थ संकीर्ण और विस्तृत दोनों अर्थों में लगाया जाता है. वास्तव में देखा जाए तो सामाजिक उत्थान के व्यापक अर्थ में वंचित वर्ग वह है जो आर्थिक, राजनीतिक व शैक्षणिक सुविधाओं से वंचित है, परन्तु जहाँ सामाजिक उत्थान का संकीर्ण अर्थ लगाया जाता है, वहाँ 'वर्ग' शब्द 'जाति' के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा वंचित वर्ग के अन्तर्गत वंचित जातियों को रखा जाता है. यह एक पक्षपातपूर्ण एवं हास्यास्पद धारणा है ।
सामाजिक उत्थान में आरक्षण का योगदान : कहाँ तक ?
अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि 26 जनवरी, 1950 अर्थात् जब से हमारे देश का संविधान लागू हुआ तब से दस वर्ष के लिए 'वंचित वर्ग' के सामाजिक उत्थान हेतु आरक्षण की व्यवस्था की गई जो आज लगभग 50 वर्षों के बाद भी लागू है. इसका सामाजिक उत्थान में कितना योगदान है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वंचित वर्ग जब 'वंचित जाति' के रूप में परिवर्तित हो चुका है तो अब यह वर्ग न शोषित है और न ही पिछड़ा. आरक्षण की नीति के परिणामस्वरूप देश की सरकारी नौकरियों में विशेषकर प्रशासनिक सेवाओं में इनका योगदान निरन्तर बढ़ता जा रहा है. यह इनके सामाजिक उत्थान का प्रतीक है. इस प्रकार इस संरक्षणात्मक नीति के फलस्वरूप इस वर्ग ने अपना पर्याप्त आर्थिक व सामाजिक उत्थान किया है. पुनः जहाँ 'सामाजिक उत्थान' के अन्तर्गत 'राजनीतिक उत्थान' की बात है तो इस क्षेत्र में भी इस तथाकथित 'वंचित वर्ग' ने अपना सिक्का जमा लिया है. आज समस्त देश की राजनीति में यह वंचित वर्ग छाया हुआ है. अब जब यह वंचित वर्ग शासक वर्ग बन चुका है तो इनका सामाजिक उत्थान हो जाना स्वाभाविक ही है, किन्तु आरक्षण से सच्चे अर्थों में 'वंचित वर्ग' का विकास हो रहा है अथवा वे समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष आ रहे हैं यह सोचना भ्रांतिपूर्ण है. यह एक मूल प्रश्न है कि पिछड़ेपन की जातिगत पहचान कैसे संभव है? विशेष रूप से उस देश में जहाँ सरकारी आँकड़ों के अनुसार ही लगभग 40% लोग गरीबी रेखा (Poverty line) से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं ।
यह सत्य है कि संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धांतों की जोरदार चर्चा की गई है, किन्तु संविधान निर्माताओं की आशा यही थी कि संविधान में प्रदान किए गए कतिपय अधिकारों का प्रयोग वंचित वर्ग ही कर सकता है. संवैधानिक वकील यह मानते हैं कि मौलिक अधिकार का पारित किया जाना ही सामाजिक उत्थान का प्रतीक है. वर्तमान राजनीतिज्ञ आरक्षण लागू करने को ही सामाजिक उत्थान का प्रतीक समझते हैं तो आखिर आरक्षण से भारत की गरीब, भूखी, नंगी और उत्पीड़ित जनता की रोटी के लिए कोई फायदा क्यों नहीं हो रहा है? आज भी वंचित वर्ग प्रसन्नतापूर्वक बेगार क्यों करता है? श्रेष्ठ जनों के सम्मुख आसन ग्रहण करने में और सुरुचिपूर्ण वस्त्र धारण करने में संकोच क्यों अनुभव करता है? व्यवस्था में परिवर्तन आया है, परन्तु मात्र नगरों में अथवा उस सम्पन्न वर्ग के लिए जो वंचित था, किन्तु अब वह अथाह धन-सम्पदा का स्वामी है. सामाजिक उत्थान की प्राप्ति के लिए लागू की गई योजनाओं में लगभग 90% लाभार्थी इसी वर्ग के आते हैं. सामाजिक न्याय के प्राप्तार्थ वंचित वर्ग की हीनता की मानसिकता का अन्त नहीं हुआ है और न उन्हें 'अहं ब्रह्मास्मि' सूक्ति का अनुभव है, क्योंकि वंचित वर्ग कभी भी सीमित अधिकारों से ऊपर नहीं उठ सका है.
वंचित वर्ग को आरक्षण मात्र देने से कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती है. इस वर्ग के मानसिक एवं शैक्षणिक विकास के सतत् व सार्थक प्रयास ही उन्हें संकीर्ण सामाजिक क्रियाकलापों से मुक्त रख सकेंगे. सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है कि उन लोगों को ही आरक्षण प्रदान किया जाए जो इसके वास्तविक हकदार हैं, किन्तु वोट की राजनीति द्वारा लागू किया गया आरक्षण मात्र तुष्टिकरण की नीति साबित हो रहा है और वर्ग-विभेद को जन्म दे रहा है. वास्तविक पिछड़े गरीबों का भला तब तक नहीं होगा, जब तक कि जातिगत आरक्षण में कोई आर्थिक सीमा न लगाई जाए, क्योंकि बिना आर्थिक सीमा के जातिगत आरक्षण केवल आरक्षित जातियों में एक सुविधाभोगी वर्ग तैयार कर रहा है जो पिछड़े गरीबों को मिलने वाली सारी सुविधाओं को हजम कर है एवं पिछड़े गरीबों को, गरीबी की अपनी नियति मानकर केवल इस बात से संतोष करना पड़ रहा है कि उनकी जाति का अमुक व्यक्ति सत्ता के शिखर पर बैठा है. यदि वास्तव में किसी वर्ग का उत्थान करना है तो उसका श्रेष्ठतम उपाय है कि उसे योग्यता प्रदान करने की व्यवस्था की जाए, उसमें योग्यता के सृजन की क्षमता उत्पन्न की जाए, यदि योग्यता के सृजन की क्षमता जाग्रत होगी तो वह समाज निश्चय ही प्रगति करेगा. दलित वर्ग तथा पिछड़े वर्ग को स्थायी रूप से अरक्षा एवं अपमान के मध्य जीवित रहने वाले बताकर हमारे कर्णधार समाज को विभाजित ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि इन वर्गों को परस्पर अविश्वासी भी बना रहे हैं. वास्तव में तथाकथित वंचित वर्ग को सामाजिक उत्थान हेतु मानसिक विकास की भी अतीव आवश्यकता है, जिसे आरक्षण द्वारा परिष्कृत नहीं किया जा सकता है ।
निष्कर्ष
आरक्षण की नीति में योग्यता एवं प्रतिभा की उपेक्षा हुई है तथा कार्य कुशलता का ह्रास हुआ है. जातीय भावनाएं बलवती हुई हैं तथा सामाजिक सौमनस्य पर आघात पहुँचा है. राजनीतिक शक्ति प्रदान करना मात्र सामाजिक उत्थान नहीं है, इसके लिए नींव मजबूत करनी होगी. आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य समाज के वास्तविक पिछड़े लोगों को अन्य लोगों के समकक्ष लाना है, जिससे समाज में समरसता पैदा हो सके, किन्तु भारतीय आरक्षण व्यवस्था काफी हद तक सम्पत्तिवान वर्ग द्वारा नियंत्रित होती है. फलस्वरूप विपरीत कथनों और प्रतिकूल कानूनों एवं प्रशासनिक उपायों के बावजूद भारतीय आरक्षण व्यवस्था दुर्भाग्यवश सम्पत्ति सम्बन्धों में ऐसे परिवर्तन लाने में असफल रही है जो भारतीय समाज में वंचित वर्गों को लाभ पहुँचाए.
आज भी भारत का पिछड़ा वर्ग विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाला सुविधाविहीन वर्ग अन्यायपूर्ण जीवन जीने को अभिशप्त है संवैधानिक समता के नियमों की ज्ञान ज्योति आरक्षण द्वारा नगरों और कस्बों में पहुँची अवश्य है, परन्तु निराश्रित वंचित वर्ग के जीवन-निर्वाह में आंशिक योगदान ही प्रदान कर सकी है. कदाचित यह सहभाजित न्यायालयों की चहारदीवारी में ही उलझकर रह गई है. तभी तो विधियों के क्रियान्वयन के उपरान्त भी वंचित वर्ग को दी जाने वाली सुविधाएं समताधिकारी न होकर दया, सहानुभूति व करुणा का बीज बन जाती हैं. इसी कारण दशकों से आरक्षण का लाभ उठाने वाला गाँव का गरीब हरिजन जाति का 'कलुआ' आज भी कलुआ ही है न कि 'कालेराम'. वस्तुतः सहृदयता से वंचित वर्ग का सामाजिक उत्थान होना चाहिए सिर्फ आरक्षण की बैसाखियों द्वारा नहीं. वर्तमान समय की यही माँग है. समाजवाद का आदर्श है आवश्यक सुविधाओं द्वारा समान विकास के लिए अधिक अवसर प्रदान करना ।
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