आदर्शवाद का अर्थ,स्वरूप,भेद,विशेषताएँ और महत्व

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आदर्शवाद का अर्थ स्वरूप भेद विशेषताएँ महत्व आदर्शवाद एक दार्शनिक सिद्धांत है जो मानता है कि वास्तविकता या सत्य विचारों, अवधारणाओं या मानसिक संरचनाओं स

आदर्शवाद का अर्थ,स्वरूप,भेद,विशेषताएँ और महत्व

 
दर्शवाद एक दार्शनिक सिद्धांत है जो मानता है कि वास्तविकता या सत्य विचारों, अवधारणाओं या मानसिक संरचनाओं से उत्पन्न होता है, न कि भौतिक वस्तुओं से। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जो कुछ भी हम देखते हैं, महसूस करते हैं या अनुभव करते हैं, वह सब हमारे मन की एक रचना है।

काव्य के विभिन्न प्रयोजनों में आदर्शवाद को भी एक प्रयोजन कहा जा सकता है, क्योंकि काव्य का उद्देश्य यथार्थ के स्थान पर आदर्श की स्थापना भी है। आदर्शवाद 'जैसा हो रहा है' के स्थान पर 'जैसा चाहिए' का पक्षपाती है। वह व्यक्ति, समाज आदि को एक ऐसी उदात्त भावभूमि पर ले जाने का प्रयास करता है, जिससे सामाजिक सामंजस्य-मुख्यवस्था पूर्णरूपेण बने रहने के साथ-साथ प्रगति की दिशा में अग्रसर हो, सामाजिक समरसता स्थापित हो। प्राचीन काल से लेकर आज तक के अधिकांश काव्य इस बात के प्रमाण हैं। सामान्यतया आदर्शवाद किसी सीमित सीमा या मर्यादा में आबद्ध न होकर जीवन के विविध क्षेत्रों एवं वृत्तियों से सम्बन्ध रखने वाली मान्यताओं, विचारों को प्रभावित करता है। आदर्शवादी विचारधारा से धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, काव्यशास्त्र आदि कोई भी अछूता नहीं है। आदर्शवाद मानव-समाज का सर्वतोन्मुखी उन्नयन चाहता है। वह समाज की कुण्ठित, अश्लील, पतनोन्मुखी आदि विचारधाराओं का विरोध कर नये जीवन मूल्यों की प्रतिस्थापना करता है।

कला का महत्त्व इसलिए नहीं है, वह शिक्षा देती है, न इसलिए कि वह सृजनात्मक है, न इसलिए कि हर व्यक्ति उसका रसास्वादन करता है, और न इसलिए कि उसका सम्बन्ध सौन्दर्य से है। कला इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसका सम्बन्ध सुव्यवस्था से है और वह इस अव्यवस्थित संसार के बीच आंतरिक सामञ्जस्य-युक्त छोटे-छोटे संसारों का निर्माण करती है। -ई. एम. फ़ार्स्टर.
 

आदर्शवाद का स्वरूप

आदर्शवाद शब्द अँगरेजी के 'आइडियलिज्म' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। आइडियलिज्म आइडिया शब्द से निर्मित है। आइडिया का अर्थ विचार होता है। इसलिए आदर्शवाद को विचारवाद भी कहा जाता है, पर विचारवाद के स्थान पर आदर्शवाद शब्द ही सर्वजनग्राह्य एवं सर्वप्रचलित है। काव्य या साहित्य में आदर्शवाद शब्द का ही प्रचार-प्रसार है। साहित्य में आदर्शवाद अधुनातन नहीं बल्कि प्राचीन विचारधारा है। काव्य या साहित्य के प्रादुर्भाव के साथ ही इस विचारधारा का भी अभ्युदय हुआ है। प्राचीनकाल से ही साहित्य में आदर्शवाद प्रतिष्ठित होता आया है। भारतीय एवं पाश्चात्य सभी साहित्यकारों ने इसके महत्त्व को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष स्वीकार किया है। विचारकों ने आदर्शवाद के संदर्भ में कहा है- "वह धारणा, जिससे प्रेरित होकर साहित्यकार ऐसे चरित्र अथवा ऐसी परिस्थितियों का चित्रण करता है जो मानव समाज के लिए अनुकरणीय हैं, साहित्य में आदर्शवाद कहलाती है।" वास्तव में साहित्य में नैतिकता का समावेश आवश्यक है। नैतिकता मानव को उदात्त भावभूमि पर ले जाती है। यही नैतिकता ही आदर्शवाद की जननी है। इस प्रकार नैतिकता या सुधार-भावना का आदर्श से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।
 
आदर्शवाद का अर्थ,स्वरूप,भेद,विशेषताएँ और महत्व
साहित्य में निहित आदर्शवाद से सहृदय सामाजिक को जीवन को आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिलती है। एक आलोचक ने कहा है- “आदर्शवादी वह है, जो उच्च नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और सौन्दर्यात्मक प्रतिमानों, आदर्शों को स्वीकार कर अपने तथा समाज के जीवन को उनके अनुसार ढालने का प्रयत्न करे। वह व्यक्ति भी आदर्शवादी माना जाता है, जो किसी समाज, सम्प्रदाय, वर्ग विशेष की प्रस्तुत दशा से असन्तुष्ट होकर उसके लिए किसी नये आदर्श की कल्पना करता है। पृथ्वी पर स्वर्ग, ईश्वर का राज्य, सतयुग, रामराज्य, मनुष्य की तथाकथित आदिम पूर्णावस्था, शोषण-रहित समाज आदि को स्थापित करना चाहता है।"
 
आदर्शवादी कवि या साहित्यकार प्रायः स्वप्नद्रष्टा होता है। वह 'जैसा हो रहा है' के स्थान पर 'जैसा होना चाहिए' का पक्ष लेकर उसे साकार करने का प्रयास करता है। वह संसार में सर्वत्र ईश्वरीय न्याय एवं सत्य की विजय देखना चाहता है। वह आशावादी होता है। जब वह देखता है कि इस संसार में सभी जगह दुःख-ही-दुःख है, तो उसकी आत्मा चीत्कार उठती है। वह दुःख के स्थान पर सुख की कल्पना करता है तथा भविष्य के लिए सुन्दर एवं उज्ज्वल दृश्य प्रस्तुतकर सत्य, न्याय, सुख-शान्ति आदि को प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है। एक विद्वान् ने लिखा है - "साहित्य में आदर्शवाद से आशय एक ऐसी विचारधारा से है, जो मुनष्य को अपने जीवन में किन्हीं उदात्त तत्त्वों के माध्यम से प्राप्त उपलब्धियों की ओर चलने की प्रेरणा देती है।"
 
आदर्शवाद में बाह्य सुखों की अपेक्षा आत्मिक सुख को ही सर्वोपरि समझा एवं माना जाता है, क्योंकि बाह्य सुखों से मनुष्य को कभी संतुष्टि नहीं मिलती। फलतः आन्तरिक सुख-शान्ति की खोज आवश्यक हो जाती है, जो सत्य, न्याय तथा विश्वास के सन्मार्ग पर चलकर ही प्राप्त होती है। यथार्थवाद के अन्तर्गत जहाँ संसार में अन्याय, कुत्सित भावना, हिंसा आदि सर्वत्र अपनी विजय-पताका लिये खड़े रहते हैं; परिणामतः व्यक्ति, समाज एवं देश का निरन्तर पतन होता रहता है, वहाँ आदर्शवाद यह बताता है कि निरन्तर संघर्षों से जूझते रहने के कारण अन्ततः सत्य एवं न्याय की विजय होती है और पतनोन्मुख व्यक्ति या समाज स्वयं उत्थानोन्मुख होकर अन्यों के लिए आदर्श बन जाता है। इसीलिए आदर्शवादी व्यक्ति सांसारिक सुखों से पूर्णतया उदासीन हो आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के प्रयास में लगा रहता है।
 
आदर्शवादी विचारकों का मानना है कि यह जगत् पूर्णतया मिथ्या है। इसके संसर्ग से मानव निरन्तर मिथ्या में भ्रमित हो पतनोन्मुखी बना रहता है। सत्य तो एक परब्रह्म है। वही शाश्वत और अमर है। उसके सान्निध्य से मानव स्वयं शाश्वत एवं अमर हो सकता है। वहाँ भ्रम नहीं है। वहाँ आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है, जो चिरन्तन है। आदर्शवादी साहित्यकार इसी चिरन्तन, आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। फलतः वह साहित्य में सदैव सत्य एवं न्याय की प्रतिष्ठा कर अन्त में दुष्प्रवृत्तियों पर सत्प्रवृत्तियों की, अन्याय पर न्याय की, अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य आदि की विजय दिखलाता है। वह समाज व देश में एक ऐसे आदर्श को प्रतिस्थापित करना चाहता है, जिससे व्यक्ति, समाज व देश सदैव प्रगति की दिशा में अग्रसर रहें।
 

आदर्शवाद के भेद

डॉ. नगेन्द्र ने आदर्शवाद के दो भेद स्वीकार किये हैं- 
  1. कल्पना विलासी आदर्शवाद, 
  2. व्यावहारिक आदर्शवाद । 
इसमें प्रथम कल्पना-विलासी आदर्शवाद के माध्यम से कवि या लेखक यथार्थ दर्शन से पीड़ित हो, काल्पनिक उज्ज्वल भविष्य की स्थापना कर मानसिक शान्ति का अनुभव करता है।
 
वह अपनी कल्पना में ही आदर्शवाद के चित्र बनाता रहता है तथा उन्हीं कल्पनाजन्य आदर्शात्मक रमणीय चित्रों एवं दृश्यों में अपने को उलझाकर आनन्द का अनुभव करता है। ऐसे कवि या लेखक मात्र कल्पना-प्रिय होते हैं। उनके द्वारा स्थापित काल्पनिक आदर्शवाद व्यावहारिक जगत् में साकार नहीं हो पाता।
 
द्वितीय भेद व्यावहारिक आदर्शवाद है। व्यावहारिक आदर्शवाद काल्पनिक जगत् से दूर वास्तविक अवलोकन करता है और संयम, विवेक एवं महत्त्वाकांक्षा पर अधिक बल देकर उसे साकार करने का प्रयास करता है। उसके द्वारा स्थापित आदर्श जनसामान्य की व्यावहारिक समस्याओं का समाधान कर उसे उदात्त भावभूमि की ओर उन्मुख कर प्रगति पथ को प्रशस्त करते हैं। यह आदर्श नैतिकता पर आधारित होता है तथा मानव को आदर्शात्मक प्रेरणा देकर व्यक्ति, समाज, देश एवं विश्व को प्रगति की ओर उन्मुख करता है।
 

आदर्शवाद की प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ

  • आदर्शवाद मानव को उसके अपने जीवन में उदात्त तत्त्वों के माध्यम से प्राप्त उपलब्धियों की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा देता है।
  • आदर्शवाद में बाह्य सुखों की अपेक्षा आन्तरिक सुखों को ही सर्वोपरि समझा जाता है ।
  • आदर्शवाद उन संकीर्ण भावनाओं एवं दृष्टिकोणों का विरोधी भी है, जो मानव को पतनोन्मुख करते हैं।
  • आदर्शवाद 'जैसा हो रहा है', के स्थान पर 'जैसा होना चाहिए' विचार का पक्षधर है। 
  • आदर्शवाद जीवन-चित्रण में वास्तविकता के स्थान पर उदात्तता के समावेश का समर्थन करता है और साहित्य में वर्णित प्रत्येक विषय के उदात्त स्वरूप को आदर्श मानकर उसी के चित्रण को आवश्यक बतलाता है।
  • आदर्शवाद में सृजनशीलता पायी जाती है। वह जीवन में पतन की अपेक्षा उत्थान को बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है। 
  • आदर्शवाद किसी एक सीमित सीमा में आबद्ध न होकर जीवन के विविध क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाली मान्यताओं का निर्धारण करता है।
  • आदर्शवाद ऐसे शाश्वत जीवन-मूल्यों की विवेचना करता है, जो नैतिकता पर आधारित होते हैं और मानव को प्रगति पथ पर अग्रसर करते हैं।
  • आदर्शवादी रचनाओं में कला का उच्चतर रूप प्रतिष्ठित होता है।
  • आदर्शवाद दुष्प्रवृत्तियों के स्थान पर सद्वृत्तियों की प्रतिस्थापना करता है तथा दुराचारी के स्थान पर सदाचारी की विजय दिखलाता है। 
  • आदर्शवाद जीवन की यथार्थता से विमुख न होकर, उसकी यथार्थता को दृष्टिगत रखते हुए, उसके उदात्तीकरण की सम्भावनाओं पर विचार करता है।
 

आदर्शवाद का महत्व

आदर्शवादी विचारधारा का प्रभाव प्राचीन काल से ही साहित्य पर रहा है। साहित्य शब्द जिस अर्थ में है, जिसमें हित की भावना निहित है, वही साहित्य है। उस अर्थ का आदर्शवाद विशेष रूप से बोध कराता है। आदर्शवाद के अभाव में साहित्य महत्त्वहीन प्रतीत होता है। दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र कोई भी इससे अछूता नहीं है। आदर्शवाद ही एक ऐसी उदात्त विचारधारा है, जो प्रत्येक दशा में मानव-जीवन के कल्याण और सृजनशीलता का निर्देशन एवं समर्थन करता है। इस तरह भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य जगत् में आदर्शवाद अपने विविध रूपों में महत्वपूर्ण है। अन्य विचारधाराओं की अपेक्षा यह अत्यन्त प्राचीन भी है, जिसका प्रमाण प्राचीन कालीन साहित्य से ही देखा जा सकता है। 

पाश्चात्य विचारकों ने आलोचना के आदर्शात्मक रूप को स्वीकार किया था। लोंजाइनस का औदात्यवाद इसी आदर्शवाद का प्रतिरूप है। आदर्शवाद जीवन को अपेक्षाकृत उच्चस्तर पर कल्पित कर संभावित जीवन के उज्ज्वल भविष्य का स्वरूप-निर्देशन करता है। इस तरह आदर्शवाद का सम्बन्ध मानव-जीवन के सर्वतोन्मुखी विकास से है तथा एक शाश्वत विचारधारा के रूप में आज भी सर्वत्र विद्यमान है। डॉ. राजकिशोर सिंह ने इस संदर्भ में लिखा है कि, "वास्तव में आदर्शवाद की शाश्वतता का प्रमुख कारण उसके मूल में निरन्तर कार्यशील रहने वाली वह प्रक्रिया है, जो न केवल मानव मात्र को एक उच्चतर एवं महत्तर आदर्श की खोज और उपलब्धि की दिशा में प्रेरणा-सी देती रहती है, अपितु स्वयं सूत्रनिर्देशिका होकर इन दोनों के बीच माध्यम का कार्य करती है। 

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि आदर्शवाद एक ऐसी विचारधारा है जो प्राचीनकाल से लेकर आज तक समान रूप से काव्य या साहित्य के महत्त्व की साधन बनी हुई है। वैचारिक रूप से आदर्शवाद का पर्याप्त महत्त्व भी है, किन्तु कुछ आलोचकों ने इस विचारधारा पर यह आपेक्ष भी किया है कि आदर्शवाद जीवन की यथार्थ भावभूमि से हटकर पूर्णतया कल्पना की भावभूमि पर विचरण करता है। यह व्यावहारिक जगत् की नहीं बल्कि कल्पना-लोक की सर्जना है, अतः यह मात्र सैद्धान्तिक है, इसका व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। आलोचकों का यह विचार किसी सीमा तक सत्य भी हो सकता, किन्तु समष्टि रूप से विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि आदर्शवाद में यथार्थ की पूर्ण उपेक्षा नहीं, बल्कि यथार्थ में जो त्रुटियाँ एवं पतनोन्मुखता आदि हैं, आदर्शवादी साहित्यकार अपनी कल्पना से उनका निदान प्रस्तुत कर आदर्श की कल्पना करता है। इस प्रकार आदर्शवाद यथार्थ का उदात्तीकरण करता है। वह जीवन की वास्तविकताओं को अनदेखा नहीं करता, बल्कि उन पर दृष्टिपात करते हुए उन्हें उदात्त भावभूमि पर ले जाने का प्रयास करता है। 

अन्त में सुश्री महादेवी वर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है- "आदर्श हमारी दृष्टि की मलिन संकीर्णता धोकर, उसे बिखरे यथार्थ के भीतर छिपे हुए सामंजस्य को देखने की शक्ति देता है, हमारी व्यष्टि में सीमित चेतना को मुक्ति के पंख देकर समष्टि तक पहुँचने की दिशा देता है और हमारी खण्डित भावना को अखण्ड जागृति देकर उसे जीवन की विविधता नाप लेने का वरदान देता है। जब आदर्श जल-भरे बादल की तरह आकाश का असीम विस्तार लेकर पृथ्वी के असंख्य रंगों, अनन्त रूपों में नहीं उतर सकता, तब शरद के सूने मेघ-खण्ड के समान शून्य का धब्बा बना रहना ही उसका लक्ष्य हो जाता है।'

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