स्कन्दगुप्त नाटक में देवसेना का चरित्र चित्रण | जयशंकर प्रसाद

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स्कन्दगुप्त नाटक में देवसेना का चरित्र चित्रण जयशंकर प्रसाद देवसेना के हृदय में नारियोचित समस्त सद्गुण विद्यमान हैं। दया, माया, ममता, करुणा, मुदिता

स्कन्दगुप्त नाटक में देवसेना का चरित्र चित्रण | जयशंकर प्रसाद


देवसेना स्कन्दगुप्त नाटक की प्रमुख नारी पात्र है। जयशंकर प्रसाद ने एक आदर्श भारतीय नारी की समस्त विशेषताओं को समेट करके देवसेना के रूप में प्रस्तुत किया है। देवसेना के हृदय में नारियोचित समस्त सद्गुण विद्यमान हैं। दया, माया, ममता, करुणा, मुदिता प्रभृति शील सद्गुण उसके भीतर समाहित हैं। उदारता एवं न्याय की भावना भी उसमें कूट-कूटकर भरी है। उसकी चरित्रगत विशेषताओं का मूल्यांकन निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर करना समीचीन होगा-
 

गम्भीर एवं कारुणिक

देवसेना के चरित्र में गम्भीरता सदैव विद्यमान रहती है। गम्भीरता उसके स्वभाव में निहित है न कि प्रासंगिक । करुणा की तो वह साक्षात् प्रतिमा ही है। अस्तु, उसमें सहानुभूति का होना स्वाभाविक है। उसके जीवन का अन्त वेदनामय होता है। इस प्रकार, यह देखा जाता है कि देवसेना का चरित्र कोमलता एवं भावुकता से परिपूर्ण है। अपने प्रथम संवाद में ही वह अपनी इन चारित्रिक विशेषताओं को उजागर कर देती है। देवसेना अपनी इसी कोमलता, कल्पनाजीविता तथा भावुकता के कारण अन्ततः यथार्थ के थपेड़े खाती-खाती टूट जाती है और उसके जीवन में दुःख के एक धब्बे के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचता, किन्तु उसके स्वभाव में गम्भीरता एवं कारुणिकता तब भी विद्यमान रहती है।
 

संगीत प्रेमी 

स्कन्दगुप्त नाटक में देवसेना का चरित्र चित्रण | जयशंकर प्रसाद
देवसेना का संगीत से अनन्य अनुराग है। वह जीवन की विषम परिस्थितियों के मध्य में भी संगीत की स्वर लहरियों में अपने को भुलाकर अपनी वेदना को भुला देती है। संगीत उसके जीवन में एक प्रकार की जीवनी शक्ति पैदा कर देती है, जो एक औषधि के रूप में कार्य करती है। यद्यपि बन्धु वर्मा उसके गले को एक रोग की तरह स्वीकारता है। उसका संगीत से इतना अधिक लगाव है कि जब मालव दुर्ग पर हूणों एवं शकों की सेना पर आक्रमण हो रहा है, ऐसे समय में भी देवसेना अपनी भाभी से कहती है- “एक बार गा लूँ हमारा प्रियगान, फिर गाने को मिले या नहीं।"
 
उसकी संगीत-प्रियता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है? स्वयं वह संगीत को इस प्रकार परिभाषित करती है- “सर्वात्मा के स्वर में, आत्मसमर्पण के प्रत्येक ताल में अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का निस्सृत हो जाना- एक मनोहर संगीत है।”
 
इस प्रकार हम देखते हैं कि देवसेना एक संगीत-प्रेमी नारी है। संगीत उसके जीवन का अभिन्न भाग है। संगीत के बिना उसे एक पल भी चैन नहीं मिलता है। वह जीवन के गूढ़ से गूढ़तम क्षणों में भी संगीत की उपस्थिति स्वीकारती है।
 

पवित्र प्रेम की व्यंजना

देवसेना के चरित्र में पवित्र प्रेम की व्यंजना दिखायी पड़ती है। उसके प्रेम में सर्वत्र पवित्रता - ही पवित्रता है, विलासिता की तनिक भी गन्ध उसमें नहीं आती है। उसका प्रेम शुद्ध एवं सात्विक है, वह आदर्श प्रेयसी है, जो स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है। देवसेना का प्रेम स्थूल एवं मांसल नहीं हैं। वह यह कभी नहीं सोचती है कि स्कन्दगुप्त उसमें लिप्त होकर अपना कर्त्तव्य भूल जाय। वह स्पष्ट घोषणा करती है-“आपको अकर्मण्य बनाने के लिए देवसेना जीवित न रहेगी, सम्राट् ! क्षमा करें।" उसके प्रेम में सर्वथा सात्विकता का पुट दिखायी पड़ता है। वह अपनी इच्छा से स्कन्दगुप्त के प्रति समर्पित हुई थी। स्कन्दगुप्त को इस प्रकार से उसने अपने हृदय में स्थापित कर लिया था कि वह कहती है- 'मेरे इस जीवन के देवता और उस जीवन के प्राप्य!' वह अपने को हमेशा संयमित रखती है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उसके प्रेम में दुर्बलता है, वह सोचती है कि इस जन्म में नहीं मिल सकी तो क्या, प्रेमास्पद अगले जीवन में अवश्य मिलेगा।

दार्शनिक

देवसेना एक गम्भीर दार्शनिक प्रवृत्ति की नारी है। वह एक दार्शनिक की तरह से जीवन का जगत् के प्रति विवेचन-विश्लेषण करती है। देवसेना की दार्शनिक प्रवृत्ति पर प्रसाद जी की दार्शनिकता का स्पष्ट प्रभाव है। चूँकि प्रसाद जी स्वयं एक कुशल दार्शनिक हैं, अतः उन्होंने देवसेना के चरित्र में दार्शनिकता का सन्निवेश किया है। प्रसाद जी ने दर्शन के व्यावहारिक पहलू को अपने नाटकीय पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। अतः देवसेना भी प्रसाद की दार्शनिक अभिव्यक्ति का परिणाम है।
 

आदर्श भारतीय नारी

देवसेना एक आदर्श भारतीय नारी है। उसके चरित्र में एक आदर्श नारी की समस्त विशेषताएँ समाहित हैं। उसके भाई बन्धुवर्मा ने स्कन्दगुप्त को मालव का राज्य दिया। अतः वह उसका वरण करने से झिझकती है। वह स्कन्दगुप्त से कहती है- “मैं दासी हूँ। मालव ने जो देश के लिए उत्सर्ग किया है- उसका प्रतिदान लेकर मृत आत्मा का अपमान न करूँगी।”
 
इस प्रकार, एक आदर्श भारतीय नारी के समस्त गुण देवसेना के चरित्र में विद्यमान हैं। प्रसाद जी की निम्नलिखित पंक्तियाँ देवसेना के चरित्र के सम्बन्ध में सटीक प्रतीत होती हैं- 

'नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में। 
पीयूषं-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।।' 

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि प्रसाद ने एक आदर्श नारी पात्र की कल्पना को देवसेना के रूप में स्वीकार किया है। उसका चरित्र परम पावन एवं उज्ज्वल है। वह नायक की प्रेयसी है। यद्यपि नायक स्कन्दगुप्त से उसका वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता, किन्तु वह अनायास ही नायिका पद की निर्विवाद अधिकारिणी है। वह कष्ट को ही हृदय की कसौटी मानती है। उसमें विनय, प्रेम, सहानुभूति आदि गुण भरे हुए हैं। देवसेना काल्पनिक पात्र होते हुए भी वास्तविक प्रतीत होती है। इसमें नाटककार का कौशल प्रमुख है। उसमें जातीय गौरव की भावना, विश्व-कल्याण की कामना, सतीत्व और आत्मसम्मान को सबसे बड़ी सम्पदा समझने की भावना विद्यमान है। अतः देवसेना एक महत्त्वपूर्ण एवं आदर्श नारी पात्र है।

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