दोपहर का भोजन कहानी की समीक्षा अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन एक मार्मिक चित्रण है, जो निम्न मध्यवर्ग के जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को बड़ी गहराई
दोपहर का भोजन कहानी की समीक्षा
अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन एक मार्मिक चित्रण है, जो निम्न मध्यवर्ग के जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को बड़ी गहराई से उजागर करती है। कहानी की नायिका सिद्धेश्वरी के माध्यम से लेखक ने एक मां के संघर्ष, उसके प्यार और बलिदान को बड़ी संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है।
दोपहर का भोजन, अमरकान्त जी की प्रमुख कहानियों में से एक है। कहानी- कला में प्राय: छ: तत्त्वों की चर्चा की जाती है और इन्हीं के आधार पर कहानी की समीक्षा होनी चाहिए। ये तत्त्व हैं-
- कथावस्तु (कथानक)
- पात्रों का चरित्र-चित्रण
- संवाद (कथोपकथन)
- देशकाल अथवा वातावरण
- भाषा-शैली
- उद्देश्य ।
कथावस्तु (कथानक)
कथानक प्रत्येक कहानी का आधार स्तम्भ होता है, क्योंकि उसी पर कहानी का सारा ढाँचा खड़ा होता है । घटनाओं के समूह को ही कथानक कहते हैं। कहानी का कथानक रोचक, सम्भाव्य, संक्षिप्त तथा जिज्ञासावर्द्धक होना चाहिए। इस दृष्टि से 'दोपहर का भोजन' कहानी का कथानक पूर्णतः सफल कहा जा सकता है। यह एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से जुड़ा हुआ यथार्थवादी कथानक है। मुंशी चन्द्रिका प्रसाद किराया नियन्त्रण विभाग में एक क्लर्क हैं। नौकरी से उनकी छँटनी हो गयी। फलस्वरूप मुंशी जी का परिवार आर्थिक संकट से ग्रस्त हो गया है। दो जून का भोजन पाना भी कठिन हो गया है। मुंशी जी के तीन बेटे हैं। बड़ा लड़का रामचन्द्र एक स्थानीय समाचार-पत्र में प्रूफ रीडिंग का काम सीख रहा है। अन्य दोनों लड़के मोहन और प्रमोद घर पर ही रहते हैं। सिद्धेश्वरी ने दोपहर के भोजन में कुल सात रोटियाँ बनायी हैं। वह घर के सदस्यों की प्रतीक्षा करती है। किसी को भी भर पेट भोजन नहीं मिलता, लेकिन फिर भी कोई शिकायत नहीं करता। अन्त में एक सूखी जली रोटी बच जाती है, तभी खटोले पर सोए हुए छोटे लड़के प्रमोद की ओर सिद्धेश्वरी का ध्यान जाता है। अत: वह आधी रोटी उसके लिए रख देती है और आधी स्वयं खा लेती है।
प्रस्तुत कहानी की कथावस्तु अत्यन्त संक्षिप्त और स्वाभाविक है। यथार्थवादी कहानी होने के कारण यह पाठक को संवेदनशील और भावुक बनाने में समर्थ है। अतः कथावस्तु की दृष्टि से इस कहानी को सफल कहा जा सकता है।
पात्रों का चरित्र चित्रण
प्रगतिवादी कहानीकार होते हुए भी अमरकांत मानव मनोविज्ञान के पारखी थे। 'दोपहर का भोजन' पात्र चरित्र चित्रण की दृष्टि से सफल कहानी कही जा सकती है। इस कहानी में पात्रों की संख्या पाँच है। सिद्धेश्वरी कहानी की केन्द्रीय पात्र है। उसे हम कहानी की नायिका भी कह सकते हैं। वह सभी पात्रों के सम्पर्क में बनी रहती है। सिद्धेश्वरी घर की आर्थिक स्थिति से पूर्णत: परिचित है। वह भली प्रकार से जानती है कि घर के लोगों को भर पेट भोजन प्राप्त नहीं हो रहा। फिर भी वह सच-झूठ बोलकर और मीठी-मीठी बातें बोलकर अपने पति व पुत्रों का मन बहलाने का प्रयास करती है। वह स्वयं भूखी रहकर अपने पति और पुत्रों के पेट को भरना चाहती है। इसी प्रकार से कहानीकार ने मुंशी चन्द्रिका प्रसाद तथा रामचन्द्र आदि पात्रों का भी सफल चरित्र चित्रण किया है।
संवाद योजना
संवाद-योजना कहानी का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व कहा जा सकता है। कहानीकार संवादों द्वारा पात्रों के मनोभावों को प्रस्तुत करता है और उनकी चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करता है। कहानी के संवाद सरल, सहज, स्वाभाविक, संक्षिप्त तथा रोचक होने चाहिए। प्रस्तुत कहानी के संवादों में ये सभी गुण देखे जा सकते हैं। पूरी कहानी के संवाद संक्षिप्त, सरल और स्वाभाविक होने के साथ-साथ पात्रानुकूल और प्रसंगानुकूल भी हैं। संवाद के कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
सिद्धेश्वरी ने जिद्द की- "अच्छा, आधी ही सही।"
रामचन्द्र बिगड़ उठा- “अधिक खिलाकर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या ? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद्द। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता ?"
सिद्धेश्वरी जहाँ की तहाँ बैठी रह गयी। रामचन्द्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा- "पानी लाओ !”
देशकाल अथवा वातावरण
देशकाल तथा वातावरण कहानी का चौथा प्रमुख तत्त्व है। प्रस्तुत कहानी आधुनिक युग की निम्न मध्यवर्गीय परिवार की करुण दशा का वर्णन करती है। पुनः लेखक ने मुंशी चन्द्रिका प्रसाद के अभावग्रस्त और गरीबी से युक्त घर का जो चित्रण किया है। वह बड़ा ही प्रभावशाली बन पड़ा है। अनेक स्थलों पर लेखक ने चित्रात्मक शब्दावली द्वारा घर के वातावरण को सजीव बना दिया है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
"लगभग आधे घण्टे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।"
इस प्रकार प्रस्तुत कहानी का देशकाल एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की अभावग्रस्तता एवं विपन्नता के सर्वथा अनुकूल है। कहानी पढ़ते-पढ़ते यह वातावरण पाठक के समक्ष उभरकर उपस्थित हो जाता है।
भाषा शैली
अमरकांत ने अपनी कहानियों में प्राय: सहज, सरल एवं व्यावहारिक हिन्दी भाषा का ही प्रयोग किया है। इसे हम जनभाषा भी कह सकते हैं। इनकी भाषा न केवल पात्रानुकूल है, बल्कि प्रसंगानुकूल भी है। उन्होंने तत्सम शब्दों के साथ-साथ तद्भव, देशज तथा उर्दू के शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया है। वे प्रायः उर्दू के लोकप्रिय शब्दों का ही प्रयोग करते हैं और क्लिष्टता से बचने का प्रयास करते हैं। छठा उस्ताद होना, जान देना, तार-तार होना तथा तबीयत ऊब जाना आदि मुहावरों का उन्होंने सहज एवं सरल प्रयोग किया है।
अमरकांत की भाषा में लाक्षणिकता एवं व्यंजनात्मकता का प्रयोग भी देखा जा सकता है। जहाँ तक शैली का प्रश्न है उन्होंने आत्म-कथात्मक, नाटकीय, वर्णनात्मक तथा प्रतीकात्मव. शैलियों का सफल प्रयोग किया है।
उद्देश्य
अमरकांत जी मुंशी प्रेमचन्द के समान एक सोद्देश्य कहानीकार हैं। यथार्थवादी कहानीकार होने के कारण उनकी अधिकांश कहानियों में समाज के निम्न एवं अभावग्रस्त वर्ग की व्यथा का यथार्थ चित्रण हुआ है। इस दृष्टि से 'दोपहर का भोजन', 'जिंदगी और जोंक', 'मौत का नगर' आदि उनकी उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। प्रस्तुत कहानी के द्वारा भी वे बेरोजगारी के शिकार बने हुए समाज के निम्न मध्यवर्गीय परिवार की अभावग्रस्तता का यथार्थ वर्णन करने में सक्षम रहे हैं। लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि कार्यालयों में छँटनी होने के पश्चात् कैसे घर की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। चन्द्रिका प्रसाद का सारा परिवार भूख और गरीबी के कारण चुपचाप भूख का सामना कर रहा है। एक स्थल पर लेखक कहता भी है- "सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें कई पैबन्द लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था।"
निष्कर्षत: कहानी के तत्त्वों के आधार पर दोपहर का भोजन एक सफल कहानी कही जा सकती है।
COMMENTS