गोदान उपन्यास की भाषा शैली की समीक्षा मुंशी प्रेमचंद गोदान हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है। इस उपन्यास में प्रयुक्त भाषा शैली इतनी सरल सहज और
गोदान उपन्यास की भाषा शैली की समीक्षा | मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 'गोदान' हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है। इस उपन्यास में प्रयुक्त भाषा शैली इतनी सरल, सहज और प्रभावशाली है कि यह आम पाठक से लेकर साहित्यकारों तक सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है।भाषा हृदय के मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम होती है। इसी के द्वारा कोई साहित्यकार अपने भावों को अपने पाठकों तक पहुँचाता है। साहित्यकार के भाव पाठकों तक स्पष्ट एवं शक्तिशाली और प्रभावकारी रूप में पहुँचें इसके लिये यह नितान्त आवश्यक है कि उस साहित्यकार का अपनी भाषा पर अधिकार हो। इसके साथ ही भावों को व्यक्त करने का ढंग भी प्रत्येक साहित्यकार का अपना अलग ही होता है। इस ढंग को ही शैली की संज्ञा प्रदान की जाती है। उपन्यास में जहाँ उपन्यासकार की भाषा पर उसके अधिकार की समीक्षा की जाती है वहीं उसकी शैली की सार्थकता भी आंकी जाती है कि वह कहाँ तक उसके भावों को सुन्दर ढंग से व्यक्त करने में समर्थ होती है। भाषा और शैली कथन को प्रस्तुत करने के सार्थक उपकरण माने जाते हैं ।
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्दजी ने हिन्दी कथा साहित्य को जहाँ नवीन विचार प्रदान किये वहाँ भाषा और शैली की दृष्टि से भी उनका योगदान कम महत्वपूर्ण नहीं है। जिस समय साहित्यिक क्षेत्र में प्रेमचन्द जी का पर्दापण हुआ था उस समय लेखक मुख्यतः दो प्रकार की शैलियों का आश्रय लिये हुये थे। एक वर्ग संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता से करता था। इसके विपरीत दूसरा वर्ग अरबी-फारसी के तत्सम तथा अप्रचलित शब्दों का प्रयोग करता था। उस समय भाषा के क्षेत्र में हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का काफी बड़ा झगड़ा चल रहा था। उस समय लेखकों की भाषा जनसाधारण की भाषा से बहुत दूर थी। प्रेमचन्द जी उपरोक्त दोनों प्रकार के लेखकों के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने एक ऐसी भाषा का चुनाव किया जो स्वाभाविक, सशक्त और सर्वथा विचारपूर्ण थी। उन्होंने भारतेन्दु युग की लुप्त होती जा रही भाषा शैली का एक प्रकार से पुनरुद्धार किया साथ ही उसे शक्ति एवं गम्भीरता भी प्रदान की। वह उपन्यास एवं कथा साहित्य के क्षेत्र में अपनी भाषा-शैली की सरलता और प्रभावपूर्णता के बल पर ही लोकप्रियता के ऊँचे शिखर पर आसीन हो सके थे।
उनके प्रादुर्भाव के समय प्राचीन संस्कृति के उपासकों के प्रयासों के कारण हिन्दी भाषा अपनी स्वाभाविकता और ग्राह्यता को खोती जा रही थी। यही कारण था कि भाषा सामान्य जनता से दूर हटती जा रही थी। उसमें परिष्कार और प्रवाह की आवश्यकता थी ताकि वह जनमत को अपने साथ लेते हुये आगे बढ़ती रहे। प्रेमचन्द जी ने इस ओर पूर्ण सजगता दिखाई और उपरोक्त त्रुटियों को दूर किया। उन्होंने जनता की ही भाषा को अपनाया और उनकी बात को उन्हीं की भाषा में उन तक पहुँचाया। इससे उन्हें जो जनता का स्नेह तथा सुहृदयता प्राप्त हुई वो आधुनिक हिन्दी साहित्य के युग में किसी अन्य को इतनी मात्रा में नहीं मिल सकी।
प्रेमचन्द जी ने साहित्यिक क्षेत्र में भाषा को अधिक महत्व दिया। उन्होंने साहित्य की व्याख्या करते हुये स्वयं लिखा भी है — "साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुन्दर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो।" उनके समकालीन प्रवर्गीय लेखक संस्कृत और फारसी का मोह अपने में लिये हुये थे और इस प्रकार वे भाषा भेद को और बढ़ावा दे रहे थे। भाषा जनता से दूर हटती जा रही थी। इस समय एक तीसरा वर्ग और भी था जो भाषा-संस्कृति आदि के क्षेत्र में पूर्णतः अंग्रेजी का भक्त था परन्तु साथ ही वह भारत की स्वतन्त्रता की आवाज भी बुलन्द कर रहा था। प्रेमचन्द जी इस वर्ग के घातक रूप को पहले ही जान गये थे इसीलिये उन्होंने लिखा था-"अंग्रेजी राजनीति का, व्यापार का, साम्राज्यवाद का, हमारे ऊपर जैसा आतंक है उससे कहीं ज्यादा अंग्रेजी भाषा का है। अंग्रेजी राजनीति से, व्यापार से, साम्राज्यवाद से आप बगावत करते हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा को आप गुलामी के ताँक की तरह गर्दन में डाले हुये हैं।”
प्रेमचन्द जी इस परतन्त्रता के ताँक को हटाकर उनके गले में जन-भाषा हिन्दी के मनोहारी हार को पहनाना चाहते थे। इसका कारण यही था कि उन्होंने अपने आप को अंग्रेजी भक्तों से अलग ही रखा था। अंग्रेजियत इन लोगों में इतनी गहरी पैंठ गई थी कि भारत के स्वतन्त्र होने पर भी वह उनकी मानसिकता से नहीं हट पा रही थी। ऐसे व्यक्तियों के कारण ही राष्ट्रभाषा हिन्दी होने पर भी हिन्दी को अनिश्चित काल तक निर्वासन का सा जीवन जीना पड़ रहा था। दक्षिण वासी एवं बंगाली लोग अब भी अंग्रेजी के गीत गा रहे हैं। प्रेमचन्द जी इनके भयंकर षड्यन्त्र को भली-भाँति जान गये थे। अतः उन्होंने खुलकर इनका खूब विरोध किया था। वास्तव में वह एक सच्चे युग दृष्टा कलाकार थे जिनकी पारखी दृष्टि से कुछ भी अछूता नहीं रह पाया था ।
उपरोक्त कथन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रेमचन्द जी ने हिन्दी और उर्दू का योग अकारण ही नहीं किया था। इस प्रयत्न में उनका मूल एवं महत् उद्देश्य निहित था और इसके लिये वे आजीवन प्रयत्नशील भी बने रहे। भाषा एकता का माध्यम भी मानी जाती है। इसी आधार को सम्मुख रखते हुये उन्होंने हिन्दी-उर्दू की मिश्रित शैली को चुना और देश की साम्प्रदायिक एकता की नींव डालने का शुभारम्भ किया । इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दी के क्षेत्र में एक स्वर से माँग बहुत दिनों तक की जाती रही कि 'प्रेमचन्द् हिन्दी' को राष्ट्रभाषा का स्वरूप दिया जाना चाहिये क्योंकि यही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसे जनता सरलता से समझती है और बोलती भी है। वास्तव में राष्ट्रीय जागरण के लिये इसकी नितान्त आवश्यकता भी है।
जब अन्य लोगों ने प्रेमचन्द जी का विरोध यह कहकर किया कि बोलचाल की भाषा और लिखित साहित्यिक भाषा में बहुत अन्तर होता है। अतः इस क्षेत्र में बोल-चाल की भाषा को अपनाने से साहित्य की हानि होगी तो प्रेमचन्द जी ने उसका बड़ा सुन्दर उत्तर उन लोगों को दिया। उन्होंने कहा - "यह जरूर सच है कि बोलने की भाषा और लिखने की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर अवश्य रहता है लेकिन लिखित भाषा सदैव बोलचाल की भाषा से मिलते-जुलते रहने की कोशिश किया करती है। लिखित भाषा की खूबी यही है कि बोलचाल की भाषा से मिले। इस आदर्श से वह जितनी दूर हो जाती है उतनी ही अस्वाभाविक हो जाती है।" प्रस्तुत उपन्यास 'गोदान' की भाषा-शैली बड़ी स्वाभाविक एवं सशक्त है। भाषा शैली पात्र एवं देश अनुसार ही चलती है। इसमें सर्वथा नवीनता दृष्टिगोचर होती है। इस उपन्यास का मुसलमान पात्र सरल उर्दू ही बोलता है।
'गोदान' की भाषा में न बोझिलता है और न क्लिष्टता वह तो भावानुरूप है। भावों के परिवर्तन के साथ-साथ भाषा शैली भी परिवर्तित होती जाती है जो उसे स्वाभाविक बना देती है। इस स्वाभाविकता का रूप कितना निखरा हुआ है जब होरी झुनियाँ का समाचार प्राप्त करता है तो वह अत्यन्त क्रोधित हो उठता है । देखिये उस समय की भाषा का प्रवाह - “मैं कुछ नहीं जानता, हाथ पकड़कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है फिर आज ही क्यों न खुल जाय। वह मेरे घर आई क्यों ? जाय जहाँ गोबर है।” परन्तु जब धनियाँ होरी को सारी वास्तविकता सहज भाव से समझा देती है और झुनियाँ को कुछ न कहने को कहती है तो होरी का रूप तुरन्त भोला भाला हो जाता है। घर पर वह झुनियाँ से कहता है-“डर मत बेटी, डर मत, तेरे हम हैं जैसी त भोला की बेटी है, वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते हैं किसी बात की चिन्ता मत कर। तू हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों से न देख सकेगा।" 'गोदान' इसी प्रकार से भाषा पात्रों के भावों के परिवर्तन के साथ-साथ अपने रूप में भी परिवर्तन लाकर वह स्वाभाविक हो गई है। ऐसा कहीं पर भी प्रतीत नहीं होता कि लेखक अपनी भाषा को कहीं थोप रहा है।
अपने उपन्यासों में प्रेमचन्द जी ने हिन्दी भाषा का परिनिष्ठित रूप अपनाया है। अशिक्षित पात्रों की भाषा में जहाँ हमें स्थानीय तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है वहीं प्रेमचन्द जी के शिक्षित पात्र शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करते मिलते हैं। भाषा में सूक्तियों का प्रयोग उसकी सुन्दरता को बढ़ा देता - "मालती ऊपर तितली और भीतर से मधुमक्खी है।" कहावतें तथा मुहावरे भाषा को व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं। प्रेमचन्द जी ने उपमाओं का बड़ा ही सफल प्रयोग अपनी भाषा में किया है। जहाँ कहीं पर उन्होंने पात्रों के अर्न्तद्वन्द्व का चित्रण किया है। वहीं भाषा को और भी विशेष सफलता मिली है। वातावरण की सृष्टि भी उन्होंने भाषा के माध्यम से ही सजीव बनाई है।
'गोदान' में भाषा मूलरूप से सरल और सुबोध रही है। इसके साथ ही चिन्तन पूर्ण स्थलों पर प्रेमचन्द जी ने गम्भीर बना दिया है। ऐसे स्थलों पर उनका भाव गाम्भीर्य देखते ही बनता है। देखिये एक उदाहरण - "वैवाहिक जीवन के प्रभाव में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपनी माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती हैं। फिर मध्यान्ह का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं और धरती काँपने लगती है। लालसा का सुनहला आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममयी संध्या आती है, शीतल और शान्स जब हम थके हुये पथिकों की भाँति दिन-भर यात्रा का वृतान्त सुनाते हैं और सुनते हैं, तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जनरव हम तक नहीं पहुँचता ।”
'गोदान' की भाषा सुगठित, कोमल, सरस एवं भाव प्रधान भाषा है। देखिये ऐसी भाषा का एक और रूप —“वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आयीं, जब वह अपने उन्मत्त उसांसों में, अपनी नशीली चितवनों से मानों अपने प्राण निकालकर उसके चरणों पर रख देता था। झुनियाँ किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे से घोंसले में एकान्त जीवन काट रही थी, वहाँ नर का मत्त आग्रह न था न वह उद्दीप्त लालसा, न शावकों की मीठी आवाजें, मगर बहेलिये का जाल और छल भी तो वहाँ न था।" इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचन्द जी की भाषा लोक व्यवहार की भाषा होते हुये भी साहित्यिक, सरस तथा बोधगम्य है। उसमें एक प्रवाह एवं कोमलता है। प्रसंगानुकूल उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है परन्तु इससे भाषा के स्तर को कोई आघात नहीं पहुँचता । साथ ही वह कथा सूत्र के अनुकूल ही बनी रहती है। एक उदाहरण दृष्टव्य है-“मैंने प्रतिज्ञा की है, किसी फिलासफर से शादी नहीं करूंगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबैण्ड साहब तो स्त्री को देखकर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिये उनके ऑफिस में चली जाती थी, तो आप ऐसे घबड़ा जाते, जैसे कोई शेर आ गया हो।'
'गोदान' भाषा-शैली की दृष्टि से प्रेमचन्द के अन्य उपन्यासों में अपना विशेष स्थान रखता है। इसमें एक नया रस, लचक और यौवन सा प्रवाह देखने को मिलता है। इसमें यह अधिक परिष्कृत, मधुर एवं साहित्यिक हो गई है। वह जन साधारण के जीवन से अपने शब्द चित्र बनाती सी प्रतीत होती है। प्रो. प्रकाशचन्द्र के शब्दों में प्रेमचन्द की भाषा- "गोदान" में भाषा परम रसवती अलंकार बोझिल कविता मई हो गई है। इसके सरल प्रवाह में कथानक और कथोपकथन सरल गति से बहे हैं।” शान्ति प्रिय द्विवेदी इस सन्दर्भ में कहते हैं- “प्रेमचन्द की भाषा में पूर्व संस्कार के कारण एक सामाजिक मर्यादा का ध्यान था, उससे उनके कृतित्व में एक गम्भीरता आई, आधुनिक युग के प्रति उसमें जो प्रेरणा थी, उससे उनकी कला में एक शक्ति आई और उर्दू की व्यंजकता के कारण रोचकता। इस प्रकार प्रेमचन्द अपने कलाकार के रूप में प्राचीनता और नवीनता के संगम थे।”
'गोदान' की उपरोक्त सभी विशिष्टताओं का अवलोकन करके प्रो. प्रकाशचन्द गुप्त ने प्रेमचन्द की महानता को सहज हृदय से स्वीकार करते हुये लिखा है—“गोदान में प्रेमचन्द ने उत्कृष्ट कलाकार के सभी गुण दर्शाये हैं। उनकी शैली प्रौढ़ है, पात्र सच्चे और सजीव हैं। ग्राम्य जीवन खूब समझते हैं। उनकी रचना गम्भीरता और सरलता है। 'काया कल्प' के बाद जो उनका पतन हुआ था, उसका प्रतिकार उन्होंने कर दिया। में अपने पुराने गौरवमय स्थान पर वे लौट आये। संक्षेप में 'गोदान' प्रेमचन्द की अचल कीर्ति का स्मारक है।"
इस प्रकार भाषा-शैली की दृष्टि से प्रस्तुत 'गोदान' उपन्यास प्रेमचन्द के अन्य उपन्यासों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। हिन्दी के पूर्व उपन्यासों में भी इसकी अपनी अलग ही एक पहचान है। भाषा पात्र एवं देशकाल के अनुरूप ही सर्वथा अपनी यात्रा करती है। इसमें यह अधिक समर्थ एवं स्वाभाविक बन पड़ी है।
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