जयशंकर प्रसाद की कहानी कला पर प्रकाश जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के एक प्रमुख स्तंभ हैं। उनकी कहानियों में भारतीय संस्कृति, इतिहास और मनोविज्ञान का ग
जयशंकर प्रसाद की कहानी कला पर प्रकाश
जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के एक प्रमुख स्तंभ हैं। उनकी कहानियों में भारतीय संस्कृति, इतिहास और मनोविज्ञान का गहरा सम्मिश्रण देखने को मिलता है।उनकी कहानियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी पहले थीं। उनकी कहानियों को पढ़कर हम भारतीय संस्कृति और मानवीय जीवन के विभिन्न पहलुओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
हिन्दी साहित्य के मौलिक कहानी-लेखकों में 'प्रसाद' अग्रणी हैं। उनकी पहली कहानी 'ग्राम' अगस्त 1910 ई. में 'इन्दु' में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् 'प्रसाद' की कहानियों का प्रथम संग्रह 'छाया' नाम से 1912 ई. में प्रकाशित हुआ। उनके कुल पाँच कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'छाया' नाम के अतिरिक्त शेष चार संग्रहों के नाम हैं-'प्रतिध्वनि', 'आकाश-दीप', आँधी' और 'इन्द्रजाल'। सभी पाँच संग्रहों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-
छाया
इसमें उनकी पाँच कहानियाँ संकलित थीं। दूसरे संस्करण में छः और कहानियाँ बढ़ा दी गयीं। इस तरह 'छाया' में कुल ग्यारह कहानियाँ हो गयीं। बाद की सभी कहानियाँ ऐतिहासिक हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय तक प्रसादजी की रुचि इतिहास के अध्ययन में हो गयी थी।
प्रतिध्वनि
इसमें कुल पन्द्रह कहानियाँ हैं। सब में लेखक का कवि रूप विशेष रूप से उभर कर सामने आया है। नियतिवादी दृष्टिकोण, दार्शनिकता का पुट, अतीत की भव्य कल्पनात्मक पृष्ठभूमि, भावपरकता तथा रसात्मकता इन कहानियों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। 'वस्तु' और 'चरित्र विकास' की ओर 'प्रसाद' ने अधिक ध्यान नहीं दिया है।
आकाशदीप
इसमें कुल उन्नीस कहानियाँ हैं, जिसमें 'आकाशदीप', 'ममता' और 'स्वर्ण के खण्डहर', ऐतिहासिक हैं। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते 'प्रसाद' की कहानी-कला पूर्ण विकसित रूप में सामने आती है। भाव-संघर्ष, काल्पनिक चित्रण एक प्रकार की मसृण तरलता, संवेदनशील वातावरण, नाटकीय-विधान तथा रहस्यमय खण्ड-चित्र इनकी प्रमुख विशेषताएँ हैं।
आँधी
इसमें कुल ग्यारह कहानियाँ हैं, जिनमें 'मधुआ', 'घीसू', 'बेड़ी', और 'नीरा' यथार्थवादी भूमि पर चित्रित की गयी हैं। जीवन में आने वाले छोटे-छोटे सामान्य पात्रों को नायकत्व प्रदान किया गया है। इन पात्रों का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण 'प्रसाद' ने किया है। 'मधुआ' तो प्रेमचन्दजी को बहुत ही पसन्द थी।
इन्द्रजाल
इसमें कुल चौदह कहानियाँ हैं। इन कहानियों में 'प्रसाद' का दृष्टिकोण बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक एवं यथार्थवादी होने लगा था। 'इन्द्रजाल', 'सलीम' तथा 'गुण्डा' इस दृष्टि से बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं।
उपर्युक्त सभी कहानियों को वस्तु और शिल्प की दृष्टि से निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- ऐतिहासिक, यथार्थवादी, मनोवैज्ञानिक, प्रतीकात्मक, प्रेममूलक, स्वच्छन्दतावादी, भावात्मक ।
ऐतिहासिक कहानियों में 'सिकन्दर की पराजय', 'चित्तौड़ का उद्धार', 'अशोक', 'जहाँआरा', 'चक्रवर्ती का स्तम्भ', आदि प्रमुख हैं। यथार्थवादी कहानियों में 'सलीम', 'कलावती की शिक्षा', 'इन्द्रजाल', 'गुण्डा', आदि सुन्दर बन पड़ी हैं। मनोवैज्ञानिक कहानियों में 'प्रतिमा',‘पाप की पराजय', 'परिवर्तन', 'सुनहला साँप', 'मधुआ', 'सन्देह' आदि प्रधान हैं। रोमाण्टिक या स्वच्छन्दतावादी कहानियों में 'रसिया बालम', 'मदन' मृणालिनी', ‘बनजारा’,‘आकाशदीप', 'चन्द्रा', 'पुरस्कार', आदि प्रधान हैं। भावात्मक कहानियों में रहस्यमयी भावना का प्रधान्य है। इस वर्ग में 'खण्डहर की लिपि', 'उस पार का योगी', 'हिमालय का पथिक', आदि प्रमुख हैं। प्रतीकात्मक कहानियों में 'समुद्रसन्तरण', 'प्रलय', 'कला', 'पत्थर की पुकार', 'वैरागी', 'ज्योतिष्मती' उल्लेखनीय हैं।
प्रसाद जी ने अधिकांश कहानियों में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। उनकी कुछ कहानियाँ, 'संलाप', आत्मकथा' तथा पत्र-शैली में भी कुछ लिखी गयी हैं। पत्र - शैली में उनकी एक ही कहानी 'देवदासी' लिखी गयी है। आत्मकथा के रूप में 'चित्र वाले पत्थर', 'आँधी तथा ग्रामगीत' कहानियाँ लिखी गयी हैं। संलाप-शैली का उदाहरण 'आकाशदीप' में देखा जा सकता है। कलात्मक-विकास की दृष्टि से 'प्रसाद' की 1929 ई. के पहले की कहानियाँ साधारण हैं। 1929 ई. के पश्चात् प्रौढ़ता आ गयी है। 'आँधी' और 'इन्द्रजाल' संग्रहों में 'प्रसाद' की कला प्रौढ़तम रूप से देखी जा सकती है।
प्रसाद मुख्यतः कवि थे। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण भावात्मक था। उनकी कहानियों में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। अनुभूति के क्षेत्र में अतिशय काल्पनिकता और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में तत्सम प्रधान प्रवाहपूर्ण काव्यात्मक भाषा उनकी कहानियों की विशेषता है।
'प्रसाद' की कहानियों के सारभूत सौन्दर्य का विवेचन करते हुए डॉ. जगन्नाथप्रसाद शर्मा ने कहा है-"उनमें कहानी 'कला' की वस्तु बन गयी है संवेदनशीलता के विचार से भी और रचनात्मक प्रक्रिया के आधार पर भी। जितने भी तत्त्व और अंग हैं कहानी के उन सबका पूर्ण परिष्कार प्रसाद में दिखायी पड़ता है। उन्होंने हृदय को झंकृत करने की चेष्टा अधिक की है। मस्तिष्क की उद्बुद्ध करने की ओर अधिक नहीं बढ़े और यही इनकी प्रकृति के सर्वथा अनुकूल भी था।"
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