श्रीहरि भगवान विष्णु जी की महिमा अपरंपार है। इस संपूर्ण जगत के पालनकर्ता श्रीहरि लक्ष्मीपति विष्णु जी विश्व के कण-कण में विद्यमान हैं। ब्रह्मा जी सृष्
लक्ष्मीनारायण योग
ऊँ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभ्यहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
श्रीहरि भगवान विष्णु जी की महिमा अपरंपार है। इस संपूर्ण जगत के पालनकर्ता श्रीहरि लक्ष्मीपति विष्णु जी विश्व के कण-कण में विद्यमान हैं। ब्रह्मा जी सृष्टि के रचयिता है और महादेव विनाश करते हैं। उत्पत्ति और विनाश के बीच जीवन का पालन और संतुलन श्रीहरि भगवान विष्णु ही करते हैं।
क्षितिज जल पावक गगन समीरा,
पंचरचित अति अधम शरीरा ।
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु यह पाँच सृष्टि के आधारभूत तत्व है, जिनमें से केवल जल को ही जीवन की संज्ञा दी जाती है क्योंकि जल से ही जीवन की उत्पत्ति और भरण-पोषण संभव होता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार समुद मंथन के समय दिव्य स्वरूपा भगवती लक्ष्मी प्रकट हुईं थी। लक्ष्मी जी का प्राकट्य जल से ही हुआ है इसलिए वे जीवन की देवी हैं। श्री हरि विष्णु जी क्षीरसागर अर्थात् जल में ही निवास करते हैं। भगवती लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु जी का वरण किया था। इस प्रकार अलौकिक दंपति के रूप में दोनों ही इस संसार का पालन करते हैं और संसार के समस्त प्राणियों में जीवन का संतुलन बनाए रखते हैं।
पत्रिका में केंद्र और त्रिकोण भाव बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यही कारण है कि पत्रिका के केंद्र भाव (अर्थात् पहला, चौथा, सातवां और दसवां भाव) विष्णु स्थान कहलाते हैं तथा त्रिकोण के भाव (अर्थात् पहला, पांचवा और नवम भाव) लक्ष्मी स्थान कहलाते हैं। लग्न का भाव केंद्र और त्रिकोण दोनों ही है, इसलिए वह विष्णु और लक्ष्मी दोनों का ही स्थान कहलाता है। किसी भी पत्रिका में केंद्र त्रिकोण के स्वामियों की युति राजयोग का निर्माण करती है।
ज्योतिष शास्त्र में बुध ग्रह बुद्धि, वाणी, व्यापार इत्यादि का कारक होता है। बुद्धि का कारक ग्रह होने के कारण इसका स्वभाव लचीला होता है क्योंकि कठोरता और बुद्धि का समन्वय नहीं हो सकता। बुद्धिमान व्यक्ति ही अपनी वाणी का उचित उपयोग करना जानता है। इसके अतिरिक्त बुध एक नपुंसक ग्रह है इसलिए वह जिसके साथ भी युति करता है, वह उसी के गुण अपना लेता है। बुध के स्वामी विष्णु भगवान माने जाते हैं।
शुक्र भौतिकतावादी चेतनाओं को जाग्रत करने वाला एक स्त्रीकारक ग्रह है। यह जीवन की सारी सुख सुविधाओं और चकाचौंध का कारक है। इसके अलावा शुक्र सप्तम भाव का भी कारक माना जाता है। सप्तम भाव भोग-सुख का भाव है जो कि जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। शुक्र की देवी लक्ष्मी जी मानी जाती हैं।
अतः यदि किसी पत्रिका में शुक्र और बुध, केंद्र त्रिकोण के स्वामी होकर युति करते हों तो यह प्रबल लक्ष्मी नारायण योग कहलाता है। यह योग विशेषतः बुध की लग्न (मिथुन और कन्या), शुक्र की लग्न (वृषभ और तुला) तथा शनि की लग्न (मकर और कुंभ) में ही संभव होता है। भिन्न-भिन्न भाव में बनने वाला यह योग भिन्न-भिन्न प्रभाव देता है।
यदि यह योग लग्न भाव में बनता है तो धन समृद्धि, बुद्धिबल व स्वास्थ्य की दृष्टि से अति उत्तम परिणाम प्रदान करता है। इस स्थिति में जातक की कार्यप्रणाली भी बुद्धिचातुर्य से परिपूर्ण होती है। इस स्थिति में यदि बुध भद्र महापुरुष योग भी बनाते हो या शुक्र मालव्य योग का निर्माण भी कर रहे हो तो सोने में सुहागा वाली स्थिति बन जाती है। शुक्र धन संपत्ति प्रदान करता है तथा बुध बुद्धिमानी के साथ उन खर्चों पर नियंत्रण भी करवाता है क्योंकि बुध, बुद्धि और वाणिज्य दोनों का ही कारक है। लेकिन कभी-कभी यह योग जातक को नैराश्य की ओर भी मोड़ सकता है क्योंकि भौतिक सुख सुविधाओं की पराकाष्ठा प्राप्त करने के उपरांत जातक के मन में एक प्रश्न उठ खड़ा होता है कि अब आगे क्या, और तभी जातक अपने जीवन को नई राह में ले जाने के लिए तत्पर भी हो सकता है।
यदि यह योग द्वितीय भाव अर्थात् धन भाव में बनता है तो जातक अत्यधिक धनी होने के साथ-साथ वाक् चातुर्य में भी पटु होता है, क्योंकि द्वितीय भाव वाणी का भी भाव होता है। बुध बुद्धि का कारक है तथा शुक्र विभिन्न कलाओं का भी कारक है, अतः यदि द्वितीय भाव में लक्ष्मी नारायण योग बनता है तो जातक आकर्षक वाणी का स्वामी होता है। जातक कवि अथवा संगीतज्ञ भी हो सकता है।
यदि यह योग तृतीय भाव में बनता है तो जातक अपने पराक्रम के द्वारा समाज में अच्छा नाम कर सकता है, लेकिन बुध और शुक्र दोनों ही सौम्य ग्रह हैं। पराक्रम भाव त्रिषडाय भाव में आता है साथ ही यह उपचय भाव भी है इसलिए लक्ष्मी नारायण योग के परिणाम इस भाव में कुछ कम ही प्राप्त होते हैं।
यदि यह योग चतुर्थ भाव में बनता है तो इस भाव में शुक्र के अधिक परिणाम प्राप्त होते हैं क्योंकि शुक्र इस भाव में दिग्बल प्राप्त करते हैं। काल पुरुष की कुंडली में इस भाव में कर्क राशि आती है, जिसके स्वामी चंद्रमा हैं और बुध चंद्रमा को अपना मित्र नहीं समझता, इसलिए इस भाव में बुध के अधिक अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं होते। शुक्र इस भाव में अपने परिणाम देते हुए जातक को अच्छे भवन, वाहन, जमीन जायदाद इत्यादि भौतिक सुखों की प्राप्ति अवश्य करवाता है। लेकिन जैसे-जैसे जातक भौतिक सुखों की प्राप्ति करता जाता है उसके मन में एक शून्यता की उत्पत्ति भी होती चली जाती है।
यदि यह योग पंचम भाव में बनता है तो बहुत अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती है। जातक बुद्धिमान तो होता ही है साथ ही वह अनेक धन-समृद्धि भी प्राप्त करता है इसके अतिरिक्त उसे बहुत अच्छी संतान भी प्राप्त होती है। वाक् पटुता उसका जन्मजात गुण होता है। यदि इस योग में बृहस्पति की दृष्टि भी पड़ जाए तो जातक ज्ञान बुद्धि और भौतिक सुख-सुविधाएँ सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
यदि छटवें भाव में यह योग बनता है तो यह अधिक अच्छे परिणाम नहीं दे पाता क्योंकि छटवाँ भाव त्रिषडाय तथा दुःख स्थान दोनों में ही आता है। हालांकि इस स्थिति में भी जातक धन प्राप्त करता तो है लेकिन कठिनाइयों के उपरांत ही। यह योग जातक को कर्जे से उबारने में भी मदद करता है।
यदि यह योग सप्तम भाव में बन रहा हो तो जातक और उसके पति या पत्नी के बीच में अच्छा तालमेल रहता है। जातक का पति अथवा पत्नी देखने में सुंदर होती है। यह योग जातक के व्यापार को उन्नत बनाने में सहयोग करता है।
यदि लक्ष्मी नारायण योग अष्टम भाव में बनता है तो यह अचानक धन प्राप्ति करवाता है, क्योंकि अष्टम भाव अचानक होने वाले परिवर्तनों को भी दिखता है, साथ ही अष्टम भाव में बैठे हुए शुक्र और बुध अपनी सप्तम दृष्टि से धन भाव को भी देखते हैं।
यदि यह योग नवम भाव में बनता है तथा यदि यह योग किसी भी अशुभ प्रभाव से मुक्त होता है तो यह अति उत्तम परिणाम देता है, क्योंकि इस स्थिति में व्यक्ति धर्म की राह पर चलकर समृद्धि प्राप्त करता है। नवम भाव धर्म त्रिकोण का सर्वाधिक बली भाव है इसलिए जातक आध्यात्मिक, धार्मिक और नैतिक चेतनाओं के साथ धन समृद्धि प्राप्त करने में सफल होता है तथा उसे धन की कमी कभी नहीं होती।
यदि यह योग दशम भाव अर्थात कर्म भाव में बनता है तो जातक को कार्य क्षेत्र में अनुपम सफलताएँ दिलवाता है क्योंकि बुध प्रबंधन की क्षमता प्रदान करता है तथा शुक्र जातक को बुद्धिमत्ता व चातुर्य के साथ कार्य करने की दक्षता प्रदान करता है। इन दोनों के मिले-जुले प्रभाव के कारण जातक अपने कार्य क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त करता है तथा सबके आकर्षण का केंद्र भी बना रहता है। उसकी एक अलग पहचान होती है। बुध और शुक्र यहाँ पर स्थित होकर चतुर्थ भाव पर भी दृष्टि डालते हैं, जिसके कारण जातक को भूमि, भवन, वाहन तथा माता का सुख भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। इस प्रकार दशम भाव में बनने वाला लक्ष्मी नारायण योग सब प्रकार के उत्तम फलों का दाता होता है।
ग्यारहवाँ भाव सर्वाधिक बली उपचार स्थान है। इस भाव में सारे ही ग्रह अच्छे परिणाम देते हैं। यदि इस लाभ भाव में लक्ष्मी नारायण योग बनता है तो जातक को धन लाभ अवश्य करवाता है।
यदि यह योग बारहवें भाव में बनता है तो जातक को विदेश से अथवा इन्वेस्टमेंट से धनार्जन हो सकता है। इसके अतिरिक्त जातक धार्मिक स्थलों तथा चैरिटी इत्यादि पर भी खर्च कर सकता है। इस स्थिति में शुक्र प्रचुर शैयासुख प्रदान करते हैं। जातक को कभी धनाभाव नहीं होता। जातक यदि अपना व्यवसाय बढ़ाने में रुचि रखता हो तो उसे पूंजी की कमी कभी नहीं होती।
लक्ष्मी नारायण योग तभी अपने पूरे प्रभाव दे पता है जब वह किसी पाप प्रभाव में नहीं हो। किसके अतिरिक्त शुक्र अस्त नहीं होना चाहिए। बुध व शुक्र की डिग्रीयाँ उचित परिणाम देने में सक्षम हों तभी लक्ष्मी नारायण योग के पूरे फल प्राप्त होते हैं। बुध व शुक्र की नवांश में स्थिति भी देखना चाहिए। बुध और शुक्र पर अन्य ग्रहों की दृष्टियाँ भी लक्ष्मी नारायण योग के परिणामों को प्रभावित कर सकती हैं।
इस प्रकार पाप प्रभावों से मुक्त लक्ष्मीनारायण योग के कारण जातक जीवन में सफलताओं के नए आयाम गढ़ने में सक्षम होता है।
- डॉ. सुकृति घोष
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र,शा. के. आर. जी. कॉलेज
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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