मैला आँचल उपन्यास की समस्या फणीश्वरनाथ रेणु भारतीय ग्रामीण जीवन की जटिलताओं और समस्याओं का एक यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत करता है उपन्यास में उठाई गई
मैला आँचल उपन्यास की समस्या | फणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास 'मैला आँचल' भारतीय ग्रामीण जीवन की जटिलताओं और समस्याओं का एक यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत करता है। उपन्यास में उठाई गई समस्याएं आज भी प्रासंगिक हैं और समाज के लिए गहरा चिंतन का विषय हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है "लोक या किसी जन-समाज के बीच काल की गति के अनुसार जो गूढ और चिन्त्य परिस्थितियाँ खड़ी होती हैं। उनको गोचर रूप में सामने लाना और कभी-कभी निस्तार का मार्ग भी प्रशस्त करना उपन्यास का काम है।" वैसे तो साहित्य मात्र का काम हित सम्पादन और उपन्यास का कर्त्तव्य मानव-जीवन का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करना है। फलस्वरूप उसका मानव-जीवन की विविध समस्याओं से युक्त होना स्वाभाविक ही है। आँचलिक उपन्यास में तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। कारण ? उसमें किसी स्थान विशेष का सम्पूर्ण जन-जीवन अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ प्रकट होता है। कहना न होगा कि इन 'सम्पूर्ण विशेषताओं' में स्थान-विशेष (और उसके निवासियों) की विविध समस्यायें भी होती हैं जिन्हें उपन्यासकार कथा, चरित्र, उद्देश्य और सबसे अधिक देश-काल अथवा वातावरण के माध्यम से प्रस्तुत करता है। इतना अवश्य है कि ऐसे उपन्यासों में 'समस्या चित्रण' गौण ही होता है। यहीं आकर ये समस्यामूलक उपन्यासों से भिन्न हो जाते हैं (जिनमें समस्या चित्रण ही सर्वप्रधान होता है)।
“यह है मैला आंचल, एक आँचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव (मेरीगंज) को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मान कर इस उपन्यास का कथा-क्षेत्र बनाया है।” इस प्रकार प्रस्तुत उपन्यास ग्राम्य विशेष (अथवा अंचल विशेष) पर आधारित है और इसमें वहाँ के जीवन की विविध समस्याएँ ग्रहण की गई हैं। ये अलग बात है और मूलतः लेखक के कौशल की परिचायक हैं कि ये समस्याएँ कमोवेश रूप में उत्तर भारत के अन्य पिछड़े ग्रामों (या अंचलों) की समस्याओं का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। संक्षेप में, इस प्रकार की दृष्टि से, इनको पाँच वर्गों में रख सकते हैं-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैयक्तिक और भौगोलिक ।
राजनीतिक समस्याएँ
राजनीति वर्तमान जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। इसी से सर्जनात्मक साहित्य भी इससे बचा नहीं रह सका है, मैला आँचल में तो उपन्यासकार ने 1942-48 के मध्यकाल की राजनीतिक का जीता-जागता और समूचा चित्र प्रस्तुत किया है। उसकी सबसे बड़ी सफलता तो इस बात में है कि उसमें राजनीतिक तत्वों और चारित्रिक स्वाभाविकता का अधिक सार्थक समन्वय सम्भव हो सका है। कांग्रेसी आन्दोलन को सारे देश के परिप्रेक्ष्य में न होकर, एक छोटे से गाँव (मेरीगंज) के कुछ लोगों के माध्यम से इस प्रकार देखा गया है कि वह एक सामाजिक यथार्थ की सी तीव्रता लिए लगता है।” साथ ही साथ 'मैला आँचल में राजनीतिक जीवन की पृष्ठभूमि के रूप में ही जो पात्रों के व्यक्तित्व को और भी उभारती है, चारों ओर घेरकर उनका गला नहीं घोटती।' बालादेव, वासुदेव, कालीचरन, बावनदास जैसे चरित्र उसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इनके माध्यम से उपन्यासकार ने तत्कालीन (और अनेकांशों में अभी तक) व्याप्त हुई राजनीतिक समस्याओं के चित्र उभारे हैं। चुनाव दलबन्दी और पूँजीवाद ऐसे ही कुछ चित्र हैं।
तत्कालीन भारत में सर्वत्र स्वतन्त्रता आन्दोलन का जोर था। महात्मा गाँधी और कांग्रेस के नेतृत्व में जन-मन नई करवटें लेने लगा था। भला पूर्णिया का यह मैला आंचल मेरीगंज भी इससे कैसे बच सकता था? बालदेव और बावनदास कांग्रेस और गाँधी के परम भक्त हैं। उनकी अहिंसा अनशन जैसे गाँधीवादी विचारों में पूर्ण आस्था है। उन्हें दुःख है कि 'भारतमाता जार-जार रो रही है।'
भारत के स्वतन्त्र होते ही राजनैतिक वातावरण परिवर्तित हो जाता है। नव चुनाव में थोथे राजनीतिक हथकण्डे और स्वार्थ खुलकर सामने आते हैं। जाति-बिरादरी, भाई-भतीजावाद और थोथा अहिंसावाद जैसे दोष बावनदास जैसे सच्चे गाँधीभक्त को मरवा तक देते हैं और बालदेव का अहिंसा भाव भी डगमगाने है। अब तो स्थिति यह हो जाती है कि 'सब मेले (एम. एल. ए) होना चाहते हैं। गरीबों का काम, मजदूरों का काम जो भी करते हैं एक ही लोभ से।'
दलबन्दी की समस्या
समस्त भारत की भाँति पूर्णिया जिले में भी दिखाई देती है। मेरीगंज तक में कांग्रेस, जनसंघ, समाजवाद और साम्यवाद आदि पार्टियों के व्यक्ति 'अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग' की उक्ति को चरितार्थ करते घूमते हैं। एक ओर जनसंघ के काली टोपी वाले संयोजक अपनी धुन में व्यस्त हैं और वे यवनों का विरोध तथा शुद्ध-हिन्दुओं का समर्थन एवं हिन्दू संस्कृति का प्रचार करते हैं तो समाजवादी पार्टी का वसुदेव उन्हें बुद्धू क्लास की संज्ञा प्रदान करता है। कांग्रेस का तिरंगा-खिचड़ी बनकर रह जाता तो डॉक्टर प्रशान्त कम्युनिस्ट होने के सन्देह मात्र पर गिरफ्तार कर लिया जाता है। उच्च अफसर जमीनें खरीदते हैं, पार्टी के पैसे से नये-नये जूते कपड़े खरीदते हैं और जन-साधारण फटेहाल रहता है। इस प्रकार यहाँ पर विभिन्न राजनीतिक मतवाद, पार्टियाँ, संघटन समस्याएँ यथास्थान दृष्टव्य हैं और राजनीतिक मतवादों और वर्गगत संघर्ष के चित्र में भी उपन्यासकार ने बड़े भारी आत्मसंयम से काम लिया है।' वास्तविकता तो यह है कि 'सन् बयालिस कि विप्लव से लेकर महात्मा गाँधी के निधन तक के चित्र अंकित हैं। राजनीतिक चेतना का किस तरह शनैः-शनैः देहाती जीवन में संचार होने लगता है इसका सूक्ष्म निरीक्षण तथा जीवन्त चित्रण उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है।
आर्थिक समस्याएँ
आर्थिक दृष्टि से मेरीगंज ग्राम में स्पष्टतः दो वर्ग हैं—धनी और निर्धन अथवा शोषक और शोषित । धनी वर्ग की अपनी विविध समस्याएँ हैं। एक ओर वह अधिकाधिक भूमि और अन्य लाभप्रद साधन जुटाने में लगा है तो दूसरी ओर रिश्वत, डाली या भेंट-पूजा द्वारा अपने बिगड़े काम भी बना लेता है। जमींदार विश्वनाथ प्रसाद इसी वर्ग के प्रतिनिधि हैं। दूसरी ओर है जन-साधारण जो कर्ज खाकर जिन्दा है जिस पर न रहने को ठिकाना है, न तन ढकने को कपड़ा । कपड़े के बिना सारा गाँव अर्धनग्न है यहाँ तक कि औरतें भी एक कपड़ा कमर में लपेट कर काम चलाती हैं। भूमि जोतने वालों की नहीं, जमींदार की है। बढ़ती महंगाई और सामान के अभाव में रह अभावमय जीवन जीता है संथाल टोली का जीवन इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। इसी से ग्राम का युवक वर्ग शहरों की ओर भागता है, क्योंकि 'कटिहार में एक जूट मिल और खुला है। तीन जूट मिल ? दो रुपया रोज मजदूरी मिलती है। गाँव में अब क्या रखा है । वहाँ तो अधिकतर बेगार ही ढोनी पड़ती है। इस प्रकार अर्थ वैषम्य, वर्ग भेद, भूमिहीन कृषक, निर्धनता, ऋण, महंगाई, बेगार आदि न जाने कितनो अधिक समस्याएँ इस अंचल के मैले रूप को यहाँ प्रदर्शित करती हैं |
सामाजिक समस्याएँ
'मैला आँचल' में मुख्यतः ग्राम्य समाज का अंकन है। वह भी पूर्ण यथार्थ रूप में और अत्यन्त आत्मीयता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस समाज में उच्च-निम्न, धनी-निर्धन, स्त्री-पुरुष सभी हैं। इनमें मठाधीश हैं और राजनीतिज्ञ भी जमींदार तहसीलदार हैं और साधारण कृषक भी, ग्रन्थियों से पीड़ित युवक-युवती हैं और सामन्तीय संस्कारों से पीड़ित जन-साधारण भी हैं। साधारण ग्रामों की भाँति पारस्परिक कल, वर्ग भेद, जाति भेद लाग-डाट, छेड़-छाड़, चुगली-चबाई, चौरी-छिपे भोगविलास सभी के दृश्य यहाँ साकार रूप से देखे जा सकते हैं।
साधारण रूप से, 'गाँव के लोग बड़े सीधे दिखते हैं' सीधे का अर्थ यदि अपढ़ अज्ञानी और अन्धविश्वासी हो तो वास्तव में सीधे हैं वे । जहाँ तक सांसारिक बुद्धि का सवाल है, वे लोगों को दिन में पाँच बार ठग लेंगे।” ज्योतिषी जी सुमरित दास, तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद बालदेव, महन्त, दुलारचन्द ही नहीं रामप्यारी और कमला तक ऐसे उदाहरण हैं। कमोवेश रूप में लक्ष्मी तक में यह बात पाई जाती है। यहाँ तक कि 'गाँव का ब्राह्मण, चमारिन, भंगन को तो कुए से पानी तक नहीं लेने देता किन्तु उसके साथ रात गुजार सकता है इसी प्रकार संथाल विद्रोह, ब्राह्मण यादव टोले का बैल, सुमरितदास की लगा लिपटी, मठ के भोग तथा ज्योतिषी के इशारे पर गनेस की नानी को डायन मान लेना आदि प्रसंग और क्रिया-कलाप विविध सामाजिक समस्याओं को प्रकट करते हैं।
व्यक्तिगत समस्याएँ
प्रस्तुत उपन्यास के अनेक प्रमुख पात्र अपनी वैयक्तिक समस्याओं से पीड़ित मिलते हैं। डॉ. प्रशान्त हीन भाव से ग्रस्त हैं तो कमला और लक्ष्मी-यौन ग्रन्थि की शिकार हैं। महन्त से सेवादास महोदय 'आँगन में बहती नदी (लक्ष्मी) होने पर भी प्यासे हैं तो बालादेव दीर्घकाल तक अपने आदर्श व्रत से भयभीत बना रहता है। कालीचरन तो स्त्री से पाँच हाथ दूर से ही बात करता है और दूसरों को भविष्य बताने वाले ज्योतिषी जी जीवनभर कामुकता से ग्रसित रहते हैं। सबसे अधिक कमला, प्रशान्त और लक्ष्मी की व्यक्तिगत समस्यायें हैं। क्वारी कमला को पुरुष की भूख है। उसके दौरों की बीमारी का इलाज है- डॉ. प्रशान्त । प्रशान्त अपनी हीन ग्रन्थि का शिकार है, क्योंकि उसको "एक माँ का जन्म देते ही कोशी मैया की गोद में सौंप दिया और दूसरी ने जन-समुद्र की लहरों को समर्पित कर दिया।” वह प्यार का भूखा है इधर लक्ष्मी मठाधीशों की कृपा से वासना से पीड़ित है और सच्चे प्यार की तलाश में लगी रहती है। कहना न होगा कि उपन्यासकार ने इन सभी वैयक्तिक समस्याओं का अंकन बड़े सरल-सहज, यथार्थ और मनोविज्ञान सम्मत ढंग से किया है।
भौगोलिक समस्याएँ
प्रस्तुत उपन्यास का कथा-स्थल है-मेरीगंज नामक ग्राम जो पूर्णिया जिले का एक भाग है। “पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है, इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिमी बंगाल । विभिन्न सीमा रेखाओं से बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दख्किन में संथाल परगना और पश्चिम में मिथिला की सीमा रेखायें खींच देते हैं ।' निःसन्देह यह स्थान पिछड़ा हुआ है और इसका एक बड़ा कारण है यहाँ की भौगोलिक स्थिति । अनावृष्टि दलदल और मच्छरों की अधिकता से मलेरिया जैसी बीमारियों की यहाँ अधिकता है। उपन्यासकार ने यहाँ की प्रकृति-सुषमा का वर्णन तो किया ही है, उसके यथार्थ दुष्प्रभावों को भी दिखाया है। किसानों का वर्ष हेतु इन्द्र को प्रसन्न करना, स्त्रियों का तत्सम्बन्धी उत्सव में नृत्य करना एवं डॉ. प्रशान्त का मलेरिया विषयक अनुसन्धान करना आदि प्रसंगों में उपन्यासकार ने भौगोलिक प्रश्नों को भी व्यक्त किया है ।
समाधान
उपन्यासकार रेणु ने 'मैला आँचल' में विविध समस्याओं का दिग्दर्शन तो कराया ही है, कहीं-कहीं प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समाधान भी प्रस्तुत किये हैं। ये समाधान कौरे उसके या आदर्श नहीं है वरन् व्यावहारिक हैं। उदाहरण के लिए जमींदार प्रथा के विरुद्ध विश्वनाथप्रसाद का भूमिदान करना, कुकर्मी ज्योतिषी को लकवा मारना, सेवादास का लक्ष्मी को बुरी दृष्टि से देखने के कारण अन्धा हो जाना, रामदास की दुर्दशा, कुलिया की सारी देह गलना, बालादास का अहिंसा-पथ पर चलने के सुझाव देना, समाजवादी वासुदेव का 'किसान राज्य कायम हो' और जो बोयेगा सो काटेगा' जैसे नारे देना, काँग्रेस के भाई-भतीजावाद पर कालीचरन का आक्रोश, लक्ष्मी का एक साथ मिलकर रहने की सलाह आदि इसी के कुछ उदाहरण हैं। डॉ. प्रशान्त के शब्दों में मानों लेखक ही कहता है, 'हिसा से जर्जर प्रकृति मानों रो रही है। मानवता को पनाह कहाँ मिले ? विधाता की सृष्टि में मानव ही सबसे बढ़कर शक्तिशाली है। उसको पराजित करना असम्भव है सवारी पर मानुस सत्य । मैं साधना करूंगा, ग्रामवासिनी, भारतमाता के मैले आंचल तले' सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि रेणुजी ने 'मैला आंचल' में केवल आंचल का मैलापन ही नहीं देखा वरन् उसके धब्बों को मानवता की धारा से धोया भी है। प्रेमचन्द के पश्चात् ग्राम्य जीवन और उसकी विविध समस्याओं को इतने अधिक विस्तार, गहनता, सूक्ष्मता, यथार्थ और सबसे अधिक आत्मीयता के साथ अंकित करने का श्रेय केवल रेणुजी को है।
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