नैतिकता और संस्कृति के बीच संबंध और अंतर प्रत्येक मानव जब जन्म लेता है, तो निरीह प्राणी के रूप में एक नया जीव होता है, लेकिन इंसान के रूप में उसकी पहच
नैतिकता और संस्कृति के बीच संबंध और अंतर
नैतिकता एवं संस्कृति-ये दोनों शब्द आज हमारे समक्ष प्रश्नचिह्न सहित अपने विश्लेषण ढूँढ़ने में तत्पर हैं. नैतिक शिक्षा वास्तव में क्या है? नैतिक मूल्यों का अर्थ खण्ड-खण्ड होकर विभिन्न रूपों में भाँति-भाँति के मण्डलों के हाथों में पड़ गया है, जिसके कारण ये मण्डल अपनी गाथा का बखान करते रहते हैं. 'नैतिक' शब्द का मूल धर्म' में छिपा हुआ है. धर्म में निहित आदर्श ही नैतिक मूल्य हैं, मौलिक संस्कार हैं. मानवता का नाम ही धर्म है, अर्थात् कोई भी ऐसा कार्य न करना जिससे प्रायश्चित करना पड़े, धर्म कहा जाएगा.
नैतिक मूल्यों का संस्कृति से निकटतम सम्बन्ध है. संस्कृति नैतिक मूल्यों का दर्पण है. विभिन्न संस्कृतियाँ एक ही समय में अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग रूपों में विकसित होती हैं. इनका प्रादुर्भाव मानव के आचार-व्यवहार पर प्रभाव डालता है. संस्कृति यह निर्धारित करती है कि पारम्परिक नैतिक मूल्यों का पालन, अमुक समाज में, कितने बड़े पैमाने पर हो रहा है. अब, प्रश्न यह है कि मनुष्य पहले हुआ या संस्कृति ? निश्चय ही, मानव समाज से ही संस्कृति की स्थापना हुई. अतः निष्कर्ष यह निकला कि बिना नैतिकता के संस्कृति शून्य है; संस्कृति-शून्य वातावरण को तो जंगल ही कहा जा सकता है. अर्थात्, नैतिकता व संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
अगला प्रश्न यह है कि नैतिक मूल्यों का उद्भव कहाँ से हुआ? यह निर्णय कैसे हो कि अमुक कार्य नैतिकता के दायरे में है या नहीं? इसका एक उत्तर यह है कि जिन मौलिक तत्वों के आधार पर सामाजिक ढाँचा बिना किसी लड़ाई-झगड़े के, सुचारु रूप से चलता रहे, वे ही अनुशासन और शिष्टाचार का रूप ले लेते हैं, जिनमें मानव की सुविधा पर, जन-सेवा पर विशेष ध्यान दिया गया है. समाज से हटकर यदि हम व्यक्ति विशेष की उन्नति की बात करें, तो आत्मा और बुद्धि के विकास की बात आती है, जिसे सम्पन्न करने के लिए जो मंत्र कारगार हैं, उन्हें आत्मिक, आध्यात्मिक व बौद्धिक मूल्यों का नाम दिया गया है. अनुशासन, शिष्टाचार व उपर्युक्त मूल्यों को मिला दें, तो नैतिक मूल्य सामने आते हैं, जो कालान्तर में संस्कृति का रूप ले लेते हैं.
प्रत्येक मानव जब जन्म लेता है, तो निरीह प्राणी के रूप में एक नया जीव होता है, लेकिन इंसान के रूप में उसकी पहचान तभी बनती है, जब नैतिक मूल्य उसे अलंकृत करते हैं. वहीं आकर भेद होता है एक मनुष्य का पशु से हमारे ग्रंथों में एक श्लोक यह भाव प्रस्तुत करता है-
“येषाम् न विद्या, न तपो, न दानम् ज्ञानम् न शीलम्, न गुणो, न धर्मम् ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूताः, मनुष्यरूपेण - अर्थात्, जिनके पास न विद्यारूपी धन है, न ज्ञान है, न चरित्र की पवित्रता है, न गुणों भरा आचरण मृगाश्चरन्ति ॥"
रूपी शक्ति है, न उदारता है, न है और न ही धार्मिक प्रवृत्ति है, वे इस पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं. ऐसे लोग मनुष्य के वेष में मृग (पशु) हैं. नैतिक मूल्य ही मानव का सर्वोच्च मार्गदर्शन करते हैं. इस संसार में भोगों के अतिरिक्त उसे योग की शक्ति प्रदान करते हैं। उसकी एक व्यक्तिगत पहचान बनाते हैं.
नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात् करने की बात जितनी सरलता से कही जा सकती है, वह व्यावहारिक रूप से उतनी ही कठिन है, परन्तु दुर्लभ नहीं, इसके लिए हमें प्रतिबद्ध होना पड़ता है कि हम सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का आजीवन पालन करेंगे. ये पाँच महाव्रत सभी बारीकियों को सरलता से छूते हैं। सत्य'- अर्थात् तन-मन-जन-जीवन में सत्य का स्रोत होना, वाणी में, विचार मैं और आचार में निष्कपट व सरल होना ही सत्य है. 'अहिंसा परमोधर्मः'-ऐसा इसलिए कहा गया है, क्योंकि अहिंसा का पालन पूर्णतः हमारे अपने वश में है जिसे हम बिना किसी अपवाद के पूरा कर सकते हैं. इसका अभिप्राय प्राणियों की हिंसा न करना ही नहीं है. अपितु, उस हिंसा को रोकने से भी है जो अद्रष्टव्य है, जिसका सम्बन्ध शिष्टाचार से है अतः, विनय और शील ही अहिंसा का सीधा अर्थ है. 'अचौर्य' का अर्थ है किसी भी पराई वस्तु को उसके स्वामी की आज्ञा के बिना न उठाना, रिश्वतखोरी भी चोरी ही है। 'ब्रह्मचर्य' में आता है इन्द्रियों का संयम. इसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक है विषय- विकारों से, कषाय से, काम-वासना से मुक्ति पाना; अतः, कोई भी ऐसा कार्य न करना जिससे उपर्युक्त दुर्भावों के उत्पन्न होने की सम्भावना हो, जैसा कि गांधीजी ने कहा है- "बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो." 'अपरिग्रह' का अर्थ है व्यर्थ ही किसी वस्तु का संचय न करना; जितना अनिवार्य है, उतने का उपभोग कर बाकी दान कर देना. परिग्रह से अतृप्ति ही होती है जिसका प्याला भर सकना किसी के भी हाथ में नहीं है.
पंचमहाव्रतों का पालन करने मात्र से मनुष्य में अनगिनत गुणों का संचार होता है, जैसे-आत्मबल, आत्मसंयम, आत्मविश्वास, आत्मसंतुष्टि, त्याग, आत्मसंतुलन, उदारता, सहिष्णुता, विनम्रता, सद्भाव, परितृप्ति, परिश्रमी प्रवृत्ति, इत्यादि. सारांश यह है कि नैतिक मूल्यों से आत्मा का उत्थान होता है व्यक्तिगत उन्नति होती है, जिससे उच्च-कोटि के समाज की संरचना होती है और संस्कृति का निर्बाध्य गति से विकास होता है. इन्हीं नैतिक मूल्यों को, जो एक संस्कृति के आदर्श हों, सांस्कृतिक मूल्यों का नाम दिया जाता है.
नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की समीक्षा करके हम यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि आज के वातावरण में इनका निर्ममता से ह्रास हो रहा है. क्या इसका कारण यह है कि हमारी नींव कमजोर थी, या फिर जिन हाथों में सामाजिक व्यवस्था आई, वे हाथ ही व्यावहारिक मूल्यों का संचार करने में असमर्थ थे, या हमारे वातावरण में दुष्प्रवृत्तियों ने धीरे-धीरे अपने आकर्षण से सभी को मोहित और अचेत कर दिया है, जिससे संस्कृति का विकास दुर्लभ हो गया है? कारण जो भी हो, परन्तु आज हमें परिस्थितियों को अपने अनुकूल करने के लिए युद्धस्तर पर क्रान्ति लानी होगी, जिससे आज की पीढ़ी में इतनी क्षमता आ जाए कि वह परिपक्वता से सही मार्ग का चुनाव कर सके और जीर्ण-शीर्ण सामाजिक व आत्मिक ढाँचे को परिमार्जित कर सके. यह शक्ति है नैतिक मूल्यों में जिनका जन्म सर्वप्रथम एक व्यक्ति में ही होता है.
यह भी तय कर लें कि नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात् कैसे करें? इसे सम्पन्न करने के लिए 'दृढ़-निश्चय' और 'अभ्यास' की आवश्यकता है. श्रद्धा और लग्न से यदि हम अपने व्यवहार को परिमार्जित करने में जुट जाएं तो, दिन-प्रतिदिन आगे बढ़ने की 'कोशिश' ही हमें सम्पन्नता के निकट लेती जाएगी. इसके लिए हमें निरन्तर ज्ञानार्जन दर्शन,तथा सदाचरण की दिशा में नियमित अभ्यास करना होगा, जिससे हमारी विवेक बुद्धि का विकास हो तथा उचित-अनुचित का निर्णय करने की क्षमता प्राप्त हो. 'ज्ञान, चरित्र—-इनका उत्थान ही नैतिक मूल्यों का और सांस्कृतिक मूल्यों की मंजूषा एवं चारित्रिक उत्थान का मार्ग है. हमारे जीवन में चरित्र का क्या महत्व है, इसको बताने के लिए निवर्तमान राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा का यह महत्वपूर्ण कथन स्मरणीय है- शिक्षित चरित्रहीन व्यक्ति की अपेक्षा अशिक्षित चरित्रवान व्यक्ति समाज के लिए अधिक उपयोगी होता है.
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