रंगमंचीयता अभिनेयता की दृष्टि से स्कंदगुप्त नाटक जयशंकर प्रसाद भारतीय नाट्य साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है। यह नाटक ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर
रंगमंचीयता अभिनेयता की दृष्टि से स्कंदगुप्त नाटक | जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद का नाटक 'स्कंदगुप्त' भारतीय नाट्य साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है। यह नाटक ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया है और इसमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा, प्रेम, त्याग और व्यक्तिगत संघर्ष जैसे विभिन्न मानवीय भावनाओं को बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया गया है।
प्रसाद के नाटकों की समीक्षा करते समय इस आधार पर प्रायः सभी आलोचकों ने प्रसाद की कटु आलोचना की है और उनके नाटकों को पठ्य मानकर तर्क दिये गये हैं कि वे अभिनीत किये ही नहीं जा सकते । इस प्रकार की आलोचनाएँ प्रसाद के सामने ही आने लगी थीं, इस कारण उन्होंने अपनी अन्तिम नाट्यकृति 'ध्रुवस्वामिनी' में उन सभी दोषों का निराकरण कर दिया था, जिन्हें प्रसाद के अन्य नाटकों की अभिनेयता के सन्दर्भ में आरोपित किया जाता रहा था। ध्रुवस्वामिनी में दृश्यों का विधान न रखकर सीधे अंक विभाजन करना, अधिक पात्रों का झमेला खड़ा न करना, कथानक को संक्षिप्त बनाना आदि कुछ ऐसी ही विशेष बातें देखने को मिलती हैं, जिनको लेकर अन्य नाटकों के सन्दर्भ में अभिनेयता विषयक आपत्तियाँ आलोचकों द्वारा की गयी थीं। वैसे तो स्वयं प्रसाद जी ने 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' शीर्षक पुस्तक में इन आलोचनाओं का करारा उत्तर दे दिया था-'नाटकों के लिए रंगमंच की रचना होनी चाहिए न कि रंगमंच के लिए नाटकों की रचना।'
प्रसाद जी के इस वाक्य का तात्पर्य यही है कि यदि नाटककार अपनी नाट्यकृति की रचना में प्रवृत्त होते समय यही देखता रहा कि नाटक को रंगमंच की सुविधा के लिए ही बनाना है, तब तो उसका मूल उद्देश्य ही गौण हो जाएगा और रचना रंगमंच की सुविधा के विकास पर पूर्णरूपेण खरी उतरने के बावजूद दो कौड़ी की नाट्यकृति हो सकती है। इसलिए 'अभिनेयता' ही नाटक के लिए सब कुछ नहीं है। हाँ, नाटकों का रंगमंच से गहरा सम्बन्ध होने के कारण, उसे अभिनीत किये जाने में कोई विशेष असुविधा सामने नहीं आनी चाहिए। दुर्भाग्य से प्रसाद जी के नाटकों को अभिनीत किये जाने के अवसर पर निर्देशकों और रंगकर्मियों को ऐसी असुविधाओं और समस्याओं का सामना करना पड़ा, तभी तो आलोचकों की यह धारणा बनी कि प्रसाद के नाटक अभिनेयता की दृष्टि से सफल नहीं होते हैं।
अभिनेयता विषयक आक्षेप
प्रसाद के नाटकों के विषय में अभिनेयता विषयक जो आक्षेप लगाये गये हैं उनमें प्रमुख निम्न आक्षेप हैं-
- कथानक का अति लम्बा होना।
- कथानक की जटिलता द्वारा दुरूहता युक्त होना ।
- पात्रों की अधिक संख्या के कारण झमेला खड़ा हो जाना ।
- दृश्यों की ऐसी आयोजना कि पूर्व दृश्य को हटाकर नया दृश्य आयोजित करने में समस्या खड़ी हो जाना ।
- साहित्यिक, उच्च स्तरीय, कलात्मक भाषा का प्रयोग ।
- काव्यात्मक गीतों की अनावश्यक, असंगत आयोजना ।
- वर्जित दृश्यों, घटनाओं, कार्य-व्यापारों का रंगमंच पर दिखाना ।
लम्बा कथानक
इन आक्षेपों के विषय में यही विचार व्यक्त किया गया है कि कथानक लम्बा होने से जब नाटक अभिनीत किये जाने के समय 4-5 घण्टे तक का समय लगेगा तो दर्शक या सामाजिक ऊब जायेंगे फिर आजकल के वैज्ञानिकी और यान्त्रिकी युग में इतना अवकाश किसके पास है कि 4-5 घण्टे तक नाटक का प्रदर्शन देखें। इसी प्रकार आज के सामाजिक में इतना धैर्य भी कहाँ रह गया है। प्रसाद के नाटक - विशेषतया स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त तो इतने लम्बे हैं कि उन्हें यदि रंगमंच पर अभिनीत किया जाए तो 5-6 घण्टे तक का समय लग सकता है।
जटिल कथानक
प्रसाद के नाटकों में कथानक की जटिलता का आरोप भी सार्थक लगता है कारण कि उनके नाटकों में तीन-तीन, चार-चार स्थानों पर पारित कथानकों के सूत्र जोड़ना पाठक या दर्शक के बूते से कभी-कभी बाहर हो जाता है। उसके सामने कथानक का जाल-सा बुन जाता है। स्कन्दगुप्त नाटक को ही लें तो कभी कुसुमपुर में तो कभी मालव में, तो कभी गोपद में तो कभी पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में कुंभा के रणक्षेत्र में, नाटककार मकड़ी के जाल की तरह कथानक सूत्र फैलाता जाता है, जिसमें दर्शक या पाठक उलझ कर रह जाता है।
पात्रों का झमेला
रंगमंच पर अधिक पात्रों की उपस्थिति भी दर्शकों के सामने एक झमेला खड़ा कर देती है। उसके सामने यही समस्या खड़ी हो जाती है कि वह किस-किस को पहचाने। इस प्रकार पात्रों की अधिक संख्या भी अभिनेयता में बाधक हो जाती है। वैसे तो ऐतिहासिक नाटककार के हाथ की बात नहीं होती कि वह पात्रों की अवतारणा करे क्योंकि जो पात्र ऐतिहासिक घटनाओं में आये हैं, उन्हें नाटककार हटा कैसे सकता है ? अभिनेयता के प्रश्न को यदि छोड़ भी दें अर्थात् नाटक को पाठ्य रूप में ही रखने पर भी यदि पात्रों की अधिक संख्या हो जाएगी, तो नाटककार को भी प्रमुख एवं प्रधान पात्रों की चारित्रिक- रेखाओं को उभारने का अवकाश ही नहीं रहता। वह बेचारा किस-किस पर ध्यान देगा। इसलिए पात्रों की अधिक संख्या तो नाटककार के लिए भी एक समस्या बन सकती है।
दृश्य-परिवर्तन में असुविधाप्रसाद जी के नाटकों में अनेक बार ऐसे दृश्यों की आयोजना की गयी है कि पहले दृश्य को हटाकर दूसरे दृश्य की व्याख्या करना उतनी देर में सम्भव नहीं होता, जितनी देर में पर्दा गिरता और उठता है। वास्तव में यह रंगकर्मियों के सामने आने वाली वह क्रियात्मक कठिनाई है, जिसकी चर्चा सर्वाधिक हुई है। डॉ. जयनाथ नलिन ने (हिन्दी नाटककार नामक पुस्तक में) निम्नांकित दृश्यों के परिवर्तन में रंगमंचीय असुविधा का उल्लेख किया है-
प्रथम अंक —प्रथम के बाद द्वितीय दृश्य (छावनी के दृश्य के बाद राज्य परिषद् के दृश्य का आयोजन होने से) ।
चतुर्थ अंक-दूसरे के बाद तीसरा दृश्य (भटार्क के शिविर के तुरन्त बाद न्यायाधिकरण (कश्मीर) का आयोजन होने से) ।
उच्च स्तरीय भाषा
प्रसाद जी की भाषा-शैली अत्यन्त गरिमापूर्ण होने के कारण उनके नाटकों के अभिनीत किये जाने के अवसर पर यह समस्या खड़ी हो जाती है कि सर्वसाधारण दर्शकों की समझ से परे हो जाती है। भाषागत कठिनाई या दुर्बोधता, दुरूहता होने से प्रसाद की मात्रा सर्वसाधारणोचित नहीं बन पाती । इसी कारण उनके नाटकों को एम. ए. की कक्षा में पढ़ाना तो ठीक हो सकता है पर सर्वसाधारण जनता (अर्द्ध शिक्षित और अशिक्षित सामाजिकों) के बीच नाट्य-प्रदर्शन करने में समस्या खड़ी हो जाती है
कलात्मक गीतों की आयोजना
प्रसाद जी के नाटकों में उच्च स्तरीय, कलात्मक एवं काव्यात्मक, आलंकारिक भाषा में रचे गये गीतों की आयोजना की गयी है। इनमें कहीं रहस्यमयता है, तो कहीं काव्यात्मकता, कहीं सूक्ष्म भावाभिव्यक्ति है, तो कहीं लाक्षणिकता और व्यंजकता के कारण अभिव्यक्ति बड़ी उच्च स्तरीय हो गयी है। ये गीत प्रायः छायावादी तेवर के हैं, इसलिए उनके काव्य के को पकड़ना सर्वसाधारण दर्शकों के बूते से बाहर की बात हो जाती है।
वर्जित दृश्यों की आयोजना
मृत्यु, वध, भोजन, विवाह आदि के दृश्यों को भारतीय नाट्य शास्त्रज्ञों ने रंगमंच पर वर्जित माना है। प्रसाद जी ने ऐसे वर्जित दृश्यों या अन्य वर्जित बातों को अपने नाटकों में स्वच्छन्दता के साथ दिखाया है। ऐसा उन्होंने पाश्चात्य नाट्यशास्त्र के प्रभाव के कारण किया प्रतीत होता है।
आक्षेपों का निराकरण
जहाँ आलोचकों के एक वर्ग ने प्रसाद के नाटकों की अभिनेयता के प्रसंग में उनके सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया है, तथापि कुछ आलोचकों ने इन आक्षेपों का निराकरण भी कर दिया है। स्वयं प्रसाद जी ने अपने आलोचकों को निरुत्तर कर देने वाले तर्क दिये हैं -
“मेरी रचनायें तुलसीदास 'शैदा' या आगा हश् की व्यावसायिक रचनाओं के साथ नहीं नापी-तौली जा सकतीं। मैने उन कम्पनियों के लिए नाटक नहीं लिखे हैं जो चार चलते अभिनेताओं को एकत्र कर कुछ पैसा जुटाकर चार पर्दे बटोरकर जगह-जगह प्रहसन करती फिरती हैं।यदि परिष्कृत बुद्धि के अभिनेता हों, सुरुचि सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाए तो नाटक अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।"
इतना ही नहीं प्रसाद जी ने एक ओर अपने नाटकों को ऐसी थियेट्रीकल कम्पनियों के लिए अनुपयुक्त बताया है। जो इकन्नी दुअन्नी के टिकट पर रिक्शे वाले खोमचे वालों का मनोरंजन करती फिरती हैं, दो-एक पर्दा उधार मँगनी लेकर नाट्य प्रहसनों (भौंडे स्तर के नाटकों) का प्रदर्शन करती फिरती हैं और दूसरी ओर उन्होंने दृश्य परिवर्तन के मामले में उत्पन्न होने वाली समस्या या असुविधा के लिए घूमने वाले रंगमंच (रिवाल्विंग स्टेज) का सुझाव दिया है। उच्चस्तरीय परिनिष्ठित भाषा और कलात्मक गीतों के विषय में तो उन्होंने स्पष्ट और करारा उत्तर दिया कि “मैं सुरुचि सम्पन्न दर्शकों” के लिए ही नाटक लिखता हूँ।
प्रसाद जी को एकमत छोड़ दें तो भी अन्य आलोचकों ने भी कुछ-कुछ निराकरण विषयक व्यक्त दिये हैं। डॉ. हरीन्द्र ने उच्चस्तरीय भाषा, पात्रों की अधिक संख्या और लम्बे आकार वाले कथानकों के विषय में विश्व प्रसिद्ध नाटकों (जिनमें संस्कृत और अंग्रेजी के महान नाटकों) का हवाला देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रसाद पर लगाये गये आक्षेप निराधार हैं। डॉ. हरीन्द्र के ही शब्दों में स्कन्दगुप्त पर लगाये गये आक्षेपों की धज्जियाँ उड़ा दी गयी हैं-
'इस नाटक में पाँच अंक हैं। शेक्सपीयर के नाटकों में भी पाँच अंकों की परम्परा मिलती है।संस्कृत नाटकों में मृच्छकटिक,अभिज्ञान शाकुन्तल उत्तर रामचरित मानस आदि का विस्तार इससे कम नहीं।प्रसाद जी की भाषा की पात्र एवं रस दृष्टि से अनुकूलता पर हम पिछले अध्याय में विचार कर चुके हैं। वैसे हिन्दी भाषा के सरलीकरण का नारा अब राजनीति के भी क्षेत्र में मन्दप्रभ हो चुका है।पात्रों के सुन्दर अभिनय के द्वारा भाषा की सुगमता की बात नाटक के दर्शकों को समझाने की विशेष आवश्यकता नहीं है क्योंकि नाटक का सौन्दर्य उसके वाचिक अभिनय से कहीं अधिक सक्रिय व्यापार प्रदर्शन में होता है, जिसका अभाव स्कन्दगुप्त में नहीं है।
गीतों के विषय में कटु आलोचकों का स्वर इसलिए मन्द पड़ जाता है, क्योंकि हिन्दी भाषा में अब 'अन्धायुग' जैसी गीतिप्रधान नाट्य-रचनाएँ सफलतापूर्वक अभिनीत होने लगी हैं।” -प्रसाद का नाट्य साहित्य : परम्परा एवं प्रयोग, पृ. 274-276
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि रंगमंच की सुविधा- असुविधा की दृष्टि से विचार करने पर ही आलोचकों ने ये आक्षेप लगाये हैं। वास्तविकता यह है कि यदि अच्छे कलाकार और सम्पन्न रंग संस्थाएँ यदि प्रसाद जी के नाटकों को अभिनीत करें तो कोई समस्या सामने नहीं आ सकती। फिर आज जब हम 21वीं शती में जाने की तैयारी कर रहे हैं तब वैज्ञानिक साज-सज्जा एवं सुविधाओं के रहते ऐसी समस्याएँ नगण्य ही मानी जायेंगी। प्रसाद के नाटक निबन्ध ही बहुत उच्चकोटि के हैं और उनके रंगमंच पर अभिनीत किये जाने से कोई सन्देह या संशय नहीं है। उन्हें सफलतापूर्वक रंगमंच पर अभिनीत किया जा सकता है। 'ध्रुवस्वामिनी' में तो स्वयं प्रसाद जी ने ही ऐसी आपत्तियों का निराकरण कर दिया था। बस बात बचती है स्कन्दगुप्त और चन्द्रगुप्त की। इनमें अवश्य कुछ लम्बे कथानक, जटिल घटना व्यापार पात्रों की अधिक संख्या आदि के कारण थोड़ी-सी असुविधा हो सकती है परन्तु इस प्रकार की असुविधा का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि ये नाटक अभिनेयता - की दृष्टि से असफल हैं।
स्कन्दगुप्त नाटक के विषय में ऐसी आपत्तियाँ निराधार ही प्रतीत होती हैं। प्रसाद जी तो नाट्यशास्त्र में गहरी पैठ रखते थे, अतः उनके नाटकों में छिद्रान्वेषण करने वालों को निराशा ही हाथ लगेगी। अन्त में यही कि स्कन्दगुप्त प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ नाट्यकृति है और इसे सफलतापूर्वक रंगमंच पर अभिनीत भी किया जा सकता है।
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