स्कन्दगुप्त नाटक में स्कन्दगुप्त का चरित्र चित्रण जयशंकर प्रसाद का नाटक 'स्कन्दगुप्त' भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण शासक स्कन्दगुप्त के जीवन पर आधार
स्कन्दगुप्त नाटक में स्कन्दगुप्त का चरित्र चित्रण
जयशंकर प्रसाद का नाटक 'स्कन्दगुप्त' भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण शासक स्कन्दगुप्त के जीवन पर आधारित है। नाटक में स्कन्दगुप्त को एक जटिल और बहुआयामी चरित्र के रूप में चित्रित किया गया है।
'स्कन्दगुप्त' नाटक का नायक स्कन्दगुप्त है। इसी के आधार पर प्रसाद जी ने नाटक का नामकरण किया है। स्कन्दगुप्त एक ऐतिहासिक पात्र है। पूरे नाटक में नाटककार ने स्कन्दगुप्त को अधिकार के प्रति उदासीन एवं कर्त्तव्यों के प्रति सचेष्ट दिखाया है। प्रसाद जी ने स्कन्दगुप्त के अन्दर दार्शनिक मान्यताओं का समावेश बड़ी चतुरता से किया है। इसके चरित्र-चित्रण में प्रसाद जी ने विभिन्न अनुभूतियों का मार्मिकता के साथ चित्रण करके अपनी मौलिकता का परिचय दिया है -
अतः स्कन्दगुप्त की चारित्रिक विशेषताओं का मूल्यांकन निम्नांकित बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में करना समीचीन होगा-
गौरव का रक्षक
स्कन्दगुप्त आजीवन आर्य राष्ट्र के गौरव की रक्षा करता है। यही उसके जीवन का प्रमुख अभिधेय है। अन्ततः उसे इस उद्देश्य में सफलता भी प्राप्त होती है, जिससे नाटक सुखान्त बनता है। स्कन्दगुप्त जीवन भर राष्ट्रीय गौरव की रक्षा करने की सफल भूमिका निभाता रहा, जिसके कारण वह महान बन जाता है । यपि वह अपनी प्रेयसी के साथ अपना वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाया। वह कहता है-
“सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से, मैं उत्कोच देकर क्र.न साम्राज्य नहीं चाहता।” उपर्युक्त कथन से स्पष्ट संकेत मिलता है कि स्कन्दगुप्त एक सच्चा देश-प्रेमी एवं राष्ट्र-भक्त हैं, किन्तु यदि देखा जाय तो वह जीवन भर एक सैनिक ही था। राष्ट्र सदैव उसके हृदय में कौंधती रहती थी। उसके देश-प्रेम को स्पष्ट करने रक्षा करने की महत्त्वाकांक्षा लिए उसका भरवि के प्रति कहा गया कथन उल्लेखनीय है- वह भारवि से कहता है- “यदि कोई साथी न मिला तो साम्राज्य से नहीं जन्मभूमि के उद्धार के लिए मैं अकेला युद्ध करूँगा।”
प्रभावशाली व्यक्तित्व
स्कन्दगुप्त अत्यन्त सुन्दर एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला व्यक्ति है। इसके शारीरिक सौन्दर्य को देखकर विजया और देवसेना दोनों उनकी ओर आकर्षित हो जाती हैं। वह बड़ा धीर-वीरं एवं अदम्य उत्साही स्वभाव का है। शील सम्पन्नता उसका प्रमुख गुण है, यथा-
“उदार, वीर-हृदय, देवोपम सौन्दर्य का इस युवराज का विशाल मस्तक कैसी वक्र-लिपियों से अंकित है। आँखों में एक जीवन पूर्ण ज्योति है।"
स्कन्दगुप्त बहुत हृदय वाला व्यक्ति था। उसकी क्षमाशीलता एवं त्याग-भावना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सर्वनाग को क्षमा-दान दे उसे रास्ते पर लाने का सफल प्रयास करना, पुरगुप्त के अक्षम्य अपराध को क्षमा कर देना तथा उसे मगध का शासक बना देना। उसके हृदय की विशालता को प्रसारित करने के लिए पर्याप्त है।
भावुक एवं दार्शनिक
स्कन्दगुप्त एक भावुक एवं दार्शनिक है। पूरे नाटक में उसकी भावुकता एवं दार्शनिकता स्पष्ट लक्षित होती है। निम्नलिखित पंक्तियाँ दर्शनीय हैं- वह अपने हृदय में. सोचता है- “इस साम्राज्य का बोझ किसलिए ? मेरा भी निज का कोई स्वार्थ नहीं, हृदय के एक-एक कोने को छान डाला, कहीं कामना की वन्या नहीं। केवल गुप्त सम्राट् के वंशधर होने की दयनीय दशा ने मुझे इस रहस्यपूर्ण क्रिया-कलाप में संलग्न रखा है।" चेतना कहती है- “तू राजा है और उत्तर में जैसे कोई कहता है- तू खिलौना है- उसी खिलवाड़ी वट पत्रशायी बालक के हाथों का खिलौना है।” इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि स्कन्दगुप्त एक भावुक एवं दार्शनिक है।
सच्चा प्रेमी
स्कन्दगुप्त एक सच्चा प्रेमी है। यद्यपि वह विजया और देवसेना दोनों के प्रति आकर्षित होता है, किन्तु उसके प्रेम में पवित्रता एवं गम्भीरता आद्योपान्त बनी हुई है। उसका प्रेम वासनात्मक नहीं, वरन् भावात्मक है। उसके जीवन के प्रेम-पक्ष का सम्यक् अवलोकन करने पर ज्ञात होता है, उसमें करुणा एवं निराशा अधिक मात्रा में विद्यमान है। स्कन्दगुप्त को आजीवन कौमार व्रत धारण करना पड़ा है, क्योंकि वह विजया एवं देवसेना में से किसी को भी अपना नहीं बना सका। देवसेना उसका साथ नहीं देती और विजया की विलासितापूर्ण भावना के कारण वह उससे विमुख हो जाती है। देवसेना के प्रति उसका कथन द्रष्टव्य है- “एकान्त में, किसी नमूने के कोने में, तुम्हें देखता हुआ जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा नहीं, एक बार कह दो।"
मानवीय दुर्बलताएँ
स्कन्दगुप्त के चरित्र में कुछ मानवीय दुर्बलताओं का भी समावेश प्राप्त होता है, जिसके कारण उसका चरित्र यथार्थता के धरातल पर अधिष्ठित हो जाता है। भरवि द्वारा कुम्भा बाँध तोड़ दिये जाने पर वह अपने आप को असहाय अनुभव करने लगता है। देश पर संकट एवं विपत्ति को आयी देखकर उसे आत्मग्लानि सी प्रतीति होती है। वह कहता है- “विश्व भर की शान्त रजनी में मैं ही धूमकेतु हूँ।”
अन्यत्र भी जब वह विजया के प्रेम से निराश होता है तो उसकी स्थिति दर्शनीय है- "कोई भी मेरे अन्तःकरण का आलिंगन करके न तो रो सकता है और न हँस सकता है।" इन्हीं मानवीय दुर्बलताओं के कारण स्कन्दगुप्त के चरित्र में स्वाभाविकता आ गयी है।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त ही ऐसा पात्र है, जो नाटक के अन्त तक विराजमान रहता है। सम्पूर्ण कथा उसी के व्यक्तित्व को केन्द्र मानकर परिक्रमा करती है। स्कन्दगुप्त के समान उज्ज्वल एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला पात्र नाटक में कोई नहीं दिखायी पड़ता है।अतः स्वयं सिद्ध है कि स्कन्दगुप्त ही प्रस्तुत नाटक का नायक है। व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य दोनों दृष्टियों से विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह आद्यान्त नाटक में कर्मयोगी की भाँति कथानक को अग्रसस्ति करता हुआ सबकी प्रशंसा करता है। उसके चरित्र के विषय में मातृगुप्त के शब्द देखे जा सकते हैं- 'प्रवीर-उदार हृदय स्कन्दगुप्त कहाँ है।' भारवि का कथन भी उल्लेखनीय है- “सुना है कि यहीं कहीं स्कन्दगुप्त भी है, चलूँ इस महद् का दर्शन कर लूँ।”
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