एक शानदार फ़िल्म का आधार है उपन्यास नाचनी एक दशक से अधिक अपने पुरुलिया- प्रवास में मुझे वहां के साहित्य, सभ्यता, संस्कृति के विभिन्न आयाम देखने को मि
एक शानदार फ़िल्म का आधार है उपन्यास नाचनी
एक दशक से अधिक अपने पुरुलिया- प्रवास में मुझे वहां के साहित्य, सभ्यता, संस्कृति के विभिन्न आयाम देखने को मिले। उसी में वहां की नाचनियों को देखने, सुनने, उनका नृत्य, रहन-सहन या फिर उनके रसिकों के बारे में जानने के मौके मिले। इसी दौरान स्वीडेन से आई महिला क्रिस्टीना नाइग्रेन जो नाचनियों का नाच वगैरह देखने और उन पर शोध करने पुरूलिया आई हुईं थीं, तो उसके साथ कुछ गावों में सारी रात नाच देखने के मौके भी मिले और कई नाचनियों के साथ बातचीत भी हुई- मसलन सिंधुबाला देवी, पोस्तूबाला देवी, गीता रानी, ज्योत्सना देवी, विमला देवी, भानुमति देवी, अंजना देवी, शांति देवी, गुलाबी देवी, मालावती देवी वगैरह। ये नाचनियां खासतौर से झूमर गीतों पर नृत्य करती थीं। वैसे कहा जाता है कि नाचनियों के परिवार वालों से जब उनके बारे में पूछा जाता तो सीधे कहते थे- ना चीनी ना ! यानि नहीं जानते- लेकिन फिर भी इस नाचनी कला को मान्यता देने और जीवंत रखने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने सिंधुबाला देवी को लालन पुरस्कार से सम्मानित किया था। लोकसंगीत में विशेष अवदान के लिए उन्हें रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय ने भी सम्मानित किया था और वहां 2003 में हुए लोक शिल्प मेले में झूमर गाते हुए, उपस्थित कथा शिल्पी महाश्वेता देवी ने उनकी भरपूर प्रशंसा की थी।
इधर नाचनी नाच को केंद्र में रखकर मेरे हाथ एक शानदार उपन्यास आया और वह है श्रीराम दूबे द्वारा रचित उपन्यास- नाचनी! इस नाचनी की कथा- भूमि,एवं कथा-वस्तु पेट की आग बुझाने में लगे गीत गाते मुंह और पायल बंधे पावों से नाच करती एक देहमयी युगलबंदी है। इस उपन्यास की कथा- भूमि वर्तमान झारखंड और बंगाल का सीमावर्ती क्षेत्र है। ये क्षेत्र मुगल सम्राट अकबर के सेनापति वीर मान सिंह द्वारा विजित क्षेत्र है। उन्हीं के नाम के तीनों शब्दों से तीन अलग-अलग क्षेत्रों के नाम पड़े मसलन- वीर से वीरभूम अंचल,मान से मानभूम अंचल और सिंह से सिंहभूम अंचल।
इस नाचनी उपन्यास में चंदनपुर के राजा शंकर प्रसाद सिंह और उनकी खास नाचनियों सोना, रूपा और हीरा को केंद्र में रखकर रची गई कथा है।ये राजे-रजवाड़े अंग्रेजी राज से जमींदारियां प्राप्त करते थे और उन्हें लगान दिया करते थे और फिर उन जमीनों को अपनी प्रजा में देकर उनसे तिगुना चौगुना लगान वसूल करते थे। इस लगान के अंतर से अपना राजकाज चलाते थे । इन तीनों अंचलों के छोटे-छोटे राजे- राजवाड़े, जमींदार अपने आमोद- प्रमोद तथा अपने अंग्रेज हाकिमों को खुश रखने के लिए राजमहल से दूर किसी पोखर के पास नाचनी टोला बसाते थे और वहीं बाईजी या नाचनियां रहती थीं। ये पूरा टोला ही नाचने- गाने का काम करता था। वैसे बाईजी से नाचनी नाम इसमें थोड़ा कलात्मक रूप प्रदान करने के लिए ही दिया गया था। उपन्यास में नाचनी का विश्लेषण भी किया गया है कि - नाचनी माने नाचने वाली… जो नाचे सो नाचनी..नाचना नृत्य से जुड़ा है और नृत्य एक कला है।अतः नाचनी भी नृत्य- कला को समर्पित एक कलाकार!
यहां कथा के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया गया है कि ये परंपरा पुराने समय से ही चली आ रही थी।जिसने किसी नाचने वाली का पूरा खाने, पीने, पहनने, रहने का खर्च अपने जिम्मे ले लिया,वो हुआ उसका रसिक और फिर चुनी गई नाचनी के साथ बिना फेरे लिए मानसिक- शारीरिक आनंद में गोते लगाने का हो जाता एक अलिखित करारनामा। ये नाचनियां अपने रसिक के नाम पर अपनी मांग में बहुत हल्की सिंदूर की रेखा भी लगाती,जो बाहरी लोगों के लिए रेड- सिग्नल लगती थी। वैसे किसी रसिक की अनुमति से उसकी नाचनी का उपयोग या उपभोग किया जा सकता था।
इस कथा में चंदनपुर राजबाड़ी के राजा शंकर प्रसाद सिंह ने नाचनियों का नाच देखते हुए एक बार एक अति सुंदर नाचनी की ओर दिल उछाल दिया था, जो अब किसी के लिए नहीं नाच सकती थी। नाचनी के नाच का भी बड़ा ही कलात्मक वर्णन है इसमें,मसलन- चांदी के सिक्कों के पक्के फर्श पर गिरने से जो खनक उठती है, कुछ वैसी ही खनक उस समय खनखना उठती, जब रूपा अपने गले से विभिन्न मुर्कियों के साथ टांसी मारती…उठान पर ले जाती.. फिर बिठान पर और अंत में सठान पर. आवाज का जादू पूरे टोले पर छा जाता।
या फिर सोना और रूपा के नृत्य का तुलनात्मक वर्णन- सोना की आवाज में अनुभव की कई परतें बिछी थीं, जहां से छन-छन कर आती मख़मली रेशमी आवाज एक रूहानी शांति देती …रूपा की आवाज इठलाती- बलखाती उमड़ी नदी की धार की तरह नुकीली मार करती हुई अरार भसा कर,कई तटबंधों को तोड़कर,उछाल मारती आगे बढ़ती रहती। सोना की आवाज में संयम का एक रेशमी ठहराव था,पर रूपा की आवाज में लपकती चंचल उड़ान थी।सोने की आवाज में एक रेशमी मरहम था तो रूपा की आवाज में छलकती गागर की छलछलाहट, लेकिन दोनों की आवाज अपनी-अपनी गीत- संगीत की दुनिया की बेताज महारानियां थीं।
इन नाचनियों को अपने रूप सौंदर्य की छटा बिखेरते चाहे कितना भी मान- सम्मान, धन- दौलत मिलती हो, लेकिन इन नाचनियों को अंतिम यात्रा में चार कंधे भी नसीब नहीं होते। अपने रसिक की भेजी हुई नई चांदी की पायल इनके पांवों में जरूर पड़ती।सुहागन महिलाओं के शव को पति के नाम वाले सिंदूर और एहवातिन के पूरे साज- सिंगार के साथ अंतिम विदा दी जाती।अंतिम संस्कार के पहले चांदी की पायल से कुछ नीचे ही एक रस्सी बांधी जाती.. कारिंदे उसे खींचते हुए तालाब घाट तक ले जाते, रोती-बिलखती नाचनियां पीछे-पीछे चलतीं, लाश चिता के हवाले होती और नाचनी की जीवन- लीला समाप्त हो जाती.. संगी-साथी नाचनियों का विलाप हवा में देर तक तैरता रहता - अगले जनम मोहे नाचनी न कीजो!
इस उपन्यास में अंग्रेजी लाट साहबों के स्वागत में होने वाले कामों की तल्ख़ सच्चाई से भी रुबरु करवाया गया है कि कैसे- अंग्रेज हाकिमों के रात्रि-भोज में मुर्गे तो कटे हुए लाए जाते, लेकिन मुर्गियां बिल्कुल साबूत! हाकिमों की संख्या के हिसाब से गांव के गरीब परिवारों की सुंदर युवा कन्याओं पर राजा के कारिन्दे उंगलियां भर रख देते और उन्हें हाकिम की सेज के लिए सजना ही पड़ता। परिवार के मुखिया की मजदूरी हफ्ते दो हफ्ते के लिए दोगुनी कर दी जाती एवं लगान में कुछ माफी का लालाच दे दिया जाता ।गरीब की झोली वैसे ही बहुत छोटी होती है, इतने से ही भर जाती, सौदा पक्का करने के लिए ऐसे राजा जमींदार की ओर से कुछ सिक्के चटा दिए जाते, बाप के लिए एक धोती, मां के लिए एक साड़ी और भगजोगनी के लिए नए कपड़ों के साथ नहाने-धोने,साज-सिंगार के साधन उपलब्ध करा दिये जाते।पूरा परिवार इन्हें गिनने में लग जाता …. शराब के दौर के साथ डिनर पूरा हो जाने के बाद अब बेड पर मुर्गी होती और हलाल करने वाला अंग्रेज हाकिम। हलाल हो जाने के बाद मुर्गी वापस झोपड़ी में पहुंचा दी जाती। जब वो घर में प्रवेश कर रही होती तो घर वाले बलैयां लेने के लिए खड़े मिलते, मानो घर की जवान बिटिया ने एक ही रात में अंग्रेज हाकिम को खुश कर राजा- जमींदार की नजरों में किसान मां-बाप की जगह कुछ और ऊंची कर दी है। पंख नुच गये इस बात पर ना तो मुर्गी, ना ही मां-बाप बेहाल होते,वे तो राजा की आज्ञा पर अंग्रेज हाकिम की सेज तक पहुंचने का सौभाग्य पाकर निहाल हो जाते।
इस उपन्यास में राज परिवार के एकमात्र राजकुंवर पन्ना और सुंदरतम नाचनी हीरा की भी प्रेम कथा है और इसी के इर्द-गिर्द भी ये कथा यात्रा करती है, लेकिन कहां एक राज परिवार और कहां नाचनी। कहीं कोई मेल नहीं, आखिर नाचनी हीरा को विष पान करा दिया जाता है और उस हीरा का शव उसके पैरों में रस्सी बांधकर ले जाया जाता है। राजकुंवर चिल्ला उठता है - नहीं, नहीं वो मर नहीं सकती,मेरी हीरा इस तरह रस्सियों से घसीटी नहीं जा सकती! राजकुंवर पन्ना इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता और राजबाड़ी की दीवार से लबालब भरे तालाब में छलांग लगा देता है और कर देता है रूपायित एक अमर प्रेम कहानी!
आज की इस तेज रफ़्तार जिन्दगी में जहां उपन्यास पढ़ने की बात पाठक सोच भी नहीं पाता, वहीं अगर इसे एक बार शुरू करे तो वो इस कथा में इस कदर डूब जाता है कि उसे होश तब आता है जब उसकी आंखों से अनायास आंसू की बूंदें छलक कर गिरने लगती हैं।
श्रीराम दूबे,जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं,उनके कई उपन्यास, कहानियां, कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं तथा कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हैं। उनके इस उपन्यास की कथा-भूमि एवं कथा-वस्तु तथा बुनावट इस तरह की है कि इस पर एक शानदार फ़िल्म बाकायदा व्यावसायिक स्तर पर बनकर सफ़ल हो सकती है।
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नाचनी (उपन्यास)
लेखक: श्रीराम दूबे
बानी पब्लिकेशंस, भोपाल
पृष्ठ: 132, मूल्य: 250.
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समीक्षक
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