गुनाहों का देवता उपन्यास का सारांश धर्मवीर भारती धर्मवीर भारती का उपन्यास गुनाहों का देवता हिंदी साहित्य का एक अमर रत्न है। यह उपन्यास समाज के विभि
गुनाहों का देवता उपन्यास का सारांश | धर्मवीर भारती
धर्मवीर भारती का उपन्यास गुनाहों का देवता हिंदी साहित्य का एक अमर रत्न है। यह उपन्यास समाज के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर प्रेम, समाजिक रूढ़ियों और मानवीय संघर्ष को गहराई से उजागर करता है।धर्मवीर भारती द्वारा तेईस वर्ष की आयु में लिखा गया यह प्रथम उपन्यास सन् 1949 में प्रकाशित हुआ था। अधिकांश आलोचक इस उपन्यास को भावनात्मकता और भावुकता से भरा हुआ मानते हैं। लेकिन लाखों की संख्या में पढ़ने वाले पाठकों ने यह सिद्ध कर दिया कि इसमें ऐसा कुछ है जो उन्हें लुभाता है। लेखक ने इस उपन्यास के बारे में भूमिका में लिखा है- "मेरी निगाह में तो समाज की वर्तमान मान्यताएँ और व्यवस्था एक बहुत बड़ा गुनाह है, क्योंकि वह आधुनिक तरुण के स्वस्थ विकास की हत्या कर डालती है और नतीजा यह होता है कि हमारे राष्ट्र के युवक कभी अपने वैयक्तिक अन्तर्विकारों और उलझनों से उबरकर एक स्वस्थ सामाजिक धरातल पर नहीं आ पाते..... मैं ऐसी नैतिकता के खिलाफ विद्रोह करता हूँ।"
गुनाहों का देवता तीन खण्डों में विभाजित मध्यवर्गीय समाज की ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें अल्हड़ भावुकता और किशोर मन की आवेगात्मक तीव्रता के आदर्शवादी रूप का समायोजन है। एक विशेष आयु के पाठकों को यह उपन्यास अपनी गतिमयी रंग-रूपता और अभिव्यक्ति कलात्मकता से इतनी सीख देता है कि पाठक लट्टू रहते हैं, जैसे साँप बीन पर रहता है। मध्यवर्ग का वह समाज जो अपनी संस्कारगत गुफाओं में जकड़कर प्रेम को गुनाह समझता रहा उस रूप-संस्कार पर 'गुनाहों का देवता' कड़ा प्रहार करता है। कहना चाहिए कि बंद दिमाग की खिड़कियाँ जकड़ी चटकनियाँ खोलकर खोल देता है।
इस उपन्यास की अधिकांश घटनाएँ प्रयाग (इलाहाबाद) के आसपास की हैं। चन्दर और सुधा इस उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं। सुधा के पिता का नाम डॉ. शुक्ला था जो चन्दर के गुरु थे । चन्दर एक प्रतिभाशाली शिष्य तथा विवेकशील होने के कारण शुक्लाजी के प्रिय विद्यार्थी बन जाते हैं। कुछ समय पश्चात तो इतनी निकटता बढ़ जाती है कि चन्दर उनके बेटे की तरह हो जाता है। अतः उनका सुधा के घर आना-जाना ज्यादा रहता है और इस कारण दोनों में प्रेम हो जाता है। सुधा पहले गाँव में पढ़ती थी। लेकिन गाँव वाले उनकी शादी जल्दी करने के लिए जोर देने लगे। इस कारण डॉ. शुक्ला उसे आगे पढ़ाने शहर ले जाते हैं। सुधा की माँ का देहांत हो जाने के कारण बुआ ने उसे पाला था। जब चंदर का स्नेह सुधा को मिलता है तो धीरे-धीरे दोनों में आत्मीयता बढ़ने लगती है और यही आत्मीयता प्रेम में परिवर्तित हो जाती है।
समय बीतने पर बुआ सुधा की शादी करने के लिए कहती हैं। डॉक्टर शुक्ला पहले तो मना करते हैं, लेकिन बहन की बात को ज्यादा समय टाल नहीं सकते और कैलाश से सुधा की शादी तय कर देते हैं। अब प्रेम की परीक्षा आरम्भ होती है। चंदर ने जिस थाली में खाया, उसमें छेद करना नहीं चाहता था। दूसरी ओर सुधा चाहती है कि चंदर इस शादी को रोक दे। लेकिन दोनों सामाजिक आदर्शों के भय से अपने प्रेम को गुप्त रखना चाहते हैं। विवाह का पूरा भार चंदर को सौंपा जाता है। सुधा का कैलाश के साथ विवाह हो जाता है। सुधा के ससुराल चले जाने के बाद चंदर को डॉक्टर की उपाधि मिलती है। लेकिन सुधा की अनुपस्थिति उनको इस उपाधि का कोई आनंद नहीं देती। दोनों के जीवन में निराशा छा जाती है। सुधा शारीरिक रूप से तो कैलाश के साथ है, लेकिन मानसिक रूप से चंदर के साथ। निराश चंदर भौतिक जीवन से परेशान होकर पम्मी का हाथ थामता है। पम्मी भी उसे चाहने लगती है। परंतु चंदर अपने पहले प्यार को भूल नहीं पाता। इस कारण उनका मन किसी में लगता नहीं था।
एक दिन सुधा अपने पति के साथ घर आती है तो एक दिन कैलाश की अनुपस्थिति में दोनों की गुप्त प्रणयानुभूति जाग्रत हो जाती है। चन्दर सुधा से शारीरिक संबंध स्थापित करने के लिए आगे बढ़ता है लेकिन सुधा रोक देती है। इस प्रकार चंदर को अपमान और आत्मग्लानि के अतिरिक्त कुछ हाथ में नहीं आता। इस कार्य के लिए चंदर सुधा से माफी माँगता है। सुधा उसे माफ कर देती है। चंदर मन में सोचता रहता है कि उनका वर्षों पुराना पवित्र प्रेम खंडित हो गया। चंदर घुटन महसूस करता है। सुधा की स्थिति भी ठीक वैसी होती है। धीरे-धीरे उन्होंने भी खाना कम कर दिया, इससे उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। इसी बीच विनती का विवाह सम्बन्ध ठीक जगह न हो पाने के कारण डॉक्टर शुक्ला और बुआ की मानसिक स्थिति बिगड़ती है ।
दूसरी ओर गेसू के जीवन और चरित्र को देखते हुए चंदर के मन में फिर से आदर्शों का भाव जाग्रत होता है। चंदर को सुधा की महत्ता का आभास होता है। एक बार वह सुधा को लेने स्टेशन जाता है। सुधा भी उनकी पिछली बातों को भुलाती हुई चंदर की बातों पर विश्वास करने लगती है। सुधा को जब गर्भपात होता है, तब उसकी तबीयत और अधिक बिगड़ती है । वह चंदर का नाम जपती है। चंदर को तार करके बुलवाया जाता है। वैसे भी सुधा स्वपीड़न विकृति का शिकार हो जाती है। उसको जीने में कोई रुचि नहीं थी। उसे तो मरकर दूसरे जन्म में चंदर की अर्धांगिनी बनना है। बीमारी के समय तार से बुलाये गये चंदर के लिए विनती से कहती है-"मैं झुक नहीं सकती-विनती यहाँ आ-हाँ चंदर के पैर छ अरे अपने माथे में नहीं पगली मेरे माथे में लगा दे।" इस प्रकार सुधा के प्राण निकल जाते हैं। चंदर सुधा की अस्थियों को जल में प्रवाहित करता है और विनती को अपना लेता है। यहाँ उपन्यास का समापन हो जाता है।
इस प्रकार उपन्यास का कथा-कौशल अत्यंत सफल रहा है। इसका मुख्य पात्र चंदर अवश्य है परन्तु महत्वपूर्ण चरित्र सुधा का है। उसके चरित्र में सहजता, मिठास और आकर्षण तत्व कूट-कूटकर भरा हुआ है। अनेक विशेषताओं से भरा यह उपन्यास मध्य वर्ग की श्रेष्ठ प्रेम कहानी है। उपन्यास की कथा प्रारंभ से लेकर अंत तक पाठक को जकड़ रखने में सफल रही है।
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