हिंदी कथा साहित्य में जयशंकर प्रसाद का योगदान जयशंकर प्रसाद जी हिन्दी के कवि, नाटककार और उपन्यासकार ही नहीं प्रसिद्ध कहानी लेखक भी हैं इन्दु प्रथम मौल
हिंदी कथा साहित्य में जयशंकर प्रसाद का योगदान
जयशंकर प्रसाद जी हिन्दी के कवि, नाटककार और उपन्यासकार ही नहीं प्रसिद्ध कहानी लेखक भी हैं। 'इन्दु' में प्रकाशित उनकी कहानी 'ग्राम' हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है। इस प्रकार प्रसाद जी हिन्दी के प्रथम मौलिक कहानीकार हैं। हिन्दी साहित्य में उन्होंने अपनी कहानियों द्वारा एक नई परम्परा को जन्म दिया है। उनकी कहानी कला एक विशिष्ट दशा की ओर विकसित हुई।
जयशंकर प्रसाद की कहानी कला की विशेषताएं
प्रसाद जी की कहानी कला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी कहानियों का रूप बड़ा भावात्मक है। प्रसाद जी कवि पहिले हैं,बाद में और कुछ। उनका यह कवि रूप सर्वत्र व्याप्त है। चाहे नाटक हो अथवा उपन्यास प्रसाद जी के कवि हृदय की अनुभूतियाँ ही चित्रित हुई हैं। यही बात उनकी कहानियों के लिए है। प्रसाद जी के भावुक और दार्शनिक हृदय में जब जैसी भावनाएँ उठी उसी के अनुसार उन्होंने इतिहास या अपनी कल्पना से कोई कथानक चुना और फिर अपनी भावनाओं के सूत्र में पिरोकर उसे कहानी का रूप दे दिया। इसीलिए प्रसाद जी की कहानियों पर उनके कवित्व, दर्शन, कल्पना, भावुकता और अनुभूति की बड़ी गहरी छाप है ।
प्रसाद जी की ऐसी भावात्मक कहानियों के कथानक ऐतिहासिक अधिक हैं। नाटकों की भाँति अपनी कहानियों के कथासूत्रों की प्रेरणा उन्होंने इतिहास से ही ली है। उनकी कहानियों के कुछ कथानक तो विशुद्ध ऐतिहासिक हैं, जैसे – ममता, अशोक, जहाँनारा। कुछ कहानियाँ ऐतिहासिक वातावरण में चित्रित काल्पनिक अर्थात् इन कहानियों का वातावरण तो इतिहास का है, पर पात्र काल्पनिक हैं। पुरस्कार, आकाशदीप कहानियाँ इसी प्रकार की हैं। प्रसाद जी ने सामाजिक कहानियाँ भी लिखी हैं परन्तु इसकी संख्या अधिक नहीं है।
प्रसाद जी की कहानियाँ चाहे ऐतिहासिक हों अथवा सामाजिक, प्रेम और रोमांस की भावना को ही मुख्य रूप से लेकर चली हैं। हमारे सामान्य सामाजिक जीवन से उनका कम ही सम्बन्ध है । प्रेम की मधुर भावनाओं के बीच ही उनकी कहानियों के कथानकों का विकास हुआ है। ये कथानक बड़े सूक्ष्म और सांकेतिक हैं और कहीं-कहीं तो वे गद्य-गीत से प्रतीत होते हैं। प्रलय, प्रतिमा, दुखिया आदि कहानियाँ ऐसी हैं। कहानी-कला के तत्व ऐसी कहानियों में अधिक विकसित नहीं होने पाये। परन्तु जो ऐतिहासिक और सामाजिक कहानियाँ हैं, उनके कथानक में बड़ी एकसूत्रता, प्रवाह और प्रभावोत्पादकता है। कहानी कला के सभी तत्व बड़ी कुशलता के साथ उसमें उभरे हैं । कथासूत्र बड़े कलात्मक ढंग से विकसित हुआ है। उसमें बड़ी नाटकीयता है।
अपनी कहानियों में प्रसाद जी ने पात्रों का चरित्र-चित्रण भी कल्पना और आदर्श को आधार बनाकर किया है। उनके सभी पात्र बड़े भावुक, प्रेमी और सामान्य मनुष्य से कुछ ऊपर उठे हुए हैं। उनका चरित्र, प्रेम, करुणा, ममता, क्षमा, बलिदान, विद्रोह की भावनाओं से निर्मित हुआ है। उनके स्त्री चरित्र अधिक करुणा से भरे हैं तथा पुरुष पात्र अधिक भावुक और प्रेमी हैं। सभी पात्रों का चरित्र अन्तर्द्वन्द्व लिए हुए है। उनके हृदय में दो विरोधी भावनाओं का संघर्ष है। हृदय के इसी संघर्ष का चित्रण प्रसाद जी ने बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से अपनी कहानियों में किया है। इस रूप में प्रसाद जी की कहानियाँ बड़ी सुन्दर चरित्र प्रधान कहानियाँ हैं। चारित्रिक उथल-पुथल ही उनके पात्रों के चरित्र की विशेषता है।
शैली की दृष्टि से पात्रों के नाटकीय कथोपकथनों और वातावरण की सृष्टि प्रसाद जी की कहानी कला की सबसे बड़ी मौलिकता है। प्रसाद जी की सभी उत्कृष्ट कहानियों का विकास कथोपकथनों के माध्यम से बड़े सुन्दर ढंग से हुआ है। कुछ कहानियों के कथोपकथन बहुत लम्बे हैं, जैसे आकाशदीप में। कथोपकथनों की शैली में नाटकीयता अधिक है कहानी तत्व कम ।
प्रसाद जी की सभी कहानियाँ आदर्शवाद को अपना लक्ष्य बनाकर चली हैं। उनके सभी प्रमुख पात्रों में चरित्र का विकास आदर्शवाद की दशा में हुआ है। कहानियों के सभी प्रमुख पात्र करुणा, त्याग, बलिदान और प्रेम के आदर्श हमारे सामने रखते हैं। आकाशदीप की 'चम्पा', पुरस्कार की 'मधूलिका' और 'अरुण' नूरी कहानी का 'याकूव', मधुआ कहानी का 'शराबी', दासी का 'मलराज' ऐसे ही पात्र हैं।
प्रसाद जी की कहानियों की भाषा-शैली एक कवि की भाषा-शैली है। वह इतनी विशिष्ट है कि सहस्रों रचनाओं के बीच में से सहज ही पहचानी जा सकती है। उनकी यह भाषा बड़ी रसपूर्ण, स्निग्ध, कलात्मक और संगीत की-सी मधुरता लिए हुए है। संस्कृत के तत्सम शब्दों की उसमें प्रधानता है। उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग उन्होंने अपनी भाषा में नहीं के बराबर किया है। कहावतों और मुहावरों से भी उनकी भाषा प्रायः अछूती है। उनकी भाषा में वह लोच और खानगी भी नहीं है जो प्रेमचन्द जी की भाषा दिखलाई देती है । इतना सब कुछ होते हुए भी प्रसाद जी की भाषा कृत्रिम और अस्वाभाविक नहीं बन पाई। उसका रूप बड़ा सहज स्वाभाविक और भावपूर्ण है। कहानियों में चित्रित भावात्मक कथानकों के वह सर्वथा अनुरूप है।
हिन्दी कहानी साहित्य में प्रसाद जी का स्थान
जिस समय प्रसाद जी ने हिन्दी कथा साहित्य में प्रवेश किया। वह हिन्दी कथा साहित्य का जन्मकाल था । मौलिक कहानियाँ तो उस समय नहीं के बराबर लिखी जाती थीं दूसरी भाषाओं विशेषकर बंगला, अंग्रेजी आदि भाषाओं से अनुवाद की हुई कहानियों, की अधिक मची हुई थी। हिन्दी की जो अपनी कहानियाँ थीं उनका कलात्मक स्तर अधिक ऊँचा नहीं था। ऐसे समय में प्रसाद जी की प्रथम मौलिक कहानी 'ग्राम' इन्दु पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह कहानी सभी दृष्टियों से बड़ी अनूठी थी और इसमें सन्देह नहीं कि अपनी इस कहानी द्वारा प्रसाद जी ने हिन्दी कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया। नाटकीय शिल्प विधान को लेकर जो भावात्मक कहानियों की परम्परा हमें हिन्दी कथा क्षेत्र में मिलती है, उनके जनक जयशंकर प्रसाद जी ही हैं। प्रसाद संस्थान के रूप में प्रसाद जी की कहानी-कला का जो विशिष्ट रूप है, वह हिन्दी कथा-साहित्य में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए है। प्रसाद जी से ही प्रेरणा ग्रहण कर आचार्य चतुरसेन शास्त्री, रायकृष्णदास, चण्डी, प्रसाद, हृदयेश, विनोद शंकर व्यास ने आगे चलकर बड़ी सुन्दर कहानियाँ लिखी हैं।
यह सत्य है कि प्रसाद जी की कथा-साहित्य अधिक व्यापक नहीं है। प्रसाद जी की कहानियों की संख्या कुल मिलकर सत्तर से अधिक नहीं है। कहानियों का भाव-क्षेत्र भी बहुत सीमित है। प्रेमचन्द जी की भाँति उन्होंने अपनी कहानियों द्वारा जनसाधारण का चित्रण व्यापक रूप से नहीं किया। प्रेम और रोमांस की भावनाओं में ही उनका सारा कथा-साहित्य सिमट कर रह गया है। फिर भी प्रसाद जी के कथा-साहित्य का अपना विशिष्ट महत्व है। उनकी कहानियों में जो भावात्मकता, कलात्मकता, नाटकीयता और काव्यत्व है, वह अन्य कहानीकारों की कहानियों में नहीं दिखलाई देता ।
गुंडा कहानी की समीक्षा
'गुण्डा' श्री जयशंकर प्रसाद की प्रमुख कहानी रचना है। कहानी अठारहवीं शती से सम्बद्ध है जबकि भारत में ब्रिटिश शासन था। उस समय भारत का कण-कण गवर्नर जनरल, अंग्रेज रेजीमेण्ट तथा अंग्रेज भक्त भारतीयों से आतंकित था। इस कहानी की कथा-वस्तु काशी से सम्बन्धित है जहाँ चेतसिंह का राज्य था । किन्तु राजा चेतसिंह को अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा था । राजा चेतसिंह लार्ड हेस्टिंग्ज के समय में हुए थे जिससे अनबन हो जाने का इतिहास में भी उल्लेख है । अतः कहानी ऐतिहासिक कथाधार पर स्थित है किन्तु उसमें कल्पना का भी कम पुट नहीं है। 'गुण्डा' कहानी तत्कालीन, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दशा का चित्रण करती है। कहानीकार ने इसे एक चरित्र प्रधान कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। इस कहानी का प्रमुख पात्र नन्हकूसिंह है जो काशी का प्रमुख गुण्डा है। वह वस्तुतः एक कुलीन जमींदार का पुत्र है जो काशी का प्रमुख गुण्डा है। वह वस्तुतः एक कुलीन जमींदार का पुत्र है किन्तु मानसिक ठेस उसे गुण्डा के रूप में परिवर्तित कर देती है। जीवन भर वह कुण्ठाओं का शिकार है। कहने को तो वह गुण्डा है और उसकी वेश-भूषा से कुछ प्रतीत तो ऐसा ही होता है किन्तु सत्य तो यह है कि एक वीर दृढ़-चरित्र एवं साहसी व्यक्ति को परिस्थितियों ने गुण्डागर्दी का मार्ग ग्रहण करने की विवश कर दिया है। अन्यथा वह दीन-दुखियों, विधवाओं तथा शासकों द्वारा पीड़ितों का सहायक है। उसमें पवित्र एवं दृढ प्रणय की अमर ज्योति है। वह दरिया दिल एवं दीनबन्धु है। प्रणय की पवित्रता में वह अपने प्राणों की आहुति देने में भी समर्थ है। प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने ब्रिटिश शासन काल में 18वीं शताब्दी में रही काशी की स्थिति का चित्रण किया है। एक ओर ऐतिहासिकता का सहारा लिया है तो दूसरी ओर मधुर कल्पन का भी प्रयोग किया है। वस्तुतः नन्हकूसिंह के चित्रण में लेखक ने मनोवैज्ञानिक आधार पर स्पष्ट किया है कि किस प्रकार परिस्थितियाँ मानव को एक गुण्डा तथा डाकू बनने को विवश करती हैं।
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