कफन कहानी के गुण दोषों का विवेचन | मुंशी प्रेमचंद कफन एक ऐसी कहानी है जो हमें समाज के कई गंभीर मुद्दों पर सोचने पर मजबूर करती है। हालांकि, कहानी में
कफन कहानी के गुण दोषों का विवेचन | मुंशी प्रेमचंद
कफन एक ऐसी कहानी है जो हमें समाज के कई गंभीर मुद्दों पर सोचने पर मजबूर करती है। हालांकि, कहानी में निराशावाद और पात्रों की नकारात्मकता जैसी कुछ कमियां भी हैं, लेकिन इसके बावजूद यह हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि हमें समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लड़ना चाहिए और एक बेहतर समाज का निर्माण करना चाहिए।
आधुनिक युग में काव्य के क्षेत्र में जो महत्व और आदर प्रसाद को मिला वही कथा-साहित्य में प्रेमचन्द को प्राप्त हुआ। प्रेमचन्द ने जहाँ अपने उपन्यासों में जीवनजगत यथार्थ को सम्पूर्ण मानवीय संवेदना के साथ प्रस्तुत किया वहाँ अपनी कहानियों में भी उन्होंने जीवन का समय, सशक्त और समर्थ ग्रहण करते हुए सच्चे अर्थों में नयी कहानी का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी प्रारम्भिक कहानियाँ सुधारवादी पुट लिए हुए हैं किन्तु जीवन के यथार्थ का उन्हें जैसे-जैसे निर्गम साक्षात्कार होता गया वे आदर्शवाद से यथार्थ की ओर बढ़ते रहे। 'पूस की रात' और 'कफन' उनके आदर्श के प्रति मोह भंग के जीवन्त दस्तावेज हैं। प्रगतिशील जीवन-दृष्टि से प्रभावित होकर उन्हें अपने रचना धर्मिता को युग और समाज की विसंगतियों और विषमताओं से सम्बद्ध करना पड़ा। आधुनिकता की प्रक्रिया और उसके प्रश्न-चिन्हों को समष्टि-चिन्तन के धरातल पर उठाकर उन्होंने युग-सत्य के प्रति अपनी सतर्कता को उजागर किया है।
परम्परागत कहानी-कला की रचनागत सीमाओं-काल्पनिक चरित्रों का सृजन, इतिवृत्तात्मकता और वर्णनात्मक शैली, नाटकीय अन्त, अविश्वसनीय कथानक एवं वायवीय भावुकता का परित्याग करके उन्होंने कहानी-कला को समृद्ध और विकसित किया। 'मानसरोवर' शीर्षक से छः भागों में उनकी कहानियाँ संकलित हैं और इधर अमृतराय ने उनकी कुछ आरम्भिक प्रकाशित कहानियों को 'गुप्तधन' शीर्षक से प्रकाशित कराया है ।
आलोच्य कहानी
'कफन' कहानी हिन्दी की पुरानी और नयी कहानी के बीच एक दरार डालती है। 'कफन' से पहले की कहानी में आदर्शवाद की कहानी की मूल संवेदना और रचना-विधान पर थोंपा जाता था। पात्र आदर्श को जीते नहीं थे, ढोते थे। 'कफन' से हम प्रेमचन्द में एक विशेष प्रकार का मोह भंग देखते हैं। यहाँ पहली बार पात्र और परिवेश एक-दूसरे पर व्यंग्य करते हुए दीख पड़ते हैं। बदलते या कहिये विघटित होते हुए मानव-सम्बन्ध, दरकते हुए जीवन-मूल्य और बिखरते हुए आदर्शों की त्रासदी है 'कफन' । इसलिए 'कफन' केवल एक कहानी है। बल्कि वह एक एहसास है, निर्धनता के बोझ के नीचे पिसती मानव की अस्मिता की तिल-तिल करके जोती हुई मौत का। यही कारण है कि 'कफन' यथार्थवादी कहानी-परम्परा की एक सार्थक और पैनी शुरूआत है।
कहानी कला के तत्व और कफन
विद्वानों ने कहानी के जो सर्वनाम तत्व स्वीकार किये हैं, वे हैं -
- कथावस्तु,
- पात्र और चरित्र-चित्रण,
- सम्वाद,
- देशकाल और वातावरण,
- भाषा-शैली,
- उद्देश्य।
यहाँ हम इन्हीं तत्वों के आधार पर आलोच्य कहानी की समीक्षा करने का प्रयास करेंगे-
कथावस्तु
'कफन' की कथा संक्षिप्त में इस प्रकार है कि घीसू और माधव पिता-पुत्र दोनों निर्धन श्रमिक हैं। दोनों अलाव के पास बैठे आलू भून-भूनकर खा रहे हैं। झोंपड़ी के भीतर माधव की पत्नी बुधिया प्रसव पीड़ा से छटपटा रही है। दोनों ही दो दिन से भूखे हैं और इस डर से कहीं कोई-सा भी रुग्ण स्त्री को देखने जाये तो दूसरा सारे आलू साफ न कर जाये, वहीं पर बैठे-बैठे आलू खाते रहते हैं। दोनों रातभर बातें करते रहते हैं और सुबह जाकर देखते हैं तब तक बुधिया दम तोड़ चुकी होती है। दोनों रोते-पीटते हैं और गाँव वाले चन्दा करके 'कफन' के लिये रुपये एकत्रित करके इन्हें देते हैं। दोनों कफन लेने की बजाय मधुशाला में जाकर शराब पीते-खाते हैं और नशे में मदमस्त होकर नाचते कूदते हुए गिर पड़ते हैं।
जहाँ तक कथावस्तु का प्रश्न है उसमें पर्याप्त कसाव है। वस्तुतः घटनाओं की अपेक्षा रचनाकार ने चरित्रों के चित्रण और विश्लेषण पर अधिक बल दिया है। आरम्भ में नाटकीयता धीरे-धीरे स्वाभाविकता की ओर उन्मुख होती जाती है। जब वे कफन खरीदने की बजाय मधुशाला में घुस जाते हैं तो कथावस्तु में एक नया मोड़ आ जाता है। यहाँ कथावस्तु का उत्कर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। कथावस्तु में रोचकता. गतिशीलता देखते ही बनती है इस प्रकार कथावस्तु की दृष्टि से 'कफन' पूरी तरह सफल है।
चरित्र चित्रण
'कफन' कहानी में मुख्य पात्र दो हैं—घीसू और माधव । दोनों पिता-पुत्र हैं। किन्तु निर्धनता ने उनके उन भावों को सोख लिया है, जो पिता और पुत्र के सम्बन्धों को गरिमामय बनाते हैं। अलाव के पास बैठकर आलू खा रहे हैं और जब घीसू माधव से अन्दर जाकर बुधिया को देख आने के लिए कहता है तब माधव यह सोचकर अन्दर नहीं जाता कि कहीं उसके जाने के बाद घासू आलुओं का एक बड़ा भाग चट न कर दे। दरअसल घीसू और माधव ने बदलते और विघटित होते हुए मानव-सम्बन्धों को यथार्थ-मूलक अभिव्यक्ति प्रदान की है।
जहाँ तक चरित्र-चित्रण का प्रश्न है प्रेमचन्द ने दोनों का चरित्र-चित्रण बहुत कुशलता से किया है। दोनों का चरित्र-चित्रण करते हुए प्रेमचन्द ने लिखा है-“अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिये संयम और नियम की बिल्कुल आवश्यकता न होती, यह तो उनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका । जीवन-यापन किये जाते हैं। संसार की चिन्ताओं से मुक्त। कर्ज से लदे हुए गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, घर में मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवाय कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए. मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिल्कुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे . देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरे के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते, या दस-पाच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते । घीसू ने इसी आकाश दृष्टि से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपत बेटे की भाँति बाप ही के पद चिन्हों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और उजागर कर रहा था। इस प्रकार का निस्सन्देह पाठकों के हृदय में घृणा उत्पन्न करता है किन्तु प्रेमचन्द ने इस चरित्र को न केवल यथार्थ के अणुओं से गढ़ा है बल्कि करुणा-मूलक व्यंग्यात्मक से तराशा भी है। एक स्थान पर घीसू कहता है-“हाँ बेटा, बैकुण्ठ में जायेंगी किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। बैकुण्ठ में नहीं जायेगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जायेंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप धोने के लिये गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं।” प्रेमचन्द ने एक स्थान पर उपन्यास को मानव-चरित्र कहा है। उनकी आलोच्य के चरित्र-चित्रण को देखते हुए उनकी वह उक्ति उनकी कहानियों पर भी लागू की जा सकती है।
कथोपकथन
कथोपकथनों की दृष्टि से 'कफन' कहानी पूरी तरह से सफल है। यहाँ सम्वाद चरित्र रेखाओं को और उभारते हैं। संक्षिप्त, गरिमा और प्रभावान्वित सभी दृष्टियों से सम्वाद कहानी की संवेदना को सघन और मार्मिक बनाते हैं। घीसू और माधव के चरित्र की निर्लज्जता, उनके भीतर निहित अवाध शोषण की पीड़ा प्रस्तुत सम्वाद में कितने सुन्दर रूप में अभिव्यक्त हुई है—
“दुनिया का दस्तूर है, नहीं तो लोग बामनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं ? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं ।"
“बड़े आदमियों के पास धन है, फूंकें। हमारे पास फूँकने को क्या है ?"
“लेकिन लोगों को क्या जवाब दोगे ? लोग पूछेंगे नहीं, 'कफन' कहाँ है ?”
घीसू हँसा—अब कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा मिले नहीं। लोगों को विश्वास नहीं आयेगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा — इस अपेक्षित सौभाग्य पर बोला—बड़ी अच्छी थी बेचारी। मरी तो खूब खिला-पिला कर ।'
यहाँ दोनों की निर्लज्जता और उसमें घुले पीड़ा के एहसान ने इस सम्वाद को अभूतपूर्व मार्मिकता प्रदान की है । इस प्रकार कथोपकथन एवं कफन की दृष्टि से कफन पूरी तरह सफल है और सम्वाद कहानी के समय रचना-विधान को पूर्णता प्रदान करते हैं।
देशकाल और वातावरण
देशकाल और वातावरण कहानी को एक अनिवार्य विश्वसनीयता प्रदान करता है। दरअसल देशकाल और वातावरण का परिवेश में ही अन्तर्भाव हो जाता है। देशकाल और वातावरण की दृष्टि से 'कफन' कहानी पूरी तरह से सार्थक है। लेखाकार ने वातावरण निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। मधुशाला का यह दृश्य देखिये- “ज्यों-ज्यों अन्धेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थीं, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती थीं कोई डींग मारता था, कोई खाता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्लड़ लगाये देता था। वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा । कितने तो यहाँ आकर चुल्लु में मस्त हो जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं या न जीते हैं न मरते हैं कहने का तात्पर्य है कि आलोच्य कहानी में देश, काल और वातावरण का कहानीकार ने अत्यन्त मार्मिक अंकन किया है।
भाषा शैली
प्रत्येक साहित्य-विधा अपनी भाषा का स्वयं निर्धारण करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्येक साहित्य-विधा की भाषा का एक अपना मिजाज होता है। इसलिये यदि हम तुलना करें तो पायेंगे कि उपन्यास की भाषा में जहाँ विस्तार और स्फीति होती है वहाँ कहानी की भाषा में घनत्व और गरिमा होती है। कहानी में कहानीकार को गागर में सागर भरना होता है। जबकि उपन्यास में रचनाकार को भाषा को सघन अथवा विस्तृत करने का पूरा अवकाश रहता है। इसलिये भाषा के प्रयोग में कहानीकार को विशेष सावधानी बरतनी होती है।
कफन की भाषा ने पुरानी कहानी की भाषा में निहित आदर्शवादिता और रोमानीपन के मुलम्मे को उतार फेंका। 'कफन' की भाषा ने पहली बार यथार्थवाद की पथरीली भूमि पर अपने पैर जमाये। भाषा की पात्रानुकूलता, यथार्थपरकता, सम्प्रेक्षण क्षमता देखते ही बनती है। भाषा की व्यंग्यात्मकता का एक उदाहरण लीजिये “दोनों इस वक्त शान से बैठे पूड़ियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फिक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले जीत लिया था।” यहाँ एक ओर घीसू और माधव के प्रति हमारा मन पितृष्णा से भर उठता है तो दूसरी ओर उनके अवाध शोषण से हम करुणाभिभूत हो जाते हैं। यह भाषा की शक्ति का ही प्रमाण है।
उद्देश्य और संवेदना
कफन कहानी उस अर्थ में उद्देश्यमूलक नहीं है जिस अर्थ में प्रेमचन्द ने पूर्व की कहानियाँ उद्देश्यमूलक हुआ करती थीं। प्रेमचन्द ने यहाँ यथार्थ को सर्जनात्मक रूप से ग्रहण किया है। कफन कथानक से अधिक संवेद्य घटना पर आधृत है, जिसमें विषमतामूलक समाज की विकृति पर प्रकाश डाला गया है। इस कहानी में सामाजिक व्यवस्था पर कहानीकार ने कटु और तीव्र व्यंग्य करना चाहा है। पूँजीवादी शोषण के नीचे दबा मनुष्य किस प्रकार अमानवीय हो जाता है। यही प्रस्तुत कहानी में प्रेमचन्द ने बताना चाहा। डॉ. विजयपाल सिंह के शब्दों में, “आधुनिक बोध, समष्टि-यथार्थ, अन्तर्निहित संकेत और पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश या सांकेतिक व्यंग्य से सम्पन्न यह कहानी मानव-हृदय के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं प्रतिक्रियाओं को अत्यन्त गहराई के साथ प्रस्तुत करने में समर्थ है। " इस प्रकार कहानी-कला के सभी तत्वों पर आलोच्य कहानी पूरी तरह से सफल हैं।
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