कफन कहानी का सारांश मुंशी प्रेमचंद Summary of kafan by munshi premchand in hindi बुधिया के कफन की कहानी नहीं, मानवीयता और भूत नैतिक-बोध के कफन की कहान
कफन कहानी का सारांश | मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी "कफन" गरीबी, असमानता और मानवीय मूल्यों के पतन को बड़ी मार्मिकता से उजागर करती है। सन् 1916 में प्रेमचन्द की पहली कहानी 'पंच परमेश्वर' प्रकाशित हुई। 'कफन' 1936 में प्रकाशित हुई और उसी वर्ष उनका देहावसान भी हुआ। प्रेमचन्द ने अपने को आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी कहा है। वस्तुतः वे आदर्शवादी थे।
'कफन' एक चरित्र तथा वातावरण प्रधान कहानी है, जिसमें सामाजिक चेतना को जगाने का प्रयत्न किया गया है। जीवन एवं समाज की विद्रूपताओं और असंगतियों का चित्रण करते हुए उन्होंने व्यंग्यात्मक आघात भी निष्ठुरता से किया है।
'कफन' शिल्प और वस्तु के स्तर पर प्रेमचन्द की कहानी-कला का चरम विकास प्रस्तुत करती है। कहानी का सारांश इस प्रकार है—घीसू और उसका बेटा माधव झोंपड़ी के द्वार पर अलाव के सामने बैठे थे । अन्दर माधव की पत्नी बुधिया वेदना से पछाड़े खा रही थीं बाप-बेटे खेत में से खोदकर लाये हुए आलू भूनकर खा रहे थे।
घीसू माधव से कहता है कि वह अन्दर जाकर उसकी हालत देख आये । माधव चिढ़कर कहता है- "मरना ही है तो जल्दी मर ही क्यों नहीं जाती ? देखकर क्या करूँ।” इतना कहने के पश्चात् घीसू से कहता है कि तुम्हीं जाकर क्यों नहीं देख आते । घीसू श्वसुर होने के नाते बहू के पास जाने में मर्यादा की बात समझता है और मन में कहता है कि उसे अपने शरीर के कपड़ों की भी सुध नहीं होगी। मुझे देखकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी। घीसू और माधव दोनों ही कामचोर हैं। घीसू एक दिन काम करता था तो दो-तीन दिन आराम करने की सोचता था और माधव को आधे घण्टे काम करने के पश्चात् करीब एक घण्टा चिलम पीने के लिए चाहिए। यही कारण था कि उनको मजदूरी नहीं मिलती और अक्सर फाकाकसी हो जाया करती थीं दो-चार फाके हो जाने के पश्चात् घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाजार में बेच आता। जब तक पैसे रहते, तब तक कोई चिन्ता नहीं रहती।
दीन इतने थे कि वसूली की आशा न होने पर भी लोग कुछ न कुछ उधार दे दिया करते थे। जब माधव की स्त्री यहाँ आई थी, इस खानदान की व्यवस्था कुछ ठीक हुई थी। वह पिसाई कर और घास छीलकर एक सेर आटे का प्रबन्ध कर लेती और इन निकम्मों का पेट भरती घीसू और माधव अकड़ने लगे थे, जब कोई काम पर बुलाता, वे दूनी मजदूरी माँगते थे। आज वही औरत प्रसव-वेदना से मर रही थी और वे दोनों उसके जल्दी से मर जाने के इन्तजार में थे। आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डालकर सो रहे । सवेरे माधव जब कोठरी में गया, तो उसने स्त्री को मरा पाया। माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। दोनों हाय-हाय करके छाती पीटने लगे। पड़ौसी आकर मर्यादा के अनुसार उनको समझाने लगे।
लाश के क्रिया-कर्म के लिए बाप-बेटे कफन के प्रबन्ध के लिए कुछ रुपये माँगने के लिए गाँव के जमींदार के पास पहुँचे। वह इनकी सूरत से नफरत करता था। परन्तु इस पवित्र काम का उद्देश्य समझते हुए उसने दो रुपये निकालकर फेंक दिये। गाँव के बनिये एवं महाजन से भी कुछ प्राप्ति हो गई। हौले-धीरे करते हुए पाँच रुपये की अच्छी रकम हो गई कहीं से अनाज और कहीं से लकड़ियाँ भी मिलीं। इसके पश्चात् दोनों किसी दैवी-प्रेरणा से मधुशाला में जा पहुँचे। घीसू ने शराब की एक बोतल ली। कुछ चिरौना और तली हुई मछलियाँ भी आई। पीने के पश्चात् घीसू ने कहा-'कफन लगाने से क्या मिलता ? आखिर कफन जल ही जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता ।'
उनको शव के अन्तिम संस्कार की भी चिन्ता नहीं रहती वे लोगों को जबाव देने के लिए भी सोच लेते हैं—“कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये वहीं लोग फिर रुपया देंगे।” पूरी बोतल समाप्त करके बाप-बेटे दोनों नशे में डूब गये। दोनों खड़े होकर गाने लगे-“ठगनी क्यों नैना चमकावे । ठगनी !” अन्य पियक्कड़ों की आँखें इन्हीं की ओर लगी हुई थीं। दोनों उछल-कूद कर नाच-गा रहे थे। अन्त में नशे में बेहोश होकर वहीं गिर पड़े।
'कफन' अपने गहन अर्थों में बुधिया के कफन की कहानी नहीं, मानवीयता और भूत नैतिक-बोध के कफन की कहानी है, उस हताशा की कहानी है जो मनुष्य को अस्तित्व के आदिम स्तर पर ले जाती है और हर अच्छे-बुरे का लोप हो जाता है। बुझे हुए अलाव मरती हुई बुधिया और कफन बेचकर शराब पीते पिता-पुत्र पृष्ठभूमि में वह समाज-व्यवस्था जो इस सबके लिये उत्तरदायी है। प्रेमचन्द ने प्रस्तुत कहानी बड़े संयम, सहानुभूति और सूक्ष्मता से लिखी है।
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