मार्क्स का मानना था कि कला और साहित्य समाज का ही एक हिस्सा हैं और वे सामाजिक परिवर्तन और वर्ग संघर्ष को प्रभावित करते हैं।कला केवल मनोरंजन का माध्यम न
कार्ल मार्क्स का काव्य सिद्धान्त
सच्ची कला अनुकरण नहीं करती, वरन् जीवन-सम्बन्धी नियमों का अध्ययन करके और मानव की सर्वश्रेष्ठ शारीरिक विशेषताओं को उजागर करके जीवन का पुनर्निर्माण करती है। इस दृष्टिकोण से ही कला में जो विषय और वस्तु सौन्दर्यमूलक यथार्थता, सौन्दर्य और असौन्दर्यगत तत्त्वों का सह-अस्तित्व एवं उनकी प्रतिक्रिया, कला और जीवन के रूपों के सम्बन्ध, कलात्मक बिम्ब का सर्जन, कलाकृति में लेखकों की भूमिका और कलात्मक साधनों की अभिव्यक्ति सम्बन्धी प्रश्न उपस्थित होते हैं, उनका समाधान किया जा सकता है।" - मिखाइल कुझनेत्सोव
कार्लमार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद वह जंगम तीर्थराज प्रयाग है, जहाँ पर सौन्दर्य, जीवन-जगत् और साहित्य की त्रिवेणी साकार हुई है। यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद उनके आर्थिक, राजनैतिक और साहित्यिक विचारों का केन्द्र-बिन्दु है, जहाँ से उन्होंने लोक-जीवन-सम्बन्धी अपने विचार निःसृत किये हैं। उनका काव्य-कला सम्बन्धी सिद्धान्त मानव सभ्यता, संस्कृति को समझने का हिमायती है। उन्होंने साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब माना। समाज में जो घटित होता है, साहित्यकार पूर्वाग्रह से मुक्त हो उसका यथावत् चित्रण करता है। साहित्य में सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित करने की शक्ति विद्यमान होती है। अतः साहित्य सामाजिक परिवर्तन का एक अचूक साधन है। मार्क्स के शब्दों में- "The production in material life determines the social, political and intel- lectual life-processes in general. It is not the consciousness that determines their being but on the cortrary their consciousness is determind by outer and wordly situations."
यहाँ पर ध्यातव्य है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को ही मूल में रखकर उन्होंने सौन्दर्यशास्त्र, जीवन-जगत् और साहित्य का विश्लेषण किया है। अस्तु सर्वप्रथम हम उनके द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे। तत्पश्चात् उनके काव्य-सम्बन्धी दृष्टिकोण को, ताकि काव्य-कला सम्बन्धी दृष्टिकोण को भली-भाँति समझा जा सके।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद नामक पदावली में जहाँ 'द्वन्द्व' एक चिन्तन प्रणाली है तो भौतिकवाद एक दार्शनिक विचारधारा। इस विचारधारा में यह मानकर चला गया है कि प्रत्येक वस्तु गतिशील और परिवर्तनशील है। इन वस्तुओं के मूल में अन्तर्विरोध समाहित है और इन अन्तर्विरोधों के कारण ही समाज और सभ्यता का विकास होता है; जैसा कि लेनिन ने कहा है कि- 'Development is the struggle of opposits.'
मार्क्स का विचार था कि इस द्वन्द्वात्मकता के सहारे जीवन-जगत् एवं समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। दो परस्पर विरोधी तथ्य आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया करके एक दूसरे से प्रतियोगिता करने की होड़ में आगे निकल जायेंगे, जिसके परिणामस्वरूप मानव और समाज का विकास होगा। साथ ही साथ यह विकास अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में होकर क्रमश: गुणात्मक परिवर्तन की क्रान्ति उत्पन्न करता है। इसी द्वन्द्वात्मक प्रवाह में साहित्य, समाज व देश-काल की विभिन्न परिस्थितियों का अध्ययन किया जा सकता है। अतः द्वन्द्वात्मकता और भौतिकता एक दूसरे के पूरक हैं।
समाज के धर्म, दर्शन, कला, अर्थ, राजनीति और साहित्य आदि के विभिन्न क्षेत्रों में कुछ न कुछ भिन्न दृष्टिकोण होता है, पृथक् मान्यताएँ होती हैं। यही दृष्टिकोण समाज की विशिष्ट संरचना का निर्माण करता है। मार्क्स की मान्यता है कि मानव में जो परिवर्तन होते हैं, वे ऐसे तत्त्वों के कारण होते हैं, जो जैविक तत्त्व न होकर उनसे पृथक् हैं और ये ही तत्त्व अन्य तत्त्वों को प्रभावित कर परिवर्तन करते हैं। साहित्य के इतिहास का अध्ययन वास्तव में इसी परिवर्तन का परिणाम है।
इस प्रकार मार्क्सवाद भौतिकवाद का एक विशिष्ट रूप है, जो सृष्टि का मूल सत्य पदार्थ को मानता है, क्योंकि भौतिकवादी पदार्थों के द्वारा ही जीवन का विकास सम्भव हुआ है। उनके अनुसार चेतन-जीवन का विकास पदार्थ की संयोगात्मक एवं विश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं के द्वारा सम्भव हुआ है।
मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचार
कार्लमार्क्स के कला एवं साहित्य सम्बन्धी विचार आर्थिक दृष्टिकोण से प्रभावित हैं। कवि एवं कलाकार एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश उसको प्रभावित किये विना नहीं रह सकता है। अतः उसकी रचनाएँ भी इससे प्रभावित हुए विना नहीं रह सकती हैं। इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि साहित्य एक निरपेक्ष सत्ता न होकर समाज की अर्थव्यवस्था से ही नियमित एवं संचालित होने वाली सापेक्ष सत्ता है। भौतिक जीवन की पद्धति से जीवन की सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रियाओं का विकास होता है। भौतिक जीवन में परिवर्तन होने के साथ विचारों और उसके परिणाम में भी परिवर्तन होते हैं। अस्तु, मार्क्स का कहना है- "मनुष्य जीवन का अस्तित्व उसकी चेतना से निर्धारित नहीं होता, वरन् जीवन उसकी चेतना को निर्धारित करता है।"
मनुष्य स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करता है। किसी सामूहिक संकल्प अथवा सामूहिक योजना के आधार से किसी नियम-निर्दिष्ट समाज में वह ऐसा नहीं करता। उसके प्रयत्न परस्पर टकराते रहते हैं और इसी कारण इस प्रकार के समस्त समाज आवश्यकता से परिचालित होते हैं जिसका नाम है आर्थिक आवश्यकता।'
मार्क्सवादियों का मत है कि कलावादी प्रवृत्ति वहीं उत्पन्न होती है जहाँ कलाकार का अपना सामाजिक वातावरण के साथ असामंजस्य है। इसीलिए उन्होंने कला के लिए कला सिद्धान्त का विरोध किया। मार्क्स की कला-विषयक मान्यता के सम्बन्ध में जार्ज रैवी का कथन है- "किसी कलाकृति की सबसे बड़ी कसौटी है कि वह पाठकों को बुद्धिगम्य हो सके और उत्कट आकांक्षा इसमें प्रतिबिम्बित हो। चित्रकला और साहित्य का विषय सर्वप्रथम मानव होना चाहिए जहाँ कि मानवीय भावावेग सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ नियत हों। हम मनुष्य को उसके वातावरण से दूर नहीं कर सकते, उसके आध्यात्मिक गुणों और समाज के क्रम में जिसने उसका निर्माण किया है- घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसे ही मानववाद कहते हैं, जिसमें नयी समाज- व्यवस्था में नये मानव के गुणों और आध्यात्मिक मूल्यों पर जोर दिया गया है।"
मार्क्स ने कला-सृजन को व्यक्तिगत चेतना का परिणाम न मानकर सामाजिक चेतना का प्रतिफल माना है। उनके अनुसार साहित्य समाज का दर्पण है। कलाकार या साहित्यकार सामाजिक व आर्थिक घटनाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। साहित्य की अप्रत्यक्ष शक्ति से ही सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित होती है। साहित्य की एक हुंकार से जीर्ण-शीर्ण मान्यताएँ धूल-धूसरित हो जाती हैं। साहित्य की इसी शक्ति से परिचित होने के कारण ही पूँजीपति साहित्य का संचालन इस तरीके से करते हैं कि शोषण एवं प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियाँ संवर्द्धित हो सकें। जबकि साहित्यकार इसका उपयोग समाज में व्याप्त तमाम प्रकार की विसंगतियों, अव्यवस्थाओं और अत्याचारों के विरुद्ध क्रान्ति की अवतारणा करने के लिए करते हैं।
मार्क्स का मानना था कि धर्म और दर्शन ये दोनों मनुष्य को और समाज को बहकाने का कार्य करते हैं। उन्होंने साहित्य के आर्थिक और सामाजिक पक्ष पर ही बल दिया है। आर्थिक व्यवस्था ही समाज एवं सभ्यता का निर्माण करती है तथा अर्थव्यवस्था ही समाज की भित्ति है और उसी पर सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य के भवन का निर्माण होता है- "The economic structure of society always froms the real basis from which on the last analysis is to be explained the whole super structure of legal and political institutions, as well as of religious and philosophical conceptions of each historical evolution."
मार्क्स के अनुसार किसी पदार्थ अथवा घटना से प्रभावित होकर मनुष्य एक विशिष्ट आनन्द या (सौन्दर्य) का अनुभव करता है। मानव की परिस्थितियाँ और कार्य ही वे महत्त्वपूर्ण घटक हैं जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि कौन-से पदार्थ और घटना में उसे आनन्द या सौन्दर्य मिलता है। मनुष्य की सौन्दर्य के प्रति रुचि उसके स्वभाव से ही आँकी जा सकती है। उनके शब्दों में, 'किसी रूप को तभी सुन्दर कहा जायेगा, जब वह किसी धारणा पर आधारित हो। क्या विना समझ-बूझ वाले चेहरे को सुन्दर कहा जा सकता है? ' गोर्की का इस सम्बन्ध में कहना है कि- “सौन्दर्य-कल्पना, जो सौन्दर्य का स्रोत है न प्रकृति है न ईश्वर और न कोई बाह्य जगत, किन्तु वह मानव और उसका सर्जनात्मक क्रिया-व्यापार है, जिसने सौन्दर्य के नियम के अनुसार दुनिया को बदल दिया है।"
कार्लमार्क्स के परवर्ती मार्क्सवादियों ने न केवल विशुद्ध सिद्धान्त-प्रचार की चेष्टा की अपितु साहित्य के कुछ निश्चित प्रतिमान भी स्थापित किये। उन्होंने साहित्य के दो आदर्श प्रतिमान निर्धारित किये, जो कि निम्नवत् हैं-
- साहित्य में वर्ग संघर्ष एवं आदर्शात्मक समाज की परम्पराओं के विरुद्ध क्रान्ति का उद्घोष करना- साहित्य में वर्ग संघर्ष एवं आदर्शात्मक समाज की परम्पराओं के विरुद्ध सुझाव देते हुए कहा गया है कि- Literature cannot be a means of enriching individuals or groups. It can not infact be an individual undertaking, independent of the common cause of the proleteriate. Down with non-partisan writers, Down with superman- literature must become a component part of the organised, planned, unified, socialist party work.'
- कला के प्रति नियतिवादी धारणा को मान्यता देना और यह बतलाना कि कलाकारों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति से कला किस प्रकार प्रभावित होती है।
इस प्रकार मार्क्सवादी विचारकों, जैसे लेनिन, प्लेखोनेव, जोसेफ रेवी, त्रातस्की, राल्फ़ फ़ाक्स एवं क्रिस्टोफर कॉडवेल आदि ने साहित्य एवं समाज को कार्यकारण भाव से सम्बन्धित मानते हुए कला के लिए सैद्धान्तिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किये। उन्होंने कला एवं साहित्य में काव्यगत सत्य को अनिवार्य रूप से सामाजिकता से सम्बद्ध कर पूँजीवादी प्रवृत्तियों का विरोध किया। साहित्य में वर्ग-संघर्ष एवं श्रमिक वर्ग की अनुभूति को उन्होंने महत्त्वपूर्ण माना। इस प्रकार मार्क्सवादी विचारक कला को एक सामाजिक कृति मानते हैं।
मार्क्सवाद और लोकमंगल की कामना
मार्क्सवादी दृष्टिकोण लोक-मंगल की कामना से ओत-प्रोत है। उनकी मान्यता है कि वही साहित्य एवं कला समाज के लिए उपयोगी है, जो लोक-कल्याणार्थ रचे जाते हैं। जिनमें लोक-मंगल के स्वर नहीं गूँजते वे काव्य निरर्थक और निष्प्रयोज्य हैं। वही काव्य श्रेष्ठ है, जिनमें शोषण एवं विषमता से मुक्त वर्गहीन साम्य-मूलक समाज के निर्माण की प्रेरणा निहित होती है। कार्लमार्क्स साहित्य का प्रधान लक्ष्य शिक्षा देना, उपदेश देना मानते हैं। वे काव्य में अभिव्यंजना के स्थान पर प्रेषणीयता और आनन्द के स्थान पर कल्याण को प्रयोजन के रूप में स्वीकार करते हैं। मार्क्सवादी साहित्यकार अपने को जन-जीवन से संम्पृक्त किये रहता है तथा सिद्धान्तों की सीमाओं में आबद्ध करके ही रचना करने की प्रेरणा देता है। मार्क्सवादी विचारधारा का पोषक समीक्षक किसी भी रचना का मूल्यांकन सामाजिक प्रगति के संदर्भ में करता है। साहित्य का मुख्य गुण जनकल्याण ही मानता है।
कला एवं कलाकार की स्वतन्त्रता
मार्क्सवादियों की मान्यता है कि वैयक्तिक स्वतन्त्रता भ्रमपूर्ण है। अतः कलाकार की स्वतन्त्रता भी महत्त्वहीन है। उनका विचार है कि न व्यक्ति कभी स्वतन्त्र होता है और न उसकी इच्छाएँ ही स्वतन्त्र होती हैं। मनुष्य तो परिस्थितियों का दास होता है। जिस वातावरण में मानव रहता है उसी के अनुसार उसकी स्थिति भी होती है। समाज से सम्बद्ध होने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण भी समाज में होता है। साहित्य में सामाजिक अनिवार्यता का मूल्यांकन वे जनवादी धरातल पर करना चाहते हैं, क्योंकि कला का कार्य सम्पूर्ण जीवन एवं परिवेश का मूल्यांकन कर उसकी व्याख्या करना है। वे जीवन से आँख बचाकर नहीं जाना चाहते हैं, बल्कि जीवन को उसकी पूर्णता में रागात्मक निरीक्षण और अनुभूति का विषय बनाकर कलाकार के काम को सम्वर्द्धित कराना चाहते हैं। मार्क्सवाद की इस विचारधारा पर टिप्पणी करते हुए डॉ. देवराज कहते हैं कि- "जहाँ तक मार्क्सवाद कतिपय महत्त्वपूर्ण वास्तविकताओं की ओर हमारा ध्यान ले जाता है, वहाँ तक दृष्टि-प्रसारक होने के कारण, वह ग्राह्य है। इसके अतिरिक्त वाद के रूप में वह कलाकार की दृष्टि को सीमित या बद्ध करेगा, ऐसी आशंका है। मार्क्सवाद का अनुयायी बनकर जो कलाकार प्रकृति दाम्पत्य-जीवन एवं माँ और शिशु के सम्बन्ध में सौन्दर्य को देखने से इंकार करेगा, वह स्वयं अपनी दृष्टि में कला के उन्मेष में बाधक होगा। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पीड़ित मानवता के क्रन्दन की ओर से नेत्र और कान मूँदकर हम सभ्यता और कला का कोई उत्कर्ष नहीं कर सकते।"
काव्य और मार्क्सवादी समीक्षा
हिन्दी साहित्य में मार्क्सवादी समीक्षा कार्लमार्क्स के विचारों से ही अनुप्रेरित है। मार्क्सवादी समीक्षा-पद्धति किसी रचना के कलात्मक सौन्दर्य को उसकी समग्रता में देखती है। कवि की दृष्टि से रचना की समग्रता और सम्पूर्णता को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है। वह साहित्य के उन्हीं तत्त्वों को ग्राह्य समझती है, और उन्हीं की समीक्षा करती है जो जनवादी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो। मार्क्सवादी समीक्षा के स्वरूप का निर्धारण करते हुए डॉ. भगवत्स्वरूप मिश्र ने लिखा है- "मार्क्सवादी जीवन-शक्तियों के आधार पर कलाकृति की श्रेष्ठता स्वीकार करता है। इससे स्पष्ट है कि उसके मूल्यांकन का आधार बौद्धिक है, पर यह मान लेना कि मार्क्सवादी आलोचक काव्य में भाव तत्त्व की आवश्यकता नहीं समझते, आलोचना के वास्तविक स्वरूप को न समझना मात्र है। कला का प्रभाव बुद्धि पर ही नहीं अपितु हृदय पर भी पड़ता है। भाव, संवेदना और शैली की सजीवता के कारण एक कलाकृति अपेक्षाकृत कम गम्भीर और उलझे हुए बुद्धि तत्त्व के साथ भी, संवेदन तत्त्व की अपेक्षा प्रौढ़ बुद्धितत्त्व वाली कलाकृति से कहीं उत्कृष्ट मानी जायेगी।"
इस प्रकार यह विचार साहित्य के ऐतिहासिक तथा गतिशील पक्ष के सम्बन्ध का उद्घाटन करता है।उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि मार्क्सवादी सौन्दर्य-दृष्टि स्पष्टतः जनाधारित है। वह 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्' में से सत्य व शिव पक्ष को स्वीकार करती है और सुन्दर की उपेक्षा कर देती है। कलाकार अपने युग का पूर्ण प्रतिनिधि होता है। उसमें अनुभूति की गहराई और व्यापकता दोनों ही गुणों का समावेश होता है। उसकी वाणी में युग के सम्पूर्ण संघर्ष, राग-विराग मूर्तिमान् होकर बोलते हैं। मार्क्सवाद पर विचार करते हुए मैक्सिम गोर्की ने लिखा है कि - "समाजवादी यथार्थवाद का समर्थक लेखक मानव को किसी चित्रकार की भाँति निश्चल रूप में चित्रित नहीं करता। वह उसे सतत गतिशील, क्रियाशील तथा आपस में अंतहीन संघर्ष, वर्ग संघर्ष, दल-गत संघर्ष और व्यक्तिगत संघर्ष में जुटा हुआ चित्रित करता है।"
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