काव्य में बिम्ब का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व

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काव्य में बिम्ब अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएँ और महत्व बिम्ब काव्य की एक अत्यंत महत्वपूर्ण अलंकारिक युक्ति है जो पाठक के मन में एक स्पष्ट चित्र उत्पन्

काव्य में बिम्ब का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व


बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में पाश्चात्य देशों-अमेरिका एवं इंग्लैण्ड में बिम्बवादी आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन रोमैण्टिक आन्दोलन की अतिशयता के विरुद्ध हुआ। कुछ आलोचकों ने बिम्बवाद को प्रतीकवाद का ही विकसित रूप माना है, जबकि ऐसा नहीं है। क्योंकि बिम्बवाद के मूल में बिम्ब शब्द विद्यमान है। सामान्यतः किसी पदार्थ की मानसिक प्रतिकृति ही उसका बिम्ब है। यह एक ऐसा शब्द है, जो भावों को मूर्त रूप प्रदान करता है। पाश्चात्य विचारकों ने इस सन्दर्भ में कहा है कि यदि कल्पना काव्य की मूल शक्ति है, तो उसका मुख्य कार्य है काव्य में बिम्ब का विधान । बिम्ब-विधान वस्तु, व्यक्ति, भाव, विचार, रूप, गुण आदि को इन्द्रियगोचर बनाने के लिए स्पष्ट सम्प्रेषक अप्रस्तुत-विधान के उपयोग की प्रणाली है।
 

बिम्ब का स्वरूप

बिम्ब शब्द अँगरेज़ी शब्द 'इमेज' का समान्तर है, जिसका अर्थ है किसी अमूर्त पदार्थ को समूर्त बनाना, चित्रबद्ध करना अथवा प्रतिबिम्बित करना। कहा जा सकता है कि किसी वस्तु, भाव अथवा विचार का इन्द्रियग्राह्य शब्दचित्र बिम्ब है। "हिन्दी आलोचना में सर्वप्रथम इसका प्रयोग आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के द्वारा हुआ और काव्य में प्राकृतिक दृष्टि के अन्तर्गत इसकी विवेचना की गयी। हिन्दी में सर्वप्रथम यह रूप-विधान और चित्र- विधान के समकक्ष माना गया। इस प्रकार रूप और चित्र के लिए नया ग्रहण किया गया शब्द बिम्ब है। अँगरेज़ी कोशों के आधार पर बिम्ब का प्रयोग सहज स्मृति, मानसिक प्रतिबिम्ब, कल्पनाप्रतिचिह्न, पदार्थ की प्रकृति के अर्थ में ग्रहण किया हुआ, आदि अर्थों में हुआ है। इस प्रकार शुद्ध बिम्ब का अर्थ मात्र मानसिक मूर्ति या अमूर्त की कल्पना या परिकल्पना है। इसे छवि और रूप या प्रतिरूप भी कहा जा सकता है।" बिम्ब का स्वरूप निर्धारित करते हुए स्टेपेन जेकी ब्राउन ने कहा है कि-"साहित्य में बिम्ब का तात्पर्य कलाकार की उस क्षमता से है, जिसके सहारे बीती हुई घटनाओं और विषयवस्तु के रंग, ध्वनि, आकार-प्रकार सहित देशकाल-परिस्थिति को ध्यान में रखकर शब्द-चित्रों में गृहित कर लेना है और यह शब्द-चित्र ठीक उस प्रकार का होता है, जैसे उस घटना या वस्तु का स्वरूप था।" डॉ. ओमप्रकाश अवस्थी ने अपनी पुस्तक 'नयीकविता : रचना प्रक्रिया' में बिम्ब के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "बिम्ब इन्द्रियजनित संवेदनाओं की कल्पनात्मक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार वह मूर्त-अमूर्त किसी भी प्रकार की हो सकती है। अनुभव की इन्द्रियगम्य चेतना जितनी ही मुखर होगी, उस इन्द्रिय का बिम्ब उतना ही सशक्त होगा।" 

बिम्ब की परिभाषा

बिम्ब के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं। उनमें से कुछ प्रमुख विचार निम्नवत् हैं-

डॉ. नगेन्द्र-
"काव्यबिम्ब शब्दार्थ के माध्यम से कल्पना द्वारा निर्मित एक ऐसी मानस- छवि है, जिसके मूल में भाव की प्रेरणा रहती है। "
 
डॉ. केदारनाथ सिंह- "बिम्ब वह शब्द-चित्र है जो कल्पना के द्वारा ऐन्द्रिय अनुभवों के आधार पर निर्मित होता है।"
 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - "कविता में कही गयी बात चित्र-रूप में हमारे सामने आनी चाहिए, कविता में यह विशेषता बिम्ब-योजना द्वारा ही आती है।"
 
सुमित्रानन्दन पन्त - "कविता के लिए चित्रभाषा की आवश्यकता पड़ती है, उसके शब्द. सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, सेब की तरह जिसके रस की मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े, जो अपने भाव को अपनी ही ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सके, जो झंकार में चित्र और चित्र में झंकार हो।"
काव्य में बिम्ब का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व
 
एजरा पाउण्ड - "कवि द्वारा जीवन में अनेक ग्रन्थों का निर्माण करने की अपेक्षा केवल एक सफल बिम्ब का सृजन कहीं अधिक श्रेष्ठ है ।"
 
आई. ए. रिचर्ड्स- "बिम्ब एक दृश्य-चित्र, संवेदना की एक अनुकृति, एक विचार, एक मानसिक घटना, एक अलंकार अथवा दो भिन्न अनुभूतियों के तनाव से बनी एक भाव-स्थिति, कुछ भी हो सकता है।

पाश्चात्य समीक्षक लेविस - प्रवृत्तियाँ आती हैं, चली जाती हैं, भाषा परिवर्तित होती रहती है। यहाँ तक कि तात्त्विक विषय-वस्तु तक उबल सकती है, किन्तु बिम्ब काव्य के प्राणतत्त्व के रूप में बना रहता है। यही बिम्ब काव्य की कसौटी तथा कवि की कीर्ति का आधार है। " 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि बिम्ब एक प्रकार का शब्द-चित्र है, जिसका निर्माण कल्पना के द्वारा होता है तथा उसके निर्माण के लिए ऐन्द्रिय अनुभव का होना अत्यन्त आवश्यक है। बिम्बों में रेखाओं एवं रंगों के साथ-साथ भाव भी समायोजित रहता है। यदि बिम्ब भावों को आन्दोलित करने में सक्षम नहीं हैं, तो वे कितने ही सुन्दर क्यों न हों, उन्हें सफल बिम्ब की संज्ञा नहीं दी जा सकती। एक पाश्चात्य विचारक ने लिखा है कि “बिम्ब मात्र सज्जा नहीं बल्कि सहज भाषा में भावमय चित्र होता है।" अर्थात् काव्य-बिम्बों में जीवन्तता का होना आवश्यक है, जीवन्तता के द्वारा ही बिम्ब के आकार-प्रकार पूर्णतया स्पष्ट होते हैं। तभी सहृदय सामाजिक उनका विधिवत् साक्षात्कार कर पाता है। बिम्ब के तत्त्वों के संदर्भ में विद्वानों में मतभेद हैं। डॉ. देवीशरण रस्तोगी ने कल्पना, भाव एवं ऐन्द्रियता नामक बिम्ब के तीन तत्त्व बतलाये हैं, तो डॉ. शान्तिस्वरूप गुप्त ने बिम्ब के सात तत्त्वों की ओर संकेत किया है, यथा- वस्तुनिष्ठता, ऐन्द्रियबोध, भावोद्रेक, स्मृति, कल्पनाशीलता, संवेग-संकुलता तथा भाषाधिकार ।

काव्य में बिम्ब की विशेषता

एक सफल एवं सार्थक बिम्ब में कुछ गुणों का होना आवश्यक है, तभी वह सहृदय सामाजिक को भावबोध कराने में सफल हो सकता है। कुछ प्रमुख गुण निम्नवत् हैं : 
  1. बिम्बों में नवीनता होनी चाहिए। नवीनता के अभाव में काव्य में प्रयुक्त बिम्ब सामाजिक को आह्लादित नहीं कर सकते। पुराने घिसे-पिटे और रूढ़ बिम्ब अपनी आकर्षण क्षमता कम कर देते हैं। बदलते हुए जीवन-मूल्य, नवीन सन्दर्भ, जनजागरण के नये पहलू आदि इस बात की अपेक्षा करते हैं कि कविता में नये बिम्बों का समावेश हो। 
  2. बिम्ब विषयानुकूल होने चाहिए। विषयानुकूल न होने की स्थिति में बिम्ब सफल नहीं कहे जा सकते। 
  3. बिम्बों में अर्थ-गाम्भीर्य का होना आवश्यक है। बिम्ब-विधान वह तत्त्व है जिसके माध्यम से कवि संक्षिप्त शब्दावली के द्वारा बड़े-से-बड़े अर्थ को व्यक्त कर देता है। 
  4. बिम्बों में भावोत्तेजन की शक्ति अथवा उद्बोधनशीलता का होना आवश्यक है। इसी के माध्यम से कवि अपने अन्तःकरण में उबुद्ध भावों को सामाजिक के अन्तःकरण तक सम्प्रेषित करता है।
  5. बिम्बों में ताजगी का होना आवश्यक है। इसके लिए कवि की भाषा-शैली ऐसी हो कि पाठक को चमत्कृत कर दे। 
  6. बिम्ब स्वाभाविक होने चाहिए। उनमें कृत्रिमता न हो, अन्यथा वे स्थायी प्रभाव डालने में असमर्थ रहेंगे।
 
बिम्ब के कुछ अन्य आवश्यक गुण निम्नवत् हैं- 
1. समृद्धि 
2. औचित्य 
3. तीव्र भावोद्रेक 
4. उर्वरता 
5. संगति ।
 
बिम्बों का वर्गीकरण अनेक आधारों पर किया गया है, यथा- 
1. ज्ञानेन्द्रियों पर आधारित संवेद्य बिम्ब- चाक्षुष, श्रौत, स्पर्शिक, घ्राण्य तथा आस्वाद्य । 
2. सृजन प्रेरणा पर आधारित बिम्ब- कल्पित बिम्ब, स्मृत बिम्ब । 
3. काव्यार्थ पर आधारित बिम्ब-सरल बिम्ब, संश्लिष्ट बिम्ब । 
4. अनुभूतिपरक बिम्ब- विवृत बिम्ब, संवृत बिम्ब । 
5. काव्य पर आधारित बिम्ब- वस्तुपरक बिम्ब, स्वच्छन्द बिम्ब । 
6. अभिव्यंजना पर आधारित बिम्ब- प्रत्यक्ष बिम्ब, अलंकृत बिम्ब । 
7. अन्य दृष्टि से- घटना-बिम्ब, प्रकरण-बिम्ब ।
 
उपर्युक्त बिम्बों के अतिरिक्त बिम्बों के और भी अन्य भेद हो सकते हैं। विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से बिम्बों के भेद बतलाये हैं। 

काव्य में बिम्बों का महत्त्व

काव्य-सृजन की पृष्ठभूमि में बिम्ब का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह कवि अन्तःस्थल में स्थित भावों को कुरेद कर उन्हें जगाने का काम करता है। कवि के अन्तःस्थल में जो भाव स्थित होते हैं, उनको वह बिम्बों के माध्यम से ही सहृदय सामाजिक के मानस पटल पर ज्यों का त्यों उतारने में सफल होता है। इस तरह काव्य-बिम्ब एक ओर कवि की अनुभूतियों को मूर्त रूप प्रदान कर उन्हें उबुद्ध करने का काम करते हैं तथा दूसरी ओर सहृदयों द्वारा की जाने वाली रसानुभूति में भी सहायक होते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है कि काव्य में मात्र अर्थग्रहण से काम नहीं चलता बल्कि बिम्बग्रहण की भी आवश्यकता होती है। स्पष्ट है कि बिम्ब अन्तःस्थल में स्थित संवेदनाओं को जाग्रत कर उन्हें तीव्रता प्रदान करते हैं। पाश्चात्य विचारक आई. ए. रिचर्ड्स ने ठीक ही लिखा है कि "बिम्ब का महत्त्व इसलिए है कि यह संवेदना का प्रतिनिधित्व करता है।" बिम्ब-विधान के महत्त्व को वर्णित करते हुए श्री रामधारी सिंह दिनकर ने भी कहा है कि "चित्र कविता का एक आवश्यक गुण है। प्रत्युत कहना चाहिए कि यह कविता का एक मात्र शाश्वत तत्त्व है, जो उससे कभी छूटता नहीं।"
 
बिम्ब काव्य के लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि वे काव्य में निहित अमूर्त भावों को मूर्त रूप प्रदान कर उन्हें हृदयग्राही बना देते हैं। इसी को आधार मानते हुए पाश्चात्य विचारक जी. ह्वेले ने बिम्ब को परिभाषित किया है, यथा- "अमूर्त भावों के अभिव्यक्त मूर्त रूप को बिम्ब कहते हैं।" बिम्ब सामाजिक के लिए प्रभावात्मकता की सृष्टि करता है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की ये पंक्तियाँ इस दृष्टि से अत्युत्तम बन पड़ी हैं- 

वह आता 
दो टूक 
कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता। 
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, 
चल रहा लकुटिया टेक 
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को 
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता । 

अन्ततः स्पष्ट है कि कठिन से कठिन भावों को भी सहृदय सामाजिकों तक सहजतापूर्वक पहुँचाने में बिम्ब-विधान बड़ा ही सहयोगी होता है। बिम्बविधान से कवि के भावात्मक एवं रागात्मक सम्बन्धों का प्रकाशन भी होता है। इस तरह सफल काव्य के लिए बिम्ब आवश्यक हैं लेकिन जब काव्य का उद्देश्य बिम्ब-रचना ही मान लिया जाता है, तब काव्य की अर्थ-भूमि संकुचित होने लगती है और वह अपने वास्तविक लक्ष्य से विरत हो जाता है। फिर भी काव्य को सरस एवं सहज बनाने में बिम्ब-विधान का अत्यधिक योगदान है।

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