आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि हिन्दी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल के साहित्यकारों एवं आलोचकों में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि
हिन्दी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल के साहित्यकारों एवं आलोचकों में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का स्थान सर्वप्रमुख है। द्विवेदी जी को हिन्दी नवजागरण के आलोक-स्तम्भ के रूप में स्वीकार किया जाता है। एक आलोचक के रूप में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन सर्वप्रथम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया। उन्होंने विषय-वस्तु के मूल्यांकन एवं विवेचन की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी के समालोचक व्यक्तित्व को महत्त्व नहीं दिया, फिर भी भाषा-परिष्कार की दृष्टि से उनकी पुस्तक-समीक्षा को अवश्य महत्त्व दिया।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की विक्रमांकदेवचरितचर्चा, नैषधचरितचर्चा, कालिदास की निरंकुशता आदि आलोचनात्मक कृतियाँ हैं। द्विवेदी जी खरे आलोचक थे। उनका महत्त्व भाषा-समीक्षक के रूप में ही अधिक मान्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनके संदर्भ में लिखा है कि “यद्यपि द्विवेदी जी ने हिन्दी के बड़े-बड़े कवियों को लेकर गम्भीर साहित्य-समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नयी निकली पुस्तकों की भाषा आदि की खरी आलोचना करके हिन्दी-साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया।"
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की समीक्षा पद्धति का विश्लेषण
भारतेन्दुयुग के पश्चात् आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य के अभावों की पूर्ति की दिशा में अग्रसर हुए। उन्होंने अपने विभिन्न ग्रंथों में कविता, कविता के विषय, कविता का अर्थ, भाषा, काव्य- प्रयोजन, छन्द आदि पर विधिवत् विचार किया है और अपने इस कार्य में वे पर्याप्त सफल भी हुए। परिणामतः साहित्यकार एवं सामाजिक दोनों ही उससे प्रभावित हुए। डॉ. भगवतस्वरूप मिश्र ने लिखा है कि "द्विवेदी -जैसे कठोर निरीक्षक के अभाव में रीतिकाल का गन्दा नाला अब तक बहकर सारे साहित्य को आप्लावित कर देता। द्विवेदी जी की आलोचना की मूल प्रेरणा सुरुचि और सत्साहित्य का निर्माण है।"
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की मान्यता है कि अन्तःकरण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है अर्थात् कविता में मानव-मन की विविध वृत्तियों का उद्घाटन एवं सद्वृत्तियों का विकास आवश्यक है। कविता की श्रेष्ठता का मूल्यांकन उन्होंने कविता से प्राप्त होने वाले आनन्द से किया है। साथ ही मिल्टन के इस मत का समर्थन भी किया है कि- "कविता सादी हो, जोश से पूर्ण हो और असलियत से भरी हो।" उन्होंने काव्य में यथार्थ अंकन को अभीष्ट बतलाया है, कपोल-कल्पना को नहीं; क्योंकि जिस कविता में मात्र कल्पना की ही अधिकता होगी तो स्वाभाविक रूप से ऐसी कविता न तो प्रेरणादायी हो सकती है, न तो संस्कार दे सकती है और न ही हमारी किसी समस्या का समाधान ही कर सकती है। कविता के स्वरूप पर विचार करते हुए द्विवेदी जी ने कवि के व्यक्तित्व पर भी विचार किया है। उनके अनुसार कवि में भावुकता, सात्विकता एवं सरल-हृदयता का होना आवश्यक है। उनका मानना है कि यदि कवि कविता के माध्यम से चाटुकारिता करता है, तो स्वाभाविक रूप से कविता का स्तर गिरेगा। सम्भवतः इसीलिए वे रीतिकालीन कविता की भर्त्सना करते हैं। उनके अनुसार काव्य कवि- व्यक्तित्व का ही परिणाम है; अर्थात् कवि या लेखक जैसा होगा ठीक उसी प्रकार की रचना होगी।
आचार्य द्विवेदी ने स्पष्ट लिखा है कि- "काव्य का समसामयिक सन्दर्भ से सम्पृक्त होना आवश्यक है। युग के आचार-विचार, रीति-नीति, रहन-सहन, प्रेरणा- प्रवृत्ति आदि का विरोध कविता में नहीं होना चाहिए।" उन्होंने यत्र-तत्र रूढ़ियों एवं परम्पराओं का खण्डन भी किया है। उनके अनुसार कविता और पद्य में अन्तर है। उन्होंने लिखा है कि " किसी प्रभावोत्पादक एवं मनोरंजक बात का नाम कविता है, पर नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है। वे कविता को छन्दोबद्ध होना आवश्यक नहीं मानते।
काव्य-भाषा पर विचार करते हुए द्विवेदी जी ने कहा है कि “काव्य की भाषा सरल, शुद्ध एवं प्रभावशाली होनी चाहिए। मुहावरों के प्रयोग से भाषा की प्रभविष्णुता में वृद्धि होती है। साथ ही भाषा के स्वरूप को उत्कृष्ट या निकृष्ट बनाना कवियों का काम है, इसलिए कवियों को अपने गम्भीर उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक रहना चाहिए, शब्दों के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के साहित्यकार एवं समीक्षक व्यक्तित्व पर विशेष विचार व्यक्त करते हुए डॉ. उदयभानु सिंह ने लिखा है कि "आलोचक द्विवेदी का सच्चा स्वरूप उनकी कृतियों के कतिपय संग्रहों में नहीं है, वह उस युग के साहित्य के साथ एक हो गया है; उन्होंने आलोचना को तप के रूप में स्वीकार किया। उनकी संहारात्मक समीक्षाओं ने लेखकों को सावधान करके, भाषा को सुव्यवस्थित करके हिन्दी-साहित्य की ईदृक्ता और इयत्ता को उन्नत करने की भूमिका प्रस्तुत की, साहित्यिक जगत् में जागृति उत्पन्न की, जिसके कारण ही आगे चलकर मननीय ठोस ग्रंथों की रचना हो सकी।"
उपर्युक्त मत से स्पष्ट है कि आचार्य द्विवेदी अपने समय के भाषा-व्यवस्थापक और साहित्य-जगत् में जागृति उत्पन्न करने वाले थे। इस जागृति के मूल में उनकी नवीन सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना एवं नवीन वैज्ञानिक चिन्तन था, जो हिन्दी नवजागरण के व्यापक परिप्रेक्ष्य में सामने आया। डॉ. रामविलास शर्मा ने इस संदर्भ में कहा है कि- “द्विवेदी जी की युगान्तरकारी भूमिका यह है कि उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से अनेक समस्याओं का विवेचन गहराई से किया।”
बुद्धिवादी और वैज्ञानिक विचार पद्धति के समर्थक
द्विवेदी जी अपने समय के सबसे बड़े बुद्धिवादी और वैज्ञानिक विचार-पद्धति के समर्थक थे। उन्होंने भाषा-परिमार्जन में व्याकरण के नियमों को अधिक महत्त्व दिया। इसका दुष्प्रभाव भी हुआ कि सर्जनात्मकता की संभावनाएँ क्षीण पड़ने लगीं। द्विवेदी जी के प्रभाव-क्षेत्र से पृथक का हिन्दी-साहित्य अधिक सर्जनात्मक कहा जाता है, लेकिन ये बातें अपने आप में पूर्णतया सत्य नहीं लगतीं। क्योंकि पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के दिशा-निर्देशन में रचनाकार्य करने वाले मैथिलीशरण गुप्त एवं पं. रामनेरश त्रिपाठी अपने समय के श्रेष्ठ रचनाकार माने जाते हैं। इन्हें काव्य-क्षेत्र में अंगुली पकड़ कर चलना द्विवेदी जी ने ही सिखलाया था। आचार्य शुक्ल ने द्विवेदी जी के महत्त्व हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में आये, जिनका प्रभाव गद्य-साहित्य एवं काव्य-निर्माण दोनों पर बहुत ही को स्वीकार करते हुए लिखा है कि- "बात यह है कि उसी समय पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य निर्माण के क्षेत्र मे आए जिसका प्रभाव हिन्दी गद्य और पद्य पर व्यापक पड़ा।" डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने द्विवेदी जी की महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि- "आचार्य द्विवेदी का स्वयं का रचनात्मक साहित्य चाहे विशेष महत्त्व का न हो, किन्तु सरस्वती के सम्पादक के रूप में उन्होंने जिस वैचारिक-सांस्कृतिक आधारभूमि का निर्माण किया, उसका महत्त्व निर्विवाद है।"
व्यावहारिक स्तर पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की दो समीक्षाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं- 'हिन्दी नवरत्न' और 'आजकल के हिन्दी कवि और कविता'। ये दोनों की समीक्षाएँ महावीरप्रसाद द्विवेदी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नैतिक आदर्श और परिष्कृत काव्य- संस्कार की परिचायक है। पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर या व्यक्तिगत रुचि के अनुसार कवि को छोटा या बड़ा कहना उनके अनुसार अनुचित था। 'हिन्दी नवरत्न' की भूमिका में उन्होंने ठीक इसी तरह की विचारधारा रखते हुए रीतिकालीन कवियों के सन्दर्भ में लिखा है कि- "पहले हम मतिराम को भूषण से श्रेष्ठ समझते थे, परन्तु कालान्तर में अपने इस विचार पर शंका होने लगी। हमने भूषण और मतिराम के एक-एक छन्द का अध्ययन किया; तब जान पड़ा कि मतिराम की प्रायः 10 या 12 कविता तो ऐसी रुचिकर है कि उनका सामना भूषण का कोई कवित्त नहीं कर सकता और उनके सामने देव के सिवा और किसी के कवित्त नहीं ठहर सकते, पर मतिराम के शेष पद्य भूषण के अनेक पद्यों के सामने ठहर नहीं सके। इस पर मतिराम और भूषण की तुलना करके हमने भूषण को श्रेष्ठ पाया।"
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उस कवि या उस साहित्य को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार क्रिया है, जिसमें उच्च भावों का उद्बोधन हो तथा जो देश व समाज हित की भावना से भावित हो। ऐसे साहित्य ही वास्तव में मानव-चरित्र का उन्नयन कर सकते हैं। द्विवेदी जी की यह दृष्टि ही उन्हें अपने युग के एक समर्थ समीक्षक एवं कुशल साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है। आगे चलकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल महान् आलोचक माने गये, किन्तु शुक्ल जी के आलोचना की आधारभूमि द्विवेदी जी ने ही तैयार की थी। क्योंकि आचार्य शुक्ल का लोकमंगल की साधना का सिद्धान्त द्विवेदी जी के देश, समाज, व्यक्ति एवं धर्म-हित के सिद्धान्त पर ही आधारित है।
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के शब्दों में "द्विवेदी जी का व्यक्तित्व मूलतः सुधारक और प्रर्वतक का व्यक्तित्व है। उन्होंने समस्त प्राचीन परम्परा को ताक पर रखकर नवीन अभ्यास और नये अनुभवों का रास्ता पकड़ा। हिन्दी की किसी भी प्राचीन परम्परा के वे कायल न थे। संस्कृत से उनका प्रेम अवश्य था, पर वह भी उतना ही जितना नवीन हिन्दी को स्वरूप देने के लिए आवश्यक था। इसीलिए द्विवेदी जी की शैली में सम्पूर्णत: नवीनता के दर्शन होते हैं।"
खड़ी बोली के विकास में अमूल्य योगदान
वास्तव में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी अपने युग की साहित्यिक सर्जना के प्रेरक, उन्नायक, विधायक एवं परिष्कारक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने खड़ी बोली के विकास में अपना अमूल्य योगदान किया। काव्य-भाषा एवं गद्य -भाषा में खड़ी बोली के महत्त्व को प्रतिपादित कर उन्होंने एक नवीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना को जन्म दिया। श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने आचार्य द्विवेदी के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि- "मेघ की तरह उन्होंने विश्व से ज्ञानराशि को संचित कर और उसकी वर्षा कर समग्र साहित्योद्यान को हरा-भरा कर दिया। वर्तमान साहित्य उन्हीं की साधना का फल है।" सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने भी द्विवेदी जी के युग-निर्माता व्यक्तित्व के संदर्भ में लिखा है कि- "खड़ी बोली के घट को साहित्य के विस्तृत प्रांगण में स्थापित कर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने मन्त्रपाठ द्वारा देश के नवयुवक समुदाय को एक अत्यन्त शुभ मुहूर्त में आमंत्रित किया और उस घट में कविता की प्राण-प्रतिष्ठा की। हिन्दी-साहित्य की वर्तमान धारा पूर्ण ज्ञान के महासागर की ओर जितना ही आगे बढ़ती जायेगी, लोग उतना ही उसके महत्त्व को समझेंगे।"
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि “आधुनिक हिन्दी आलोचना साहित्य के इतिहास की आधारभूमि आचार्य द्विवेदी ने ही तैयार की। उनकी रचनाओं में व्यावहारिक आलोचना को ही अधिक प्रश्रय मिलता है। सैद्धान्तिक आलोचना के क्षेत्र में उनका योगदान नगण्य रहा, फिर भी इनकी रचनाओं में भविष्य की हिन्दी सैद्धान्तिक आलोचना के कुछ ऐसे बीज अंकुरित हुए हैं, जिनका विकास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की सैद्धान्तिक आलोचना में उपलब्ध होता है। द्विवेदी जी ने हिन्दी कविता के सैद्धान्तिक पक्ष की ऊबड़-खाबड़ जमीन को समतल, सुन्दर और सुदृढ़ बनाया, तो शुक्ल जी ने उस समतल और ठोस भूमि पर हिन्दी-सैद्धान्तिक आलोचना की आधारशिला रखी।"
आलोचना का स्तर उपयोगितावादी
वास्तव में हिन्दी समीक्षा जगत् में महावीरप्रसाद द्विवेदी का योगदान अविस्मरणीय है। उनके विचारों में नवीनता, प्रगतिशीलता, विविधता, गाम्भीर्य और ओज का पुट है तथा विवेचन में गहन चिन्तन, मौलिकता, आत्मविश्वास और दृढ़ता का समावेश है। उनकी आलोचना का स्तर उपयोगितावादी है। डॉ. रामचन्द्र तिवारी का कथन है कि- "यदि पूरे युग के रचनाकर्म को दिशा देने के लिए वैचारिक आधार प्रस्तुत करना हो, रचनाओं को बँधी-बँधाई रूढ़ि-जर्जर परिपाटी से हटाकर नये पथ पर अग्रसर करना हो और पूरे युग के साहित्य-प्रवाह को एक व्यवस्थित लोकोपयोगी दिशा देनी हो तो वही करना होगा जो आचार्य द्विवेदी ने किया। वे विशिष्ट का विश्लेषण नहीं कर रहे थे, सामान्य को विशिष्ट की दिशा में अग्रसर कर रहे थे।"
COMMENTS