मिथक का अर्थ परिभाषा स्वरूप और महत्व मिथक एक ऐसा शब्द है जो हमारी संस्कृति और इतिहास में गहराई से रचा-बसा हुआ है। ये कहानियां, जो अक्सर देवताओं, नायक
मिथक का अर्थ परिभाषा स्वरूप और महत्व
मिथक एक ऐसा शब्द है जो हमारी संस्कृति और इतिहास में गहराई से रचा-बसा हुआ है। ये कहानियां, जो अक्सर देवताओं, नायकों और अलौकिक घटनाओं से जुड़ी होती हैं, सदियों से मानव सभ्यता का एक अभिन्न हिस्सा रही हैं।
वर्तमान में आलोचना के क्षेत्र में मिथक एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा के रूप में माना जा रहा है। पाश्चात्य आलोचना के अनुकरण पर भारतीय आलोचक मिथक को एक समीक्षा-प्रणाली के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, नृतत्त्वशास्त्र आदि सभी में मिथक एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा के रूप में स्थान बनाये हुए है। फलतः मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री, भाषाशास्त्री एवं समीक्षक आदि सभी इसके स्वरूप को स्पष्ट करने वाली धारणाएँ व्यक्त कर रहे हैं। अब तक मिथक के संदर्भ में जो भी धारणाएँ प्रकाश में आयी, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि मिथक अपने आप में पूर्ण समीक्षा-पद्धति तो नहीं, बल्कि समीक्षा- पद्धति का साधन अवश्य है।
मिथक का स्वरूप
मिथक शब्द हिन्दी में अँगरेज़ी के 'मिथ' शब्द से प्रचार में आया । अंगरेज़ी का 'मिथ' शब्द यूनानी के 'माइथोस' शब्द से विकसित हुआ। माइथोस का अर्थ है- अतर्कय आख्यान अर्थात् ऐसा आख्यान, जिसमें कोई तर्क न हो। इसी माइथोस का विलोम शब्द लागोस है। इसका अर्थ होता है- तार्किक संलाप । इस तरह मिथक शब्द का अर्थ हुआ- ऐसा आख्यान, जिसमें कोई तार्किक संगति न हो। लैटिन का मिथस् शब्द एवं जर्मन का मिथोस शब्द भी इसी अर्थ को व्यक्त करते हैं। दन्तकथा, पुराख्यान एवं पुराकथा आदि शब्दों को मिथक के पर्याय के रूप में जाना जाता है। आज मिथक शब्द अधिकाधिक समीक्षकों द्वारा स्वीकारा जा रहा है। साहित्य, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, नृतत्त्वशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में मिथक अपनी पहचान बनाये हुए है तथा समीक्षक-गण इसकी व्याख्या कर रहे हैं। वास्तव में मिथक मानव- सभ्यता के विकास की आदिम अवस्था में घटित घटनाओं का विवरण है जो उस समय की परिस्थितियों पर आधारित है। मिथक को मनोवैज्ञानिकों ने आदिम मनुष्य की दमित यौन भावना का मूलाधार माना है, जिन्हें वह कथात्मक प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करता था। समाजशास्त्रियों के अनुसार सामाजिक जीवन की आशा-आकांक्षा ही प्रक्षेपित होकर प्रतीकात्मक पुराकथा का रूप ले लेती है।
मिथक की परिभाषा
मिथक के संदर्भ में विद्वानों की पृथक्-पृथक् मान्यताएँ हैं, जो कि निम्नवत् हैं:
"मिथक वस्तुतः उस सामूहिक मानव की भाव-निर्मात्री शक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसे मनोविज्ञानी आर्किटाइपल इमेज कहकर सन्तोष कर लेते हैं।" -आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
डॉ. जगदीशप्रसाद श्रीवास्तव- 'विचारकों का एक बहुत बड़ा वर्ग मिथक की प्रकृति को मूलतः अलौकिक तथा धार्मिक मानता रहा है। उनके मतानुसार मिथक अति प्राकृत संसार की कथाएँ हैं, उनका परिवेश अलौकिक तथा धार्मिक होता है। उनमें प्रधानतया देवी-देवताओं के वृत्त होते हैं, जिनका धार्मिक महत्त्व होता है। वे आदिम युग के विश्वासों को अभिव्यक्त, संवर्धित तथा संहिताबद्ध करते हैं, साथ ही नैतिकता को सुरक्षित रखते हुए कर्मकाण्ड और व्यावहारिक नियमों का प्रवर्तन करते हैं, उनमें किसी देवता अथवा परा प्राकृत सत्ता का विवरण होता है, और उसके उच्चारणकर्त्ता उसमें धार्मिक आस्था रखते हैं।"
डॉ. विद्यानिवास मिश्र- "मिथक के बारे में एक भ्रान्त धारणा फैली हुई है कि यह कुछ मिथ्या से सम्बन्ध रखता है, अर्थात् इसमें वास्तविकता या यथार्थ का अंकन न होकर किसी काल्पनिक या अवास्तविक सत्ता या और ठीक-ठीक कहें, सत्ताभास का मायाजाल खड़ा किया जाता है, जबकि ठीक इसके विपरीत देश और काल के चौखटे से बाहर ले जाकर किसी भी वास्तविकता की सनातन और काल-प्रवाही डिज़ाइन (आकल्पना) प्रस्तुत करना ही मिथक का
मुख्य उद्देश्य होता है।
डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति-"संस्कृत के मिथ शब्द के साथ कर्त्तावाचक 'क' प्रत्यय जुड़ने से इसका निर्माण हुआ है। संस्कृत में 'मिथ' शब्द का अभिप्राय प्रत्यक्षज्ञान के लिए भी होता है तथा दो तत्त्वों के परस्पर सम्मिलन के लिए भी। मिथक के सन्दर्भ में दोनों के अर्थ जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। वह लौकिक एवं अलौकिक तत्त्वों का सम्मिश्रण है। लौकिक तत्त्व प्रत्यक्ष अनुभूति है, तो अलौकिक अध्यात्म तत्त्व। दोनों का मिश्रण मिथक के रूप में द्रष्टव्य है।"
डॉ. बच्चन सिंह-'मिथक में व्यक्ति की भावनाओं-विचारों के सूत्र अत्यन्त उलझे हुए, तर्केतर एवं गड्डमड्ड होते हैं। यह आदिम मनुष्य की वह भाषा या घटनात्मक प्रस्तुति है, जिसके माध्यम से वह जीवन एवं प्रकृति के रहस्यों के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को अलौकिक गाथाओं के रूप में अभिव्यक्त करता था।"
डॉ. विजय कुलश्रेष्ठ - "वस्तुतः लोक-कहानी और धर्मगाथा (मिथ) में कोई अन्तर नहीं है। दोनों का निर्माण बहुत जटिल सूत्रों से होता है और आज उन्हें खोजना असम्भव है।"
लेवीस स्पेन्स - “धर्मगाथा (मिथ) किसी देवता अथवा परा प्राकृत सत्ता का एक विवरण होता है। इसे साधारणतः आदिम विचारों की शैली में लाक्षणिकता से अभिव्यक्त किया जाता हैं।"
उपर्युक्त परिभाषाओं एवं व्याख्याओं से स्पष्ट है कि “मिथक के स्वरूप का निर्धारण करना सम्भव नहीं है। उसका स्वरूप दृष्टि-भेद पर निर्भर है। मिथकों से प्राप्त लाक्षणिकता, धर्मगाथाओं के कथासूत्रों के उलझाव, प्रतीकमूलक एवं प्रतिनिधित्व रखने वाले पात्रों एवं घटनाओं के प्रयोग से आती है।" चन्द्रमा की शीतलता, लक्ष्मी का कमल में वास, विष्णु का क्षीर-सागर में रहना, सूर्य का उगना आदि विस्मयात्मक व्यापारों के इर्द-गिर्द ही मिथक-चक्र घूमा करता है। प्रकृति की ऐसी ही अव्याख्येय मान्यताओं के आधार पर ही मिथक ने जन्म लिया। आधुनिक युग की अनास्था, संशय, द्वन्द्व, मर्यादाहीनता आदि की अभिव्यक्ति भी मिथकों के माध्यम से हो रही है। मिथक कथात्मक होते हैं। ये लोकविश्वास के रूप में जनमानस में प्रतिष्ठित हो गये। अन्धविश्वास, टोना-टोटका, जन्त्र-मन्त्र, रूढ़ि आदि मिथक के ही प्रभाव- स्वरूप हैं। शकुन-अपशकुन विचार, दैवीय चमत्कार जैसी धारणाएँ आज भी शिक्षित वर्ग के लोगों में देखी जाती हैं। यह सब सुदूर अतीत से ही लोकमानस में छाये हुए हैं।
मिथक की विशेषता
मिथक के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसके प्रमुख लक्षणों पर ध्यान देना आवश्यक है, जो कि निम्नवत् हैं-
- मिथक में देवी-देवताओं की कथाएँ, उनके चरित्र एवं सृष्टि के उत्थान-पतन, प्रकृति की आश्चर्यभरी घटनाओं आदि की कल्पना होती है।
- कथात्मकता के साथ-साथ मिथक में भावात्मकता, विस्मय-बोधकता एवं कल्पनात्मकता अधिक होती है।
- मिथक में आदिम मानव की दमित यौन भावनाएँ होती हैं, जिन्हें वह कथात्मक प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करता था, जो आज भी लोकमानस में बसी हुई हैं।
- मिथक में इन्द्रजाल, रहस्यमयी कथाएँ, धर्मगाथाएँ, दैवीय घटनाएँ आदि तत्त्व विशेष रूप से होते हैं।
- मिथक अतार्किक, असम्बद्ध तथा प्रातिभज्ञानपरक होता है, फिर भी वह लोकमानस की आस्था का बिम्बात्मक रूप है।
- मिथक आदिम मानव की दमित भावनाओं, आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों का रूपात्मक है।
मिथक का महत्त्व
मिथक मानव सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में घटित घटनाओं का विवरण है। उस समय मानव अपनी दमित भावनाओं, आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों को मिथंक-रूप में ही व्यक्त कर सन्तुष्ट हुआ होगा। धीरे-धीरे ये रूढ़ियों एवं परम्पराओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती गयीं जो आज काव्य या साहित्य में मिथक के रूप में साभिप्राय प्रयोग में लायी जा रही हैं। यथा-सम्पूर्ण पौराणिक कथाएँ, रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि की कथाएँ मिथकीय शैली में ही हैं, जिनका उपयोग येनकेन प्रकारेण आज का साहित्यकार विधिवत् कर रहा है। इस संदर्भ में मिथकीय घटनाओं, पात्रों एवं उपादानों का ऐसा प्रयोग किया जाता है कि वे अपेक्षित अर्थ की अभिव्यक्ति कर सकें। यह और बात है कि वर्तमान में आदिम युग की अपेक्षा नैतिक धारणाएँ कुछ परिवर्तित हो गयी हैं। संशय, पीड़ा, संत्रास, मानसिक द्वन्द्व आदि की अभिव्यक्ति मिथकों के माध्यम से हो रही है। इन मिथकों को अब कोशबद्ध किया जा रहा है और इन्हें केन्द्र में रख कर मिथकीय समीक्षा की एक पद्धति विकसित हो रही है।
मिथकीय समीक्षा के संदर्भ में अब तक बहुत कुछ कहा जा चुका है। मिथक आज भी हमारे जीवन में आदिमानव की सृष्टि के रूप में विद्यमान है। हिन्दी साहित्य के मध्यकाल तक की रचनाओं पर मिथक का विशेष प्रभाव है। आज विज्ञान एवं कला के विकास के कारण कविता हृदय-ग्राह्य कम तथा बुद्धिग्राह्य अधिक हुई है; फलत: मिथक कविता पर शासन नहीं कर पा रहा है, फिर भी पूर्णरूपेण बहिष्कृत नहीं हो सका है। आधुनिक युग के अनेक बड़े कवियों ने अपनी कविताओं में मिथकों का प्रयोग किया है। प्रसंगानुसार मिथकों एवं मिथकीय तत्त्वों की व्याख्या किये विना कविता के मर्म तक पहुँचना आसान नहीं। इसलिए मनोविज्ञान, समाजशास्त्र एवं नृतत्त्वशास्त्र आदि से सहयोग लेकर इनकी व्याख्या संभव हो पाती है। "आधुनिक हिन्दी कविता के स्तर पर अन्धायुग, कामायनी, कनुप्रिया, संशय की एक रात जैसी अनेक मिथकाधारित कृतियाँ सृजित हुई हैं। इनके पात्र वैदिक, पौराणिक अथवा लौकिक मिथों से सम्बन्ध रखते हैं।" नयी कविता में भी मिथकीयता के उदाहरण मिल जाते हैं, यथा-
रात मैंने एक स्वप्न देखा ।
मैंने देखा कि मेनका अस्पताल में नर्स हो गयी है।
और विश्वामित्र ट्युशन पढ़ा रहे हैं।
उर्वशी ने डांस स्कूल खोल लिया है।
और वृहस्पति अँगरेज़ी से अनुवाद कर रहे हैं।
मिथकों में अनेक ऐसे तत्त्व हैं, जो साहित्य में ग्रहण करने योग्य हैं। यथा- अतिप्राकृत तत्त्व, आख्यान, अनुष्ठान, बिम्ब और प्रतीक। इन सभी तत्त्वों को कवियों ने ग्रहण कर अपने काव्य का श्रृंगार किया है। यथा सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की राम की शक्ति पूजा को लिया जा सकता है। उसमें राम की शक्तिपूजा पारम्परिक आख्यान है। हनुमान् का ऊर्ध्वगमन अतिप्राकृत तत्त्व है। श्रीराम जगज्जननी दुर्गा को प्रसन्न करने एवं रावण को हराने के लिए अनुष्ठान करते हैं। बिम्ब तथा प्रतीक तो इस ग्रंथ में आदि से अन्त तक हैं। इसी तरह से प्रसाद की कामायनी तथा मुक्तिबोध की कविताओं में मिथकीय प्रयोग मिल जाते हैं। आज का आधुनिक कवि अपने काव्य में मिथक का प्रयोग दो उद्देश्यों से करता है, यथा- प्रथम : आदिम विश्वासों को नये संदर्भों से जोड़कर नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है तथा द्वितीय : नया संदर्भ मिल जाने से कविता अधिक सम्प्रेष्य बन जाती है। उदाहरणस्वरूप रामधारी सिंह दिनकर का उर्वशी और पुरूरवा का आख्यान लिया जा सकता है। इसमें मिथक की भौतिक व्याख्या करते हुए दिनकर जी ने पुरूरवा को सूर्य तथा उर्वशी को उषा माना है। दोनों का मिलन क्षणिक होता है। कवि ने इस वैदिक कथा को नये संदर्भ में प्रस्तुत किया है।
अन्त में डॉ. रामचन्द्र तिवारी के शब्दों में कहा जा सकता है कि "मिथकीय समीक्षा को समीक्षा की प्रमुख पद्धति नहीं माना जा सकता।समीक्षा के प्रतिमान ऐसे होने चाहिए जो कविता मात्र का विवेचन और मूल्यांकन कर सकें। इसलिए मिथकीय समीक्षा को समीक्षा की एक विशिष्ट पद्धति से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता।"
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