नंददास का जीवन परिचय नंददास हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध कवि और भक्त थे। वे पुष्टिमार्गीय संप्रदाय के प्रमुख कवियों में से एक थे और अष्टछाप के सदस्य
नंददास का जीवन परिचय
नंददास हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध कवि और भक्त थे। वे पुष्टिमार्गीय संप्रदाय के प्रमुख कवियों में से एक थे और अष्टछाप के सदस्य भी थे। उनकी भक्ति रस से ओत-प्रोत रचनाएँ आज भी लाखों लोगों के दिलों को छूती हैं।नन्ददास, सूरदासजी के प्रायः समकालीन थे और इनकी गणना अष्टछाप में है। इनका कविताकाल सूरदासजी की मृत्यु के पीछे सम्वत् 1625 या उसके और आगे तक माना जा सकता है। इनका जीवनवृत्त पूरा-पूरा और ठीक-ठीक नहीं मिलता। नाभाजी के भक्तकाल में इन पर जो छप्पय लिखा है उसमें जीवन के सम्बन्ध में इतना ही है -
चंद्रहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पथ में पगे।
इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चन्द्रहास था। इनके गोलोकवास के बहुत दिनों पीछे गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी के पुत्र गोकुलनाथ जी से जो 'दौ सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' लिखी गई उसमें इनका थोड़ा-सा वृत्त दिया गया है। उक्त वार्ता में नन्ददास जी तुलसीदास जी के भाई कहे गए हैं। गोकुलनाथ जी का अभिप्राय प्रसिद्ध गोस्वामी तुलसीदास जी से ही है, यह पूरी वार्ता पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। उसमें स्पष्ट लिखा है कि नन्ददास जी का कृष्णोपासक होना राम के अनन्य भक्त उनके भाई तुलसीदास जी को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उलाहना लिखकर भेजा। यह वाक्य भी उसमें आया है 'सो एक दिन नन्ददास जी के मन में ऐसी आई। जैसे तुलसीदास जी ने रामायण भाषा करी है सो हम हूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें। गोस्वामी जी का नन्ददास के साथ वृन्दावन जाना और वहाँ 'तुलसी मस्तक तब नवे धनुष बान लेव हाथ' वाली घटना भी उक्त वार्ता में ही लिखी है। पर गोस्वामी जी का नन्ददास जी से कोई सम्बन्ध न था, यह बात पूर्णतया सिद्ध हो चुकी है। अतः उक्त वार्ता की बातों को, जो वास्तव में भक्तों का गौरव प्रचलित करने और बल्लभाचार्य जी की गद्दी की महिमा प्रकट करने के लिये पीछे से लिखी गई हैं, प्रमाणकोटि में नहीं ले सकते ।
नंददास जी का भक्ति भाव
नंददास की भक्ति भावना अत्यंत सरल और सहज थी। वे कृष्ण को अपना सखा मानते थे और उनके साथ लीलाओं का वर्णन करते थे। उनकी कविता में बाल लीलाओं का वर्णन अत्यंत मनोहारी ढंग से किया गया है।वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नन्ददास जी सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर दिनों के लिये गोकुल चले गए। वहाँ भी ये जा पहुँचे। अन्त में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश सें इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। ध्रुवदास जी ने भी अपनी 'भक्तनामावली' में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।
नन्ददास जी की रचनाओं के नाम
नंददास ने कृष्ण भक्ति पर अनेक रचनाएँ कीं। उनकी रचनाओं में माधुर्य भावना का प्रधान स्थान है। उन्होंने कृष्ण को अपने सखा के रूप में देखा और उनकी बाल लीलाओं का बड़े ही मनोहारी ढंग से वर्णन किया।अष्टछाप में सूरदास जी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके सम्बन्ध में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'और कवि गढ़िया, नन्ददास जड़िया।' इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक 'रासपंचाध्यायी' है जो रोला छन्दों में लिखी गई है।नंददास को जड़िया कवि की उपाधि उनकी रचना 'रासपंचाध्यायी' के आधार पर मिली थी । इसमें, जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है, अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई है, पर नन्ददास जी में ये बातें पूर्णरूप में पाई जाती हैं।
'रासपंचाध्यायी' के अतिरिक्त इन्होंने ये पुस्तकें लिखीं हैं- भागवत दशम स्कन्ध, रुक्मिणीमंगल, सिद्धान्तपंचाध्यायी, रूपमंजरी, रतमंजरी, मानमंजरी, विरहमंजरी, नामचिन्तामणिमाला, अनेकार्थनाममाला (कोश), दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी, ज्ञानमंजरी, श्यामसगाई, भ्रमरगीत और सुदामाचरित। दो ग्रन्थ इनके लिखे और कहे जाते हैं-हितोपदेश और नासिक्तिपुराण (गद्य में)। दौ सौ से ऊपर इनके फुटकल पद भी मिले हैं जो शीघ्र प्रकाशित होंगे। जहाँ तक ज्ञात है इनकी चार पुस्तकें ही अब तक प्रकाशित हुई हैं- रासपंचाध्यायी, भ्रमरगीत, अनेकार्थमंजरी और अनेकार्थनाममाला। इनमें रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत ही प्रसिद्ध हैं।
नंददास हिंदी साहित्य के एक महान कवि थे। उनकी रचनाओं ने भक्ति काव्य को समृद्ध किया। उनकी सरल और सहज भाषा ने उन्हें जन-जन के दिलों में बसा दिया। आज भी उनकी रचनाएँ लोगों को भावुक करती हैं और भक्ति रस से भर देती हैं।
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